डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी)
☆ किसलय की कलम से # 11 ☆
☆ व्यावहारिक ज्ञान की कमी बच्चों की सबसे बड़ी कमजोरी ☆
जिस ज्ञान का उपयोग दैनिक जीवन में किया जाता हो, दिनचर्या का जो विशेष अंग हो। वार्तालाप और कार्य करते समय जिस ज्ञान से आपकी सकारात्मक छवि का पता चले, वही व्यावहारिक ज्ञान है। बच्चों के क्रियाकलाप, आचार-विचार, बड़ों के प्रति श्रद्धा व सम्मान इसी व्यावहारिक ज्ञान की परिणति होते हैं। दो-तीन पूर्व-पीढ़ियों से मानव समाज में व्यवहारिकता लगातार कम होती जा रही है। आदर, सम्मान, परमार्थ, सद्भाव, भाईचारा, मित्रता, दीन-दुखियों की सेवा जैसे गुणों की कमी स्पष्ट दिखाई देने लगी है। शिक्षा प्रणाली, अर्थ-महत्ता, सामाजिक व्यवस्था व हमारे बदलते दृष्टिकोण भी इसके महत्त्वपूर्ण कारक हैं। आज गुरुकुल प्रथा लुप्त हो गई है, जहाँ बच्चों को भेजकर उन्हें शिक्षा के अतिरिक्त व्यावहारिक ज्ञान, आचार-विचार, आदर-सम्मान, परिश्रम, आत्मनिर्भरता, विनम्रता, चातुर्य, अस्त्र-शस्त्र विद्या, योग-व्यायाम के साथ-साथ भावी जीवन के उच्च आदर्शों को भी सिखाया जाता था। संयुक्त परिवार में बड़े-बुजुर्ग अपने अनुभव व ज्ञान के सूत्र संतानों को बताया करते थे। बच्चों के हृदय में झूठ, घमण्ड, ईर्ष्या, अनादर, असभ्यता का कोई स्थान नहीं होता था। न ही कोई उन्हें ऐसे कृत्यों हेतु बढ़ावा दे सकता था। व्यावहारिक ज्ञान के एक उदाहरण को तुलसीदास जी प्रस्तुत करते हैं-
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा #
मात, पिता, गुरु नावहिं माथा
ऐसी एक नहीं असंख्य जीवनोपयोगी बातें हैं, जिन्हें बच्चे बचपन में ही हृदयंगम कर लेते थे। ऐसे संस्कारित बच्चों को देखकर घर आये मेहमान तक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने से स्वयं को रोक नहीं पाते थे। ये वही सद्गुण थे जो उनके द्वारा जीवनपर्यंत व्यवहार में लाए जाते थे। बच्चों को सत्य-असत्य, घृणा-प्रेम, छल-निश्छल का अंतर बचपन में ही समझा दिया जाता था। उन्हें इस तरह से संस्कारित किया जाता था कि वे सदैव सकारात्मकता की ओर अग्रसर हों और प्रायः होता भी यही था। तभी तो उस काल के समाज में झूठ, आडंबर, छल, द्वेष, निरादर के आज जैसे उदाहरण कम दिखाई देते थे। धीरे-धीरे जब हम अधिक स्वार्थी, चतुर और चालाक होते गए तो उसी अनुपात में मानवीय आदर्श भी हमसे शनैःशनैः दूर होने लगे। हमारे द्वारा किये जा रहे निम्न स्तरीय व्यवहार व कृत्य हमारी संतानों को भी विरासत में मिल ही रहे हैं। आजकल जब हम स्वयं अपनी संतानों के मन में झूठ, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अवसरवादिता आदि अवगुणों को सुभाषितों जैसे रटाते हैं, तब हम कल्पना तो कर ही सकते हैं कि बच्चों में किन संस्कारों अथवा कुसंस्कारों की बहुलता होगी। कुछ अपवाद छोड़ भी दिए जाएँ तो हम पाएँगे कि आजकल अधिकांश घरों में पहुँचते ही संबंधित व्यक्ति को छोड़कर परिवार के अधिकांश सदस्य किनारा कर लेते है, अभिवादन की बात तो बहुत दूर की है। उस परिवार के बच्चों को चरण स्पर्श करना, नमस्ते करना जब सिखाया ही नहीं गया होता तो वे करेंगे ही क्यों? कारण यह भी है कि ऐसा न करने पर उनके माता-पिता तक उन्हें ऐसा करने हेतु नहीं कहते। वहीं आप पिछली सदी की ओर मुड़कर देखें और स्मरण कर स्वयं से पूछें- क्या आप घर आए मेहमान को यथोचित अभिवादन नहीं करते थे? उनके स्वागत-सत्कार में नहीं लग जाते थे? यदि पहले आप अपने से बड़ों का आदर करते थे, तो आज आप अपने बच्चों में वैसे ही श्रेष्ठ संस्कार क्यों नहीं डालते? यह भी एक चिंतन का विषय है। क्या आपको परंपराओं व संस्कारों के लाभ ज्ञात नहीं हैं, या फिर अभी तक आप भेड़-चाल ही चल रहे हैं। अपने घर या समाज में देखा कि वह किसी ऋषि-मुनियों या बुजुर्गों के पैर छूता है, तो मैं भी पैर छूने लगा। पूरे विश्व को विदित है कि हमारी भारतीय संस्कृति एवं अधिकांश परंपराओं के अनेकानेक लाभ हैं। आपके द्वारा चरणस्पर्श करने से क्या आप में विनम्रता का गुण नहीं आता? क्या अहंकार का भाव कम नहीं होता? परसेवा से आपके हृदय को जो शांति मिलती है, क्या वह आपने अनुभव नहीं की? कभी भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, बेसहारा को सहारा, बीमार की तीमारदारी अथवा भटक रहे व्यक्ति को सकुशल गंतव्य तक पहुँचाने पर मिली आत्मशांति को पुनः स्मृत नहीं किया। आज भी आप इन हीरे-मोतियों से भी बहुमूल्य ‘गुणरत्नों’ से अपने अंतर्मन का श्रृंगार कर सकते हैं। आज जब सारे विश्व का परिदृश्य बदल रहा है, मानवीय मूल्यों का क्षरण हो रहा है। अपने बड़े-बुजुर्ग ही स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं तब हम सभी को अपनी जान से प्यारी संतानों के लिए यही सब सिखाने का बीड़ा तो उठाना ही पड़ेगा। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाएगा कि हम स्वयं ही आज अपनी संतानों को अवगुणों की भट्टी में झोंकने पर तुले हैं।
बड़ी ग्लानि व दुख होता है आज की अधिकतर संतानों को देखकर, जो भौतिक सुख-समृद्धि व स्वार्थ की चाह में अपना दुर्लभ मानव जीवन अर्थ और स्वार्थ में व्यर्थ गँवा रहे हैं। महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि अब इन अनभिज्ञ बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान समझाने के लिए न ही कोई गुरुकुल बचे हैं और न ही उनके आजा-आजी, नाना-नानी या चाचा-चाची उनके पास होते हैं। आजकल माता-पिता की व्यस्त दिनचर्या के चलते बच्चों को शिक्षा और संस्कार देने वाले मात्र वैतनिक शिक्षक होते हैं। उनमें से बहुतायत में वे लोग शिक्षा देने का दायित्व सम्हाले हुए हैं जिन्हें स्वयं न ही व्यावहारिक, न ही शैक्षिक और न ही नैतिक ज्ञान का पूर्व अनुभव होता है। आप स्वयं पता लगा सकते हैं कि केवल आम डिग्रियों के आधार पर ही अन्य पदों की तरह शिक्षक पद की पात्रता सुनिश्चित कर दी जाती है। क्या ‘गुरु के वास्तविक पद’ के अनुरूप आज के शिक्षक कहीं दिखाई देते हैं? समाज में ऐसी ही विसंगतियों व कमियों के चलते आज आदर्श और समर्पित शिक्षकों की महती आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। घर में भी माता-पिता और बुजुर्गों द्वारा अपने बच्चों को व्यावहारिक ज्ञान और संस्कार देने की भी जरूरत है। अब भी यदि ऐसा नहीं होता, तो आगे क्या होगा आप-हम स्वयं अनुमान लगा सकते हैं।
हमें बच्चों में जीवनोपयोगी कहानियों, कविताओं, सद्ग्रंथों व अपने व्यवहार से उनमें यथासंभव सकारात्मकता के बीज रोपने होंगे, तभी हमारे बच्चे सुसंस्कारित हो पाएँगे, हमारा समाज सुधर पायेगा और तब जाकर ही वे परिस्थितियाँ निर्मित होंगी जब शिक्षकों तथा आपका दिया गया व्यावहारिक ज्ञान समाज में बदलाव लाने हेतु सक्षम हो सकेगा।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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ईमेल : [email protected]
महत्त्वपूर्ण पत्रिका “ई-अभिव्यक्ति” में
इस आलेख के प्रकाशन हेतु
संपादक जी का हृदय से आभार।