डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – पटरी से उतरी व्यवस्था ☆
वे दोनों मेरे पुराने मित्र थे। धंधे के सिलसिले में मेरे शहर आते जाते रहते थे। वे समझदार लोग थे, मेरे जैसे गावदी नहीं थे। उन्होंने ज़माने को पकड़ लिया था, मैं ज़माने की दुलत्तियाँ सहते सहते अधमरा हो रहा था। उन पर लक्ष्मी की कृपा थी,मेरे सरस्वती-मोह ने लक्ष्मी जी को हमेशा मुझसे दो हाथ दूर रखा था। वे अपनी हैसियत के हिसाब से होटल में रुकते थे, धंधे से निपट कर वक्त गुज़ारने के लिए मेरे घर आ जाते थे।
उस शाम वे आये तो मगन थे। बोले, ‘दो तीन सरकारी इमारतों का ठेका मिलना है। पिछली बार आये थे तो अफ़सरों से बात हो गयी थी। पक्का वादा मिल गया था। मंत्री जी से भेंट हो गयी थी। उनका आशीर्वाद भी मिल गया था। इस बार पूरी तैयारी से आये हैं।’
उन्होंने गोद में रखा ब्रीफ़केस बजाया। मैं समझ गया कि उसमें लक्ष्मी जी कैद हैं।
वे बोले, ‘यहाँ यह बहुत अच्छा है कि सही रास्ता पकड़ लिया जाए तो फिर कोई परेशानी नहीं होती। हाँ,सही रास्ते की खोज में ही थोड़ी दिक्कत होती है,लेकिन एक बार मिल गया तो फिर गाड़ी अपने आप चलने लगती है। फिर तो अफ़सर खुद ही टेलीफोन करके बुलाने लगते हैं। हम अगर अफ़सरों और मंत्रियों से बेईमानी न करें तो वे पूरी ईमानदारी से साथ देते हैं। नीयत साफ रहना बहुत ज़रूरी है। ‘
मैंने सहमति में सिर हिलाया।
वे बोले, ‘नीयत में खोट न हो तो सब काम आराम से चलता जाता है। पेमेंट टाइम से मिल जाता है,और जो दिक्कतें हों उन्हें दूर करने में सबकी मदद मिलती है। सब काम प्यार मुहब्बत से चलता है। दूसरी जगहों जैसी बेईमानी यहाँ नहीं होती। वहाँ तो पैसा लेने के बाद भी काम होने की कोई गारंटी नहीं होती। ‘
दूसरी शाम वे आये तो उनके मुँह लटके हुए थे। माथे का पसीना पोंछते हुए बोले, ‘यहाँ तो सब गड़बड़ हो गया। कोई अफ़सर हाथ नहीं धरने देता। ऐसे बिदकते हैं जैसे हम प्लेग या एड्स के मरीज़ हों। मंत्री ने पहचानने से इनकार कर दिया। सब महतमा गांधी हो गये। ‘
मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘क्या
हुआ?’
वे बोले, ‘हमारी समझ में आये तो बताएं। सुना है कि हाल में मंत्रियों अफ़सरों पर सी.बी.आई. के. छापे पड़े हैं। उसी से सब गड़बड़ हुआ है। ‘
मैंने कहा, ‘हाँ,अखबारों में पढ़ा तो था। ‘
वे माथे पर हाथ धर कर बोले, ‘क्या ज़माना आ गया कि मंत्रियों को भी नहीं छोड़ा जा रहा है। अब आप बताइए ऐसे में कौन काम करेगा और कैसे कमाई करेगा?’
मैंने हमदर्दी के स्वर में कहा, ‘चिन्ता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा। जब वे दिन नहीं रहे तो ये भी नहीं रहेंगे।’
वे कृतज्ञ भाव से मेरी तरफ देखकर बोले, ‘यही उम्मीद है, लेकिन अफसोस तो होता ही है कि ऐसी बढ़िया चल रही व्यवस्था खटाई में पड़ गयी। किसी चीज़ को बनाने में सालों लग जाते हैं, लेकिन बिगाड़ने में मिनट भी नहीं लगते। ‘
मैंने उनके दुख में अपना दुख मिलाते हुए कहा, ‘इसमें क्या शक है!’
वे शून्य में आँखें गड़ाकर जैसे अपने आप से बोले, ‘आहा! क्या सिस्टम था। एकदम ‘वेल आइल्ड’, एकदम ‘परफेक्ट’। ‘
मैंने कहा, ‘ऐसे सिस्टम को ‘वेल आइल्ड’ न कहकर ‘वेल ग्रीज़्ड’ कहना चाहिए क्योंकि अंग्रेज़ी में रिश्वत के लिए ‘ग्रीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। ‘
वे कुछ अप्रतिभ होकर बोले, ‘कुछ भी कहिए, काम होना चाहिए। चाहे तेल से हो, चाहे ग्रीज़ से। जब काम ही नहीं होना है तो तेल क्या और ग्रीज़ क्या। काम नहीं होगा तो देश आगे कैसे बढ़ेगा और लोग ख़ुशहाल कैसे होंगे?’
मैंने कहा, ‘ठीक कहते हैं। ‘
विदा होने लगे तो वे बोले, ‘हमने उम्मीद नहीं छोड़ी है। हम जल्दी ही फिर आएंगे। व्यवस्था फिर बदलेगी। जब अच्छी व्यवस्था नहीं रही तो बुरी भी नहीं रहेगी। शक-शुबह की रात ढलेगी और प्यार-मुहब्बत की सुबह फिर फूटेगी। ‘
चलते वक्त वे बोले, ‘इस ब्रीफ़केस में कुछ रुपये हैं। हम सोचते हैं इस को यहीं छोड़ जाएं। कहाँ लिये लिये फिरेंगे। बाद में तो यहाँ इसकी ज़रूरत पड़ेगी ही। ‘
मैंने पूछा, ‘इसमें कितना रुपया है?’
वे बोले, ‘तीन लाख हैं। ‘
सुनकर मेरा रक्तचाप बढ़ गया। घबराकर बोला, ‘भाईजान, इतना रुपया संभालने की मेरी कूवत नहीं है। हमारा घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। दिन का चैन और रात की नींद हराम हो जाएगी। इसे आप अपने साथ ले जाएं या किसी हैसियत वाले के पास छोड़ जाएं।’
वे सुनकर हँसने लगे। बोले, ‘आप तो ऐसे घबरा गये जैसे हम कोई साँप या बिना लाइसेंस की बन्दूक छोड़े जा रहे हों। तीन लाख तो आजकल लोगों की एक दिन की ख़ूराक होती है।’
मैंने कहा, ‘हाँ,मैंने भी ऐसे महापुरुषों के बारे में पढ़ा सुना है, लेकिन साथ करने का सौभाग्य नहीं मिला। अपनी तो हालत यह है कि एक बार भोपाल जाते समय एक मित्र ने बीस हज़ार के नोट थमा दिये कि वहाँ पहुँचकर उनके रिश्तेदार को दे दूँ। बस भाईजान,अपना तो पेशाब-पानी बन्द हो गया। नोट हैंडबैग में थे। टायलेट जाता तो हैंडबैग भीड़ के बीच से गले में लटका कर ले जाता। साथ के यात्री सोचने लगे कि मैं सनका हूँ। जब गाड़ी भोपाल पहुँची तब जान में जान आयी। ‘
वे हँसकर बोले, ‘अगली बार हम आपको भी कुछ धंधा करना सिखाएंगे। तभी आपको रुपया संभालने की आदत पड़ेगी। ‘
मैंने कहा, ‘भाई, बूढ़े तोते को राम राम पढ़ाना मुश्किल है। ‘
वे बोले, ‘हुनर सीखने की कोई उम्र नहीं होती। जब जागे तभी सबेरा। ‘
मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘पधारना भाई। मैं इन्तज़ार करूँगा।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
जानदार व्यंग