डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – कन्या-दर्शन का कार्यक्रम ☆
हमारे देश में नारी-स्वातंत्र्य और दहेज-विरोध को लेकर बड़ा शोरगुल होता है। लेख लिखे जाते हैं, फोटोदार परिचर्चा होती है। थालियाँ और डिब्बे बजा बजाकर जुलूस निकाले जाते हैं, गला फाड़कर नारे लगाये जाते हैं। लेकिन जब झाग बैठता है तो पता चलता है कि हम जहाँ खड़े थे वहीं रुके हैं। बल्कि दो चार कदम और पीछे हट गये।
मेरे कुछ परिचित परिवारों में विवाह-योग्य कन्याएं हैं। खासी पढ़ी-लिखी, योग्य। देखने के लिए लड़के वाले आते हैं। पहले माँ बाप लड़के के साथ आते हैं। तीन चार दिन बाद लड़के का बड़ा भाई अपनी बीवी के साथ आता है। फिर दो चार दिन बाद लड़के की बहन आती है। फिर खबर आती है कि अगले इतवार को लड़के के बहनोई साहब इटारसी से आ रहे हैं। वे भी कन्या-दर्शन का लाभ प्राप्त करेंगे। बहनोई साहब के आगमन के चार दिन बाद पता चलता है कि लड़के के ताऊजी बुरहानपुर से चल चुके हैं। वे भी कन्या को देखने का इरादा रखते हैं। अन्तिम निर्णय उन्हीं का होगा। वैसे लड़के के अस्सी वर्षीय, मोतियाबिन्द-पीड़ित दादाजी भी आ रहे हैं।
इस बीच लड़की वालों को लड़के वालों के निर्णय का कुछ पता नहीं चलता। वे अनिश्चय और आशंका की स्थिति में झूलते रहते हैं। लड़की को दिखाने से मना नहीं कर सकते, चाहे लड़के वाले अपना पूरा मुहल्ला लेकर आ जाएं। आधी रात को जगाकर कन्या दिखाने का हुक्म दें तो तामील करना पड़ेगा। वैसे अगर ‘दीगर’ बातें पहले से तय हो जाएं तो यह देखने-वेखने और टेवा (जन्मपत्री) मिलाने का कार्यक्रम संक्षिप्त भी हो सकता है।
लड़के पर यह बात लागू नहीं होती। लड़की वाले जाएं तो कुँवर साहब के दर्शन बड़े सौभाग्य से और बड़े नखरों के बाद होते हैं। कभी खबर आ जाती है कि कुँवर साहब आराम कर रहे हैं, दर्शन कल होंगे। वैसे हमारे देश में लड़के वालों के दरवाज़े पर लड़की वालों की स्थिति याचक की सी होती है। इसलिए कुँवर साहब और उनके जनक-जननी जैसा नाच नचायें, लड़की वालों को नाचना पड़ता है।
सवाल यह है कि लड़की के दर्शन लड़के के बहनोई से लेकर ताऊ और बाबा तक क्यों करते हैं? ताऊजी लड़की को अपने पचास साल वाले चश्मे से देखेंगे या लड़के के चश्मे से? माँ-बाप का देखना तो समझ में आता है, लेकिन परिवार के सभी आदरणीय को इस रस्म में शामिल करना क्यों ज़रूरी है? मान लो लड़की को सब ने पसन्द कर लिया लेकिन सयाने ताऊजी ने सब के मत को ‘वीटो’ कर दिया तो क्या होगा? शादी लड़के की होनी है, लेकिन पसन्द ताऊजी की चलेगी।
इस तरह की रस्में हमारे समाज में स्त्री की स्थिति का कच्चा-चिट्ठा खोलती हैं। स्त्री घर से बाहर आयी, पर्दे से मुक्त हुई, शिक्षित भी हुई, लेकिन समाज पर पंजा पुरुष का ही है। लड़कियों को पढ़ाने में लापरवाही इसलिए की जाती है क्योंकि उन्हें पराये घर जाना है। लेकिन यह लापरवाही लड़की के बाप को लड़के वालों के सामने और ज़्यादा दुम हिलाने के लिए मजबूर कर देती है।
स्थिति बदतर हो रही है। दहेज के खिलाफ बड़े सख्त कानून बने, लेकिन किसी कमज़ोर धनुर्धारी के तीर की तरह लक्ष्य तक पहुँचे बिना ही कहीं खो गये। वैसे भी हमारे आदर्शों और व्यवहार में हमेशा विरोध रहा है, इसलिए कोई ग़म की बात नहीं है। कम से कम हम महान कानून तो बना रहे हैं ताकि आगे आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें पढ़कर समझें कि हमारा समाज दहेज और स्त्री-शोषण के कितने ज़बरदस्त खिलाफ था। ये कानून की किताबें काल-पात्र में रखी जानी चाहिए।
मंहगाई बढ़ने के साथ लड़कों के रेट बढ़ रहे हैं। व्यापारिक भाषा में कहें तो ‘सुधर’ रहे हैं। इसलिए लड़की के बाप पर दुहरी मार पड़ रही है। सब कुछ सुधर रहा है, इसलिए कन्या के पिता की हालत बिगड़ रही है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
सुंदर रचना