श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचरणीय लघुकथा – “नदिया ऊपर नाव…”।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 1 ☆

✍ लघुकथा – नदिया ऊपर नाव… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह 

मैं बाज़ार में सब्जी खरीद रहा था तभी एक व्यक्ति ने नमस्कार किया। मैंने देखा कि शिवा था। शिवा ने एक मजदूर सुपरवाइजर के रूप में मेरा बंगला बनाया था। बड़ा अच्छा कारीगर था। उसका व्यवहार भी अच्छा था। मकान बनने के बाद जब कभी मिलता तो बड़ी इज्जत से नमस्कार करता और कहता साहब कोई काम हो तो बताइएगा। इसलिए मैं उसे भूल नहीं पाया था। लेकिन आज वह कुछ मुरझाया सा दिखा। मैंने पूछा कि क्या बात है मुंह क्यों लटकाए हुए हो। उसने कहा कि साहब अपने ठेकेदार साहब के साथ पंद्रह साल से काम कर रहा था। सब कुछ ठीक चल रहा था परंतु चार दिन पहले उन्होंने काम से निकाल दिया।  मैं नहीं जानता कि इन लोगों की सेवा कैसे सुरक्षित है, कोई पेंशन है या नहीं। प्रोविडेंट फंड तो मिलता है शायद। मेरी तंद्रा टूटी और मैंने महसूस किया कि वह मेरे सामने ही खड़ा है। मैंने उससे कहा कि तुम्हारे साथ तो काफी लोग काम करते थे। उन्हें इकट्ठा करके तुम लेबर कांट्रेक्टिंग कर सकते हो। मुझे लगा कि मेरी बात सुनकर वह कुछ सहज हो गया है। मैंने कहा कि कभी कभार घर आ जाया करो। उसने आश्वासन में हाथ जोड़ दिए और मैं घर की ओर चल दिया। उसके बाद शिवा नहीं मिला और बात आई गई हो गई।

ऐसे ही एक दिन पास के पार्क में शाम की सैर पर निकला था। सामने एक सज्जन ने रास्ता रोका और मेरा हालचाल पूछा। मैंने देखा चौहान साहब थे, नगर के जाने माने ठेकेदार। मैंने खुशी जताते हुए उन्हें धन्यवाद दिया कि उनके बनाए गए मेरे बंगले में आजतक किसी भी बारिश में एक बूँद पानी नहीं आया। उनके चेहरे पर भी मुस्कान उभर आई। और मेरे साथ ही टहलने लगे। बातचीत में बोले साहब अब माहौल बहुत बदल गया है। बोले,”आपको याद होगा मेरा सुवरवाइजर शिवा, जिसने आपके बंगले का काम किया था।” मैंने कहा “हाँ हाँ मुझे याद है। कुछ साल पहले मुझे मिला था, दुखी था, कह रहा था कि आपने उसे काम से निकाल दिया।” वे बोले “निकाला नहीं साहब मजबूरी थी । जब मुझे काम नहीं तो उसे कहाँ से देता।”” मैंने कहा कि वह तो ठीक है पर उसकी बात क्यों निकल आई।” “साहब बात इसलिए निकल आई कि वह आज लेबर कांट्रेक्टर है। मेरे पास एक बड़ा काम आ गया तो मैं उसके पास लेबर मांगने गया तो उसने साफ मना कर दिया। जिसे मैंने काम करना सिखाया वही काम नहीं आया।” यह कहकर वे अपनी गाड़ी की ओर चल दिए। फिर मुझे अचानक याद आया कि कुछ वर्ष पहले शिवा को मैंने क्या सुझाव दिया था।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : पुणे महाराष्ट्र 

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Vikram Patil

Nice sir

Maitreyi Yogesh Page

Bahut acche se paristhithi ko samjhaya kahani k madhyam se …

Prerna verma

Bahut Acha lekh hei