डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – अमर होने का मार्ग ☆
माना कि जीवन क्षणभंगुर है, ‘पानी में लिक्खी लिखाई’ है, लेकिन यह ख़याल जी को कंपा देता है कि एक दिन इस विशाल भारतभूमि में अपना कोई नामलेवा भी नहीं रहेगा। अभी कुछ दिन पहले एक काफी वज़नदार लेखक दिवंगत हुए। जब ‘आम आदमी’ की किस्म के कुछ लोगों को यह सूचना दी गयी तो उन्होंने बहुत मासूमियत से पूछा, ‘कौन? वे मिलौनीगंज वाले पहलवान?’ सवाल सुनकर मेरा दिल एकदम डूब गया। तभी से लग रहा है कि अमर होने के लिए सिर्फ लेखक होना काफी नहीं है। कुछ और हाथ-पाँव हिलाना ज़रूरी है।
इस सिलसिले में छेदीलाल जी का स्मरण करना ज़रूरी समझता हूँ। छेदीलाल जी बीस साल तक मिलावट और कालाबाज़ारी के बेताज बादशाह रहे। मिलावट में नाना प्रकार के प्रयोग और ईजाद करने का श्रेय उन्हें जाता है। हज़ारों लोगों को कैंसर और चर्मरोग प्रदान करने में उनका योगदान रहा। शहर के कैंसर,गुर्दा रोगऔर चर्मरोगों के डॉक्टर बीस साल तक उन्हें ख़ुदा समझते रहे। पचपन साल की उम्र में वे मुझसे बोले, ‘भाई जी, पैसा तो बहुत कमा लिया, अब कुछ ऐसा करना चाहता हूँ कि लोग मौत के बाद मुझे याद करें। ‘ फिर मैंने और उन्होंने बहुत कोशिश की कि धरती पर अमरत्व का कोई मार्ग उन्हें मिल जाए, लेकिन बात कुछ बनी नहीं। उनकी मौत के बाद उनके पुत्रों ने उनके नाम पर खजुराहो में एक आधुनिक जुआघर खुलवा दिया जहाँ लोग अपना कला-प्रेम और जुआ-प्रेम एक साथ साधते हैं। अब छेदीलाल के पुत्रों को अर्थ-लाभ तो मिल ही रहा है, साथ ही दुनिया के सारे जुआड़ी उनका आदर से स्मरण करते हैं।
मैं भी उम्र की ढलान पर पहुँचने के बाद इसी फिक्र में हूँ कि कोई ऐसा रास्ता मिल जाए कि मेरा नाम इस संसार से उखाड़ फेंकना मुश्किल हो जाए। यह भी क्या बात हुई कि आप संसार से बाहर हों और जनता-जनार्दन पीछे से आपको आवाज़ दे कि ‘ए भइया, यह अपना नाम भी साथ लेते जाओ। हमें इसकी दरकार नहीं है। ‘ मुश्किल यह है कि नाम या तो बहुत अच्छे काम करने वाले का रहता है या बहुत बुरे काम करने वाले का। बीच वाले आदमी के लिए इस संसार में कोई भविष्य नहीं है।
मैं भी अन्य आम आदमियों की तरह इन मुश्किलात से मायूस न होकर अमर होने के रास्ते खोजता रहता हूँ। अभी तक सफलता हाथ नहीं लगी है, लेकिन मैंने ठान लिया है कि इस दुनिया से कूच होने से पहले कोई पुख़्ता इंतज़ाम कर लेना है। आजकल संतानों पर कोई काम छोड़ जाना बुद्धिमानी नहीं है। दुनिया से पीठ फिरने के बाद संतानों का रवैया आपकी तरफ क्या हो इसका कोई भरोसा नहीं। इसलिए जो कुछ करना है,आँख मुंदने से पहले कर गुज़रना चाहिए।
पहले सोचा था कि कुछ लोगों को आगे करके और पीछे से पैसा देकर शहर के किसी चौराहे पर अपनी मूर्ति लगवा दूँ। लेकिन पूरे देश में मूर्तियों की जो दुर्दशा देखी उसने मुझे दुखी कर दिया। इस महान देश में बड़े बड़े नेताओं और वीरों की मूर्तियों के मस्तक अन्ततः कबूतरों और कौवों के शौचालय बन कर रह जाते हैं। इधर जो मूर्तियों का मुँह काला करने और उनका सर तोड़ने की प्रवृत्तियां उभरी हैं उनसे भी मेरे मंसूबों को धक्का लगा है। अब नयी पीढ़ियाँ जानती भी नहीं कि जिस मूर्ति के चरणों में बैठकर वे चाट और आइसक्रीम खा रहे हैं उसका आदमी के रूप में कृतित्व क्या था।
एक योजना यह थी कि अपने नाम से कोई सड़क, अस्पताल या शिक्षा-संस्थान बनवा दूँ। फिर देखा कि दादाभाई नौरोजी रोड डी.एन.रोड,तात्या टोपे नगर टी.टी.नगर, महारानी लक्ष्मीबाई स्कूल एम. एल.बी. और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जे.एन.वी.वी. होकर रह गया। अभी मेरे शहर में सड़क के किनारे के अतिक्रमण हटाये गये तो कुछ घरों के भीतर से मील के पत्थर प्रकट हुए। (ये हमारे शहर के अतिक्रमण के मील के पत्थर थे। ) मेरे नाम की सड़क के पत्थर का भी यही हश्र हो सकता है।
एक विचार यह था कि जिस तरह बिड़ला जी ने कई जगह मन्दिर बनवाकर अपना नाम अमर कर लिया, उसी तर्ज़ पर मैं भी दस बीस मन्दिर बनवा डालूँ। लेकिन जब से धार्मिक स्थल राजनीति के अड्डे बनने लगे और साधु-सन्त बाकायदा पॉलिटिक्स करने लगे,तब से उस दिशा में जाने में भी जी घबराता है।
एक सुझाव यह आया है कि मैं ताजमहल की तर्ज़ पर एक आलीशान इमारत बनवा डालूँ ,जिसे देखने दुनिया भर के लोग आयें और मेरा नाम सदियों तक बना रहे। लेकिन शाहजहाँ की और मेरी स्थिति में कुछ मूलभूत अन्तर है। अव्वल तो शाहजहाँ को ताजमहल पर अपनी जेब की पूँजी नहीं लगानी पड़ी थी। दूसरे, उन्हें कोई लेबर पेमेंट नहीं करना पड़ा था। तीसरे, शाहजहाँ की सन्तानें भली थीं जो उन्होंने उन्हें मृत्यु के बाद ताजमहल में सोने की जगह दी। मुझे शक है कि मेरी आँखें बन्द होने के बाद मेरी सन्तानें मुझे अपने सुपरिचित रानीताल श्मशानगृह की तरफ रुखसत कर देंगी और मेरे ताजमहल को ‘रौनकलाल एण्ड कंपनी’ को पच्चीस पचास हज़ार रुपये महीने पर किराये पर दे देंगी।
प्रसंगवश बता दूँ कि समाधियों पर भी मेरा विश्वास नहीं है। एक तो श्मशान में थोड़ी सी जगह, उस पर समाधियों का धक्कमधक्का। साढ़े पांच फुट बाई दो फुट का जो आदमी श्मशान में ख़ाक होकर विलीन हो जाता है उसकी स्मृति में स्थायी रूप से आठ फुट बाई आठ फुट की जगह घेर ली जाती है। बड़े बड़े सन्तों के चेले भी यही कर रहे हैं। लेकिन हालत यह होती है कि समाधियों पर या तो कुत्ते विश्राम करते हैं या श्मशान के कर्मचारी उन पर कपड़े सुखाते और दीगर निस्तार करते हैं। अमरत्व का यह तरीका भी अन्ततः निराशाजनक सिद्ध होता है।
मेरे एक शुभचिन्तक ने मुझे सलाह दी है कि मैं अपने नाम से एक विशाल शौचालय बनवा दूँ। इससे सड़कों की पटरियों का दुरुपयोग रुकेगा और प्रातःकाल सैकड़ों लोग कम से कम दस पन्द्रह मिनट तक मेरे नाम का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करेंगे। मैं इस प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रहा हूँ, यद्यपि मुझे कभी कभी शक होता है कि मेरा मित्र मेरे साथ मसखरी तो नहीं कर रहा है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
मजेदार व्यंग