सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “परिंदे”। यह कविता आपकी पुस्तक एक शमां हरदम जलती है से उद्धृत है। )
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 45 ☆
बचपन में मैं
जैसे ही सुबह उठकर
बालकनी में जाती,
परिंदों के झुण्ड दिखते
एक साथ कहीं दूर जाते हुए,
और फिर शाम को जब मैं फिर खड़ी होती
अलसाती शाम में आसमान को देखती हुई
वही परिंदे वापस आते हुए दिखते!
मेरे घर के पास
छोटे-छोटे ही परिंदे हुआ करते थे
जैसे मैना और तोते,
और मैं अक्सर माँ से पूछती,
“यह परिंदे कहाँ जाते हैं, माँ?
और शाम ढले, कहाँ से आते हैं?”
माँ बताती,
“इनकी किस्मत तुम्हारे जैसी थोड़े ही है!
जैसे ही परिंदे उड़ना शुरू कर देते हैं,
उन्हें दाने की खोज में
न जाने कहाँ-कहाँ जाना पड़ता है!”
इन परिंदों को मैं ध्यान से देखती…
खासकर मैना को…
न जाने क्यों मुझे वो बड़ी अच्छी लगती थी!
कहानियों में तोता और मैना का प्रेम
बड़ा मशहूर हुआ करता था
और जब भी मैं यह गाना सुनती,
“तोता-मैना की कहानी तो पुरानी-पुरानी हो गयी!”
मैं और ध्यान से मैना को देखती
कि क्या गुण है इस मैना में
कि हरा सा खूबसूरत तोता
इससे मुहब्बत करता है?”
एक दिन जब मैं मैना को ध्यान से देख रही थी,
मेरी एक सहेली ने आकर बताया,
“पता है, एक मैना को कभी नहीं देखना चाहिए?”
मैंने पूछा, “ भला, क्यों?”
उसने बताया,
“एक मैना दिखे, तो दर्द मिलता है,
दो मिलें, तो ख़ुशी,
तीन मिलें, तो ख़त आता है
और चार मिलें, तो खिलौना मिलता है!”
तब से, जब भी मुझे एक मैना दिखती,
मैं अपना मूंह फेर लेती!
आखिर, नहीं चाहिए था मुझे कोई ग़म!
अभी लॉक डाउन के दौरान
अपने बगीचे में बैठी, आसमान को अक्सर निहारती हूँ!
ख़ास बात यह है, कि मेरे घर के पास,
सबसे ज़्यादा तायदाद में चील हैं!
और उससे भी ख़ास बात यह है
कि यह झुण्ड में नहीं,
ज़्यादातर अकेली ही घूमती हैं!
जब पहली बार अकेली चील को उड़ते हुए देखा,
बचपन की बात याद कर,
मैं आँख बंद करने ही वाली थी
कि मैंने देखा, वो चील अकेले ही बहुत खुश लग रही थी!
और कितनी लाजवाब थी उसकी उड़ान!
वो किसी शिकार को भी नहीं खोज रही थी-
वो तो बस उड़ रही थी बे-ख़याल और मस्त-मौला सी
उन्मुक्त से गगन में!
शायद चील इसीलिए बहुत मशहूर है
कि उसे विश्वास झुण्ड पर नहीं,
अपने हुनर पर है!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
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