डॉ कुन्दन सिंह परिहार
(आपसे यह साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर समसामयिक विषय पर व्यंग्य ‘सेतु का निर्माण फिर फि’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से हाल ही में टूटे हुए पुलों के निर्माण के लिए जिम्मेवार भ्रष्ट लोगों पर तीक्ष्ण प्रहार किया है साथ ही एक आम ईमानदारआदमी की मनोदशा का सार्थक चित्रण भी किया है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – सेतु का निर्माण फिर फिर ☆
आठ साल में दो सौ साठ करोड़ की लागत से बना पुल उद्घाटन के उन्तीसवें दिन काल-कवलित हो गया. एक दो दिन हल्ला-गुल्ला मचा, फिर सब अपने अपने काम में लग गये. कारण? सबको पता है कि आजकल पुल गिरने के लिए ही बनते हैं. कोई लाल किला थोड़इ है जो चार सौ साल तक खड़ा रहे, या कुतुबमीनार जो सात सौ साल तक हमें मुँह चिढ़ाती रहे. अंग्रेजों के ज़माने के भी कई पुल सैकड़ों साल से बेशर्मी से खड़े हैं. हमारा पुल एक महीना चल गया, यह क्या कम फ़ख्र की बात है? कोई जन-हानि तो नहीं हुई न? इसके पहले भागलपुर का पुल तो उद्घाटन से पहले ही दम तोड़ गया था. पुराने ज़माने की टेक्नोलॉजी पिछड़ी थी, हमारी टेक्नोलॉजी एडवांस्ड है. इसीलिए ये उपलब्धियाँ हैं. लोग कहते हैं कि पुराने ज़माने में भी भ्रष्टाचार था, तो ये पुरानी इमारतें गिरती क्यों नहीं हैं भाई? हमारे कर-कमलों से निर्मित पुल ही क्यों छुई-मुई बने हुए हैं?
पुल का मुआयना करने के लिए मंत्री जी आये हैं. पेशानी पर शिकन नहीं, उन्नत माथा, तना हुआ वक्ष. उन्हें देखकर वहाँ इकट्ठी भीड़ में से कुछ शिकायत की आवाज़ें उठती हैं. मंत्री जी एक मिनट सुनते हैं, फिर हाथ ऊपर उठाते हैं. उधर सन्नाटा हो जाता है. मंत्री जी किंचित क्रोध से कहते हैं, ‘कौन अफवाह उड़ाता है कि पुल टूट गया है? वो सामने पूरा पुल खड़ा है कि नहीं? अलबत्ता ‘अप्रोच रोड’ टूट गया है तो क्या कीजिएगा? जब हजारों क्यूसेक पानी आएगा तो रोड कैसे टिकेगा? पुल और अप्रोच रोड एक ही होता है क्या?’
आगे कहते हैं, ‘रोड टूटने से हम भी दुखी हैं, लेकिन प्राकृतिक विपदा को तो झेलना ही पड़ेगा न. ये पुल बनाने वाली कंपनी के इंजीनियर खड़े हैं. बेचारे कितने दुखी हैं. कंपनी की रेपुटेशन का सवाल है. ब्लैकलिस्ट होने का डर है.
लेकिन जो लोग कहते हैं कि ढाई सौ करोड़ पानी में चला गया वे झूठे हैं. अरे भई, आठ साल काम चला तो पैसा मज़दूर को मिला, ठेकेदार इंजीनियर को मिला, ईंट पत्थर सीमेंट लोहा सप्लाई करने वालों को मिला. पानी में कैसे गया?थोड़ा सा गड़बड़ हो गया तो सुधार दिया जाएगा. जब आठ साल पुल के बिना काम चल गया तो महीना दो महीना में कौन सी मुसीबत टूटने वाली है?’
थोड़ा रुककर मंत्री जी कहते हैं, ‘आप लोग थोड़ा समझिए. सौ साल पुराने जमाने में मत रहिए. यह ‘यूज़ एंड थ्रो’ का जमाना है. पुरानी चीज को खतम कीजिए, नयी बनाइए. एक ही चीज से मत चिपके रहिए. तभी तरक्की होगा. पुल टूट गया तो टूट जाने दीजिए. हम दूसरा पुल बनाएंगे. और लोगों को रोजगार मिलेगा, और चीजें बिकेंगी. यही विकास का रास्ता है. किसी के बहकावे में मत आइए. ‘
मंत्री जी अन्त में कहते हैं, ‘मैंने कॉलेज के दिनों में एक कविता पढ़ी थी ‘नीड़ का निर्माण फिर फिर’. उसकी एक पंक्ति है ‘नाश के दुख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख’. इसलिए हम अपने दुख के बावजूद निर्माण के मिशन से पीछे नहीं हटेंगे. आप अपना हौसला और हममें भरोसा बनाये रहिए. जय हिन्द. भारत माता की जय. ‘
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश