डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रतिशोध नहीं परिवर्तन। इस गंभीर विमर्श को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 61 ☆
☆ प्रतिशोध नहीं परिवर्तन ☆
‘ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे, जो प्रतिशोध के बजाय परिवर्तन की सोच रखते हैं।’ प्रतिशोध उन्नति के पथ में अवरोधक का कार्य करता है तथा मानसिक उद्वेलन व क्रोध को बढ़ाता है; मन की शांति को मगर की भांति लील जाता है… ऐसे व्यक्ति को कहीं भी कल अथवा चैन नहीं पड़ती। उसका सारा ध्यान विरोधी पक्ष की गतिविधियों पर ही केंद्रित नहीं होता, वह उसे नीचा दिखाने के अवसर की तलाश में रहता है। उसका मन अनावश्यक उधेड़बुन में उलझा रहता है, क्योंकि उसे अपने दोष व अवगुण नज़र नहीं आते और अन्य सब उसे दोषों व बुराइयों की खान नज़र आते हैं। फलत: उसके लिए उन्नति के सभी द्वार बंद हो जाते हैं। उन विषम परिस्थितियों में अनायास सिर उठाए कुकुरमुत्ते हर दिन सिर उठाए उसे प्रतिद्वंद्वी के रूप में नज़र आते हैं और हर इंसान उसे उपहास अथवा व्यंग्य करता-सा दिखाई पड़ता है।
ऊंचा उठने के लिए पंखों की ज़रूरत पक्षियों को पड़ती है। परंतु मानव जितना विनम्रता से झुकता है; उतना ही ऊपर उठता है। सो! विनम्र व्यक्ति सदैव झुकता है; फूल-फल लगे वृक्षों की डालिओं की तरह… और वह सदैव ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर के भाव से मुक्त रहता है। उसे सब मित्र-सम लगते हैं और वह दूसरों में दोष-दर्शन न कर, आत्मावलोकन करता है… अपने दोष व अवगुणों का चिंतन कर, वह खुद को बदलने में प्रयासरत रहता है। प्रतिशोध की बजाय परिवर्तन की सोच रखने वाला व्यक्ति सदैव उन्नति के अंतिम शिखर पर पहुंचता है। परंतु इसके लिए आवश्यकता है– अपनी सोच व रुचि बदलने की; नकारात्मकता से मुक्ति पाने की; स्नेह, प्रेम व सौहार्द के दैवीय गुणों को जीवन में धारण करने की; प्राणी-मात्र के हित की कामना करने की; अहं को कोटि शत्रुओं-सम त्यागने की; विनम्रता को जीवन में धारण करने की; संग्रह की प्रवृत्ति को त्याग परार्थ व परोपकार को अपनाने की; सब के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति भाव जाग्रत करने की… यदि मानव उपरोक्त दुष्प्रवृत्तियों को त्याग, सात्विक वृत्तियों को जीवन में धारण कर लेता है, तो संसार की कोई शक्ति उसे पथ-विचलित व परास्त नहीं कर सकती।
इंसान, इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि उम्मीदें धोखा देती हैं; जो वह दूसरों से करता है। इससे संदेश मिलता है कि हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि इंसान ही नहीं, हमारी अपेक्षाएं व उम्मीदें ही हमें धोखा देती हैं, जो इंसान दूसरों से करता है। वैसे यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि ‘पैसा उधार दीजिए; आपका पक्का दोस्त भी आपका कट्टर निंदक अर्थात् दुश्मन बन जाएगा।’ सो! पैसा उधार देने के पश्चात् भूल जाइए, क्योंकि वह लौट कर कभी नहीं आएगा। यदि आप वापसी की उम्मीद रखते हैं, तो यह आपकी ग़लती ही नहीं, मूर्खता है। जिस प्रकार दुनिया से जाने वाले लौट कर नहीं आते, वही स्थिति ऋण के रूप में दिये गये धन की है। यदि वह लौट कर आता भी है, तो आपका वह सबसे प्रिय मित्र भी शत्रु के रूप में सीना ताने खड़ा दिखाई पड़ता है। सो! प्रतिशोध की भावना को त्याग, अपनी सोच व विचारों को बदलिए– जैसे एक हाथ से दिए गए दान की खबर, दूसरे हाथ को भी नहीं लगनी चाहिए; उसी प्रकार उधार देने के पश्चात् उसे भुला देने में ही आप सबका मंगल है। सो! जो इंसान अपने हित के बारे में ही नहीं सोचता, वह दूसरों के लिए क्या ख़ाक सोचेगा?
समय परिवर्तनशील है और प्रकृति भी पल-पल रंग बदलती है। मौसम भी यथा-समय बदलते रहते हैं। सो! मानव को श्रेष्ठ संबंधों को कायम रखने के लिए, स्वयं को बदलना होगा। जैसे अगली सांस लेने के लिए, मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक संग्रह करना भी मानव के लिए कष्टकारी होता है। सो! अपनी ‘इच्छाओं पर अंकुश लगाइए और तनाव को दूर भगाइए… दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि वह तनाव का कारण होती हैं।’ महात्मा बुद्ध की यह उक्ति ‘आवश्यकता से अधिक सोचना, संचय करना व सेवन करना– दु:ख और अप्रसन्नता का कारण है… जो हमें सोचने पर विवश करता है कि मानव को व्यर्थ के चिंतन से दूर रहना चाहिए; परंतु यह तभी संभव है, जब वह आत्मचिंतन करता है; दुनियादारी व दोस्तों की भीड़ से दूरी बनाकर रखता है।
वास्तव में दूसरों से अपेक्षा करना हमें अंधकूप में धकेल देता है, जिससे मानव चाह कर भी बाहर निकल नहीं पाता। वह आजीवन ‘तेरी-मेरी’ में उलझा रहता है तथा ‘लोग क्या कहेंगे’… यह सोचकर अपने हंसते-खेलते जीवन को अग्नि में झोंक देता है। यदि इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो क्रोध बढ़ता है और पूरी होती हैं तो लोभ। इसलिए उसे हर स्थिति में धैर्य बनाए रखना अपेक्षित है। ‘इच्छाओं को हृदय में मत अंकुरित होने दें, अन्यथा आपके जीवन की खुशियों को ग्रहण लग जाएगा और आप क्रोध व लोभ के भंवर से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे। कठिनाई की स्थिति में केवल आत्मविश्वास ही आपका साथ देता है, इसलिए सदैव उसका दामन थामे रखिए। ‘तुलना के खेल में स्वयं को मत झोंकिए, क्योंकि जहां इसकी शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद समाप्त हो जाता है… कोसों दूर चला जाता है।’ इसलिए जो मिला है, उससे संतोष कीजिए। स्पर्द्धा भाव रखिए, ईर्ष्या भाव नहीं। खुद को बदलिए, क्योंकि जिसने संसार को बदलने की कोशिश की, वह हार गया और जिसने खुद को बदल लिया, वह जीत गया। दूसरों से उम्मीद रखने के भाव का त्याग करना ही श्रेयस्कर है। सो! उस राह को त्याग दीजिए, जो कांटों से भरी है, क्योंकि दुनिया भर के कांटों को चुनना व दु:खों को मिटाना संभव नहीं। इसलिए उस विचार को समूल नष्ट करने में सबका कल्याण है। इसके साथ ही बीती बातों को भुला देना कारग़र है, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए वर्तमान में जीना सीखिए। अतीत अनुभव है, उससे शिक्षा लीजिए तथा उन ग़लतियों को वर्तमान में मत दोहराइए, अन्यथा आपके भविष्य का अंधकारमय होना निश्चित है।
वैसे तो आजकल लोग अपने सिवाय किसी के बारे में सोचते ही नहीं, क्योंकि वे अपने अहं में इस क़दर मदमस्त रहते हैं कि उन्हें दूसरों का अस्तित्व नगण्य प्रतीत होती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘यदि आप किसी से सच्चे संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो आप उसके बारे में जो जानते हैं; उस पर विश्वास रखें … न कि जो उसके बारे में सुना है’… यह कथन कोटिश: सत्य है। आंखों-देखी पर सदैव विश्वास करें, कानों-सुनी पर नहीं, क्योंकि लोगों का काम तो होता है कहना… आलोचना करना; संबंधों में कटुता उत्पन्न करने के लिए इल्ज़ाम लगाना; भला-बुरा कहना; अकारण दोषारोपण करना। इसलिए मानव को व्यर्थ की बातों में समय नष्ट न करने तथा बाह्य आकर्षणों व ऐसे लोगों से सचेत रहने की सीख दी गयी है क्योंकि ‘बाहर रिश्तों का मेला है/ भीतर हर शख्स अकेला है/ यही ज़िंदगी का झमेला है।’ इसलिए ज़रा संभल कर चलें, क्योंकि तारीफ़ के पुल के नीचे सदैव मतलब की नदी बहती है अर्थात् यह दुनिया पल-पल गिरगिट की भांति रंग बदलती है। लोग आपके सामने तो प्रशंसा के पुल बांधते हैं, परंतु पीछे से फब्तियां कसते हैं; भरपूर निंदा करते हैं और पीठ में छुरा घोंपने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते।
‘इसलिए सच्चे दोस्तों को ढूंढना/ बहुत मुश्किल होता है/ छोड़ना और भी मुश्किल/ और भूल जाना नामुमक़िन।’ सो! मित्रों के प्रति शंका भाव कभी मत रखिए, क्योंकि वे सदैव तुम्हारा हित चाहते हैं। आपको गिरता हुआ देख, आगे बढ़ कर थाम लेते हैं। वास्तव में सच्चा दोस्त वही है, जिससे बात करने में खुशी दोगुनी व दु:ख आधा हो जाए…केवल वो ही अपना है, शेष तो बस दुनिया है अर्थात् दोस्तों पर शक़ करने से बेहतर है… ‘वक्त पर छोड़ दीजिए/ कुछ उलझनों के हल/ बेशक जवाब देर से मिलेंगे/ मगर लाजवाब मिलेंगे।’ समय अपनी गति से चलता है और समय के साथ मुखौटों के पीछे छिपे, लोगों का असली चेहरा उजागर अवश्य हो जाता है। सो! यह कथन कोटिश: सत्य है कि ख़ुदा की अदालत में देर है, अंधेर नहीं। अपने विश्वास को डगमगाने मत दें और निराशा का दामन कभी मत थामें। इसलिए ‘यदि सपने सच न हों/ तो रास्ते बदलो/ मुक़ाम नहीं/ पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं/ जड़ नहीं।’ सो! लोगों की बातों पर विश्वास न करें, क्योंकि आजकल लोग समझते कम और समझाते ज़्यादा हैं। तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते ज़यादा हैं। दुनिया में कोई भी दूसरे को उन्नति करते देख प्रसन्न नहीं होता। सो! वे उस सीढ़ी को खींचने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं तथा उसे सही राह दर्शाने की मंगल कामना नहीं करते।
इसलिए मानव को अहंनिष्ठ व स्वार्थी लोगों से सचेत व सावधान रहने का संदेश देते हुए कहा गया है, कि घमण्ड मत कर/ ऐ!दोस्त/ सुना ही होगा/ अंगारे राख ही बनते हैं’…जीवन को समझने से पहले मन को समझना आवश्यक है, क्योंकि जीवन और कुछ नहीं, हमारी सोच का साकार रूप है…’जैसी सोच, वैसी क़ायनात और वैसा ही जीवन।’ सो! मानव को प्रतिशोध के भाव को जीवन में दस्तक देने की कभी भी अनुमति नहीं प्रदान करनी चाहिए, क्योंकि आत्म-परिवर्तन को अपनाना श्रेयस्कर है। सो! मानव को अपनी सोच, अपना व्यवहार, अपना दृष्टिकोण, अपना नज़रिया बदलना चाहिए, क्योंकि नज़र का इलाज तो दुनिया में है, नज़रिये का नहीं। ‘नज़र बदलो, नज़ारे बदल जाएंगे। नज़रिया बदलो/ दुनिया के लोग ही नहीं/ वक्त के धारे भी बदल जाएंगे।’
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈