श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 7 ☆
☆ मिट्टी – जमीन ☆
आदमी मिट्टी के घर में रहता था, खेती करता था। अनाज खुद उगाता, शाक-भाजी उगाता, पेड़-पौधे लगाता। कुआँ खोदता, कुएँ की गाद खुद निकालता। गाय-बैल पालता, हल जोता करता, बैल को अपने बच्चों-सा प्यार देता। घास काटकर लाता, गाय को खिलाता, गाय का दूध खुद निकालता, गाय को माँ-सा मान देता। माटी की खूबियाँ समझता, माटी से अपना घर खुद बनाता-बाँधता। सूरज उगने से लेकर सूरज डूबने तक प्रकृति के अनुरूप आदमी की चर्या चलती।
आदमी प्रकृति से जुड़ा था। सृष्टि के हर जीव की तरह अपना हर क्रिया-कलाप खुद करता। उसके रोम-रोम में प्रकृति अंतर्निहित थी। वह फूल, खुशबू, काँटे, पत्ते, चूहे, बिच्छू, साँप, गर्मी, सर्दी, बारिश सबसे परिचित था, सबसे सीधे रू-ब-रू होता । प्राणियों के सह अस्तित्व का उसे भान था। साथ ही वह साहसी था, ज़रूरत पड़ने पर हिंसक प्राणियों से दो-दो हाथ भी करता।
उसने उस जमाने में अंकुर का उगना, धरती से बाहर आना देखा था और स्त्रियों का जापा, गर्भस्थ शिशु का जन्म उसी प्राकृतिक सहजता से होता था।
आदमी ने चरण उटाए। वह फ्लैटों में रहने लगा। फ्लैट यानी न ज़मीन पर रहा न आसमान का हो सका।
अब अधिकांश आदमियों की बड़ी आबादी एक बीज भी उगाना नहीं जानती। प्रसव अस्पतालों के हवाले है। ज्यादातर आबादी ने सूरज उगने के विहंगम दृश्य से खुद को वंचित कर लिया है। बूढ़ी गाय और जवान बैल बूचड़खाने के रॉ मटेरियल हो चले, माटी एलर्जी का सबसे बड़ा कारण घोषित हो चुकी।
अपना घर खुद बनाना-थापना तो अकल्पनीय, एक कील टांगने के लिए भी कथित विशेषज्ञ बुलाये जाने लगे हैं। अपने इनर सोर्स को भूलकर आदमी आउटसोर्स का ज़रिया बन गया है। शरीर का पसीना बहाना पिछड़ेपन की निशानी बन चुका। एअर कंडिशंड आदमी नेचर की कंडिशनिंग करने लगा है।
श्रम को शर्म ने विस्थापित कर दिया है। कुछ घंटे यंत्रवत चाकरी से शुरू करनेवाला आदमी शनैः-शनैः यंत्र की ही चाकरी करने लगा है।
आदमी डरपोक हो चला है। अब वह तिलचट्टे से भी डरता है। मेंढ़क देखकर उसकी चीख निकल आती है। आदमी से आतंकित चूहा यहाँ-वहाँ जितना बेतहाशा भागता है, उससे अधिक चूहे से घबराया भयभीत आदमी उछलकूद करता है। साँप का दिख जाना अब आदमी के जीवन की सबसे खतरनाक दुर्घटना है।
लम्बा होना, ऊँचा होना नहीं होता। यात्रा आकाश की ओर है, केवल इस आधार पर उर्ध्वगामी नहीं कही जा सकती। त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है। आदमी ऊपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा, अपने इस प्रश्न पर खुद हँसी आ रही है। आकाश का आकर्षण मिथक हो सकता है पर गुरुत्वाकर्षण तो इत्त्थमभूत है। सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है।
© संजय भारद्वाज , पुणे
सच्चाई से अवगत कराने के लिये धन्यवाद। आपकी स्पष्टोक्ती समय के साथ जरूरी है।
धन्यवाद लतिका जी।
बचपन से जो किया या जो देखा उसका आईना दिखाती रचना ,पढ़ने के बाद ख्यालों में खोया हूँ ,काश वह दिन फिर आएं
धन्यवाद सुशील जी।
सेब हो, पत्ता, नारियल या तारा, टूटकर गिरना तो ज़मीन पर ही पड़ता है…….. सत्य वचन
धन्यवाद सुधा जी।
यह वास्तव है कि अब मानव मिट्टी से बहुत दूरतक चला गया है. गाँव के पढे़-लिखे नौजवान माँ-बाप को वहाँ रखकर नौकरी की तलाश में शहर में आ रहे हैं. मिट्टी के साथ जन्म से रहा रिश्ता शायद साल में एक बार दिखाई देता है.
धन्यवाद रविकिरण जी।
अभी इन्सान जड़ो से जुड़ा रहने के बजाय उँची शाखसे आसमान पे उड़ान भरना चाहता हैं ये तो सोचता ही नही कि ज़डो से नाता टूटा तो पेड़ ही नही रहेगा।
‘त्रिशंकु आदमी आसमान को उम्मीद से ताक रहा है।
आदमी उपर उठेगा या औंधे मुँह गिरेगा ‘ ?
अगर यह सवाल उसके मन में आए तो शायद कुछ बात बने।
बहुत बोधपर लेख
विजया टेकसिंगानी
आपकी नियमित टिप्पणियों के लिए हृदय से धन्यवाद।
समाज का आइना दिखाती एक रचना।सत्य कथन।
धन्यवाद यादव जी।
आपके विचार सदैव पठनीय होते हैं, माँ शारदा का वरदहस्त आप पर बना रहे, यही मंगलकामना करता हूँ।
धन्यवाद गौतम जी।
धन्यवाद लतिका जी।
धन्यवाद सुशील जी।
मानव प्रकृति से दूर हो कर एकाकी हो रहा है, सही है माटी एलर्जी का कारण बन गयीं हैं, माटी की सोधी महक से बचपन परिचित ही नहीं है
धन्यवाद देवराज जी।