डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक व्यंग्य ‘कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ’। डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से वर्तमान समय में यह सिद्ध कर दिया कि कोरोना काल में रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। इस सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – कोरोना-काल में मत उठइयो, प्रभु ☆
कोरोना-काल में मरना भी आसान नहीं रहा। हालत यह हो गयी है कि कोई किसी भी रोग से मरे, कोरोना के शक का कीड़ा दिमाग़ में कुलबुलाने लगता है। लोगों को भरोसा ही नहीं होता कि कोई किसी दूसरे रोग से भी मर सकता है। अब फसली बुख़ार से कोई नहीं मरता,सब को कोरोना के खाते में डाला जाता है। नाते-रिश्तेदार पास फटकने के लिए तैयार नहीं होते। सोचते हैं, ‘इन्हें अभी मरना था। कोरोना खतम होने तक रुक नहीं सकते थे?अब कैसे पता चले कि इनकी मौत में कोरोना का योगदान था या नहीं।’
कोरोना-काल में मृतक को उठाने के लिए चार आदमियों का इन्तज़ाम भी मुश्किल हो रहा है। परिवार में माताएं पुत्र को शव के पास जाने से बरजती हैं और पत्नियाँ पति को। सबको अपनी अपनी जान की पड़ी है। मध्यप्रदेश के एक कस्बे में तहसीलदार साहब को ही शव को अग्नि देनी पड़ी क्योंकि मृतक की पत्नी ने पुत्र को शव के पास जाने से रोक दिया। कोरोना सब रिश्तों को छिन्न भिन्न कर रहा है। रिश्तों का मुलम्मा उतर रहा है। जिन लोगों ने पुत्र के हाथों दाह-संस्कार के लोभ में पुत्र पैदा किये वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी सद्गति पुत्र के हाथों होगी या नगर निगम के किसी कर्मचारी के हाथों। सब तरफ अफरातफरी का आलम है। अब रिश्तेदारों के बजाय लोग उनकी तरफ देख रहे हैं जो कुछ पैसे लेकर, अपनी जान को दाँव पर लगाकर, मृतक को स्वर्ग या नरक की तरफ ढकेल सकते हैं। यह अच्छा है कि हमारे देश में पैसे वालों का कोई काम रुकता नहीं,अन्यथा बड़ी समस्या खड़ी हो जाती।
दो दिन पहले नन्दू के दादाजी का इन्तकाल हो गया। दोस्त महिपाल को फोन लगाया। कहा कि आ जाए तो कुछ राहत मिलेगी। थोड़ी बात हुई कि फोन उसके डैडी ने झपट लिया।
‘हाँ जी, बोलो बेटा।’
‘अंकल, दादाजी की डेथ हो गयी है। महिपाल आ जाता तो कुछ मदद मिल जाती।’
‘ओहो, बुरा हुआ। क्या हुआ था उनको?’
‘कुछ नहीं। दो तीन दिन से थोड़ा बुखार था। अचानक ही हो गया।’
‘कोरोना टैस्ट कराया था?’
‘नहीं अंकल, कुछ ज़रूरी नहीं लगा।’
‘कराना था बेटा। चलो, कोई बात नहीं। ऐसा है कि महिपाल के घुटने में कल से दर्द है। थोड़ा ठीक हो जाएगा तो आ जाएगा। अभी तो मुश्किल है।’
सबेरे कुछ मित्र-रिश्तेदार झिझकते हुए आते हैं। कुर्सी खींचकर नाक पर ढक्कन लगाये दूर बैठ जाते हैं। बार बार सवाल आता है, ‘टैस्ट कराया क्या? करा लेते तो अच्छा रहता। शंका हो जाती है।’
दादाजी के काम में हाथ लगाने के लिए कोई आगे नहीं आता। उन्हें वाहन में रखते ही आधे लोग फूट लेते हैं। बीस से ज़्यादा लोगों के शामिल न होने के नियम का बहाना है। जो बचते हैं वे वाहन में बैठने को तैयार नहीं होते। कहते हैं, ‘आप लोग चलिए। हम अपने वाहन से आते हैं।’
प्रभुजी, हम पचहत्तर पार वाले हैं और इस नाते संसार से रुख़्सत होने के लिए पूरी तरह ‘क्वालिफाइड’ हैं, लेकिन हालात देखकर आपसे गुज़ारिश है कि हमारी रुख़्सती को कोरोना-काल तक मुल्तवी रखा जाए। हमें फजीहत से बचाने के लिए यह ज़रूरी है।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈