श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “नाले पर ताला”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 34 – नाले पर ताला ☆
बरसाती उफान आते ही नालों की पूछ परख बढ़ जाती है। तेज बारिश में सड़कें अपना अस्तित्व मिटा नाले में समाहित होकर, नाले के पानी को घर तक पहुँचा देतीं हैं। सच कहूँ तो अच्छी बारिश होने का मतलब है, शहर का जलमग्न होना। जितना बड़ा शहर उतनी ही बड़ी उसके जलमग्न होने की खबर।
पहली बारिश में ही जन जीवन अस्त- व्यस्त हो, नगर निगम द्वारा किये गए; सफाई के कार्यों की पोल खोल कर रख देता है। सड़क पर चल रहे वाहन वहीं थम जाते हैं। और तो और सड़कों पर नाव चलने की खबरें भी टीवी पर दिखाई जाती है। इतने खर्चे से नालों का निर्माण होता है। सफाई होती है, शहर का विकास व सारे घर नगर निगम की अनुमति से ही बनते हैं, फिर भी जल निकासी की सुचारू व्यवस्था नहीं दिखती।
कारण साफ है कि सबको अपनी – अपनी जेब भरने से फुर्सत मिले तब तो सारे कार्यों को करें। नालों की चौड़ाई अतिक्रमण का शिकार हो रही है,और गहराई कचरे का। बहुत से लोग इसे डस्टबीन की तरह प्रयोग कर सारा कचरा इसमें ही फेंकते हैं।
जब हल्ला मचता है, तो नेता जी सहित नगर निगम के कर्मचारी आकर सर्वे करते हैं, और मुआवजा देने की बात कह कर आगे बढ़ जाते हैं। आनन- फानन में सभी लोग अपने नुकसान की पूर्ति हेतु, आधार कार्ड व बैंक पासबुक की फ़ोटो कापी जमा कर देते हैं।
वर्ष में तीन- चार बार तो बाढ़ पीड़ितों की चर्चा; अखबारों की सुर्खियाँ बनतीं हैं। सचित्र,लोगों के दुख दर्द, का व्योरा प्रकाशित होता है। नालों पर बनें हुए घर, दुकान व अन्य अतिक्रमण की भी फोटो छपती है। लोगों को जमीन की इतनी भूख होती है, कि वे जल निकासी कैसे होगी इसका भी ध्यान नहीं देते। जहाँ जी चाहा वैसा बदलाव अपने आशियानें में कर देते हैं। नाला तो मानो सबकी बपौती है, इस पर कोई दुकान, कोई अपनी बाउंडरी बाल या कुछ नहीं तो सब्जियाँ ही उगाने लगता है। ऐसा लगता है, कि सारे कार्य इसी जमीन पर होने हैं।
सारे लोग जागते ही तभी हैं, जब आपदा सिर पर सवार हो जाती है, कुछ दिन रोना- धोना करके, पुनः अपने ढर्रे पा आ जाते हैं।
खैर डूबने – उतराने का खेल तो इसी तरह चलता ही रहेगा, आखिरकार यही तो सबसे बड़ा गवाह बनता है, कि इस शहर में, प्रदेश में, सूखा नहीं रहा है। जम कर बारिश हुई है, जिससे फसल भरपूर होगी। और हर किसान मुस्कायेगा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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