डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक  समसामयिक लघुकथा  ‘बदलाव’।  वर्तमान महामारी ने प्रत्येक व्यक्ति में बदलाव ला दिया है । डॉ परिहार जी  ने इस मनोवैज्ञानिक बदलाव को बखूबी अपनी लघुकथा में दर्शाया है। इस  सार्थक समसामयिक लघुकथा के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बदलाव

 फोन की घंटी बजी तो मिसेज़ चन्नी ने उठाकर बात की। बात ख़त्म हुई तो माँजी यानी उनकी सास ने चाय पीते पीते पूछा, ‘किसका फोन आ गया सुबे सुबे?’

मिसेज़ चन्नी ने जवाब दिया, ‘वही गीता है। कहती है अब बुला लो। कहती है अन्दर आकर झाड़ू-पोंछा नहीं करेगी, बर्तन धोकर बाहर बाहर चली जाएगी। आधे काम के ही पैसे लेगी। ‘

माँजी बोलीं, ‘बड़ी मुश्किल है। ये बीमारी ऐसी फैली है कि किसी को भी घर में बुलाने में डर लगता है। बाहर से आने वाला कहाँ से आता है, कहाँ जाता है,क्या पता। बड़ा खराब टाइम है भाई। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘कहती है कि बहुत परेशान है। माँ की तबियत खराब है, उसकी दवा के लिए पैसे की दिक्कत है। ‘

माँजी कहती हैं, ‘सोच लो। हमें तो भई डर लगता है। ‘

मिसेज़ चन्नी बोलीं, ‘डर की बात तो है ही। ये बीमारी ऐसी है कि इसका कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो टाल ही रही हूँ। कह दिया है कि एक दो दिन में बताती हूँ। बार बार रिक्वेस्ट कर रही थी। ‘

शुरू में जब गीता को काम पर आने से मना किया तो मिसेज़ चन्नी बहुत नर्वस हुई थीं। समझ में नहीं आया कि काम कैसे चलेगा। खुद उन्हें ऐसे मेहनत के काम करने की आदत नहीं। एक दिन झाड़ू-पोंछा करना पड़ जाए तो बड़ी थकान लगती है। बर्तन धोना तो पहाड़ लगता है।

राहत की बात यह है कि ये दोनों काम बच्चों ने संभाल लिये हैं। बच्चों के स्कूल बन्द हैं, व्यस्त रहने के लिए कुछ न कुछ चाहिए। मोबाइल में उलझे रहने के बजाय झाड़ू लगाने और बर्तन धोने में मज़ा आता है। इसे लेकर निक्कू और निक्की में लड़ाई होती है, इसलिए दोनों के अलग अलग दिन बाँध दिये हैं। एक दिन निक्कू बर्तन धोयेगा तो निक्की झाड़ू-पोंछा करेगी। दूसरे दिन इसका उल्टा होगा। आधे घंटे का काम एक घंटे तक चलता है। उनका काम देखकर मिसेज़ चन्नी और माँजी हुलसती रहती हैं। इनाम में बच्चों को चॉकलेट मिलती है। सब का मनोरंजन होता है।

माँजी ऐसे मौकों पर गीता को याद करती रहती हैं। महामारी फैलने से पहले गीता अपनी तुनकमिजाज़ी के लिए मुहल्ले में बदनाम थी। काम में तो तेज़ थी, लेकिन कोई बात उसके मन के हिसाब से न होने पर उसे काम छोड़ने में एक मिनट भी नहीं लगता था। मिसेज़ चन्नी का काम उसने दो बार छोड़ा था और दोनों बार उसे सिफारिश और खुशामद के बाद वापस लाया गया था।

पहली बार मिसेज़ चन्नी ने बर्तनों में चिकनाहट लगी रहने की शिकायत की थी और वह दूसरे दिन गायब हो गयी थी। फिर मिसेज़ शुक्ला से सिफारिश कराके उसे वापस बुलाया गया, और माँजी ने उसे ‘बेटी बेटी’ करके बड़ी देर तक पुचकारा। तब मामला सीधा हुआ। दूसरी बार बिना बताये छुट्टी लेने पर मिसेज़ चन्नी ने शिकायत की थी और वह फिर अंतर्ध्यान हो गयी थी। तब मिसेज़ चन्नी उसे घर से बुलाकर लायी थीं। आने के बाद भी वह तीन चार दिन मुँह फुलाये रही थी और मिसेज़ चन्नी की साँस ऊपर नीचे होती रही थी।

आखिरकार मिसेज़ चन्नी ने गीता को बुला लिया है। बच्चे घर के काम से अब ऊबने लगे हैं। चार दिन का शौक पूरा हो गया है। पहले काम करने के लिए जल्दी उठ जाते थे, अब उठने में अलसाने लगे हैं। बुलाने के साथ गीता को समझा दिया गया है कि गेट से आकर पीछे बर्तन धो कर चली जाएगी, घर के भीतर प्रवेश नहीं करेगी। गीता तुरन्त राज़ी हो गयी है। समझ में आता है कि रोज़ी की चिन्ता ने उसकी अकड़ को ध्वस्त कर दिया है।

मिसेज़ चन्नी देखती हैं कि दो तीन महीनों में गीता बहुत बदल गयी है। चुपचाप आकर काम करके निकल जाती है। पहले जैसे आँख मिलाकर बात नहीं करती। कभी बर्तन ज़्यादा हो जाएं तो आपत्ति नहीं करती। कभी देर से पहुँचने पर मिसेज़ चन्नी ने झुँझलाहट ज़ाहिर की तो उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसको लेकर अब मिसेज़ चन्नी के मन में कोई तनाव नहीं होता। उन्हें लगता है कि गीता को लेकर अब निश्चिंत हुआ जा सकता है। अब आशंका का कोई कारण नहीं रहा।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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Shyam Khaparde

अच्छी रचना