हेमन्त बावनकर

 

(आज 24 अक्तूबर 1921 को मैसूर कर्नाटक में जन्में महान स्वर्गीय आर के लक्ष्मण जी का 98 वाँ जन्मदिन हैं।   उन्हें उनकी कृति ‘आम आदमी’ ‘Common Man’) के कारण सारा विश्व जानता है। अक्सर मेरे मन यह प्रश्न उठता है कि क्या कृतिकार की कृति  की आयु,  कृतिकार की आयु तक ही सीमित रहती है?  और क्या कोई अन्य कृतिकारउस कृति के पदचिन्हों पर आगे नहीं बढ़ सकता ?  आप ही निर्णय करें।  मेरी एक रचना स्व. आर के लक्ष्मण जी एवं उनकी कृति ‘आम आदमी’ के लिए समर्पित।)

☆ ‘कॉमन मेन’ बनाम ‘आम आदमी’ ☆
‘समय’
बड़े-बड़े जख्म
भर देता है।
आज
आर के लक्ष्मण के
‘कॉमन मेन’ का प्रतीक।
सिंबॉयसिस परिसर पुणे में खड़ा
देख रहा है
अवाक।
समय का चलता चक्र।
पुराने होते कार्टूनों में
अपना अस्तित्व।
उस पर
जमती जा रही
समय की धूल।
क्या
दुनिया के अन्य किरदारों की तरह
उसकी नियति भी
सीमित थी
यहीं तक ?
उसके रचियेता के
महाप्रयाण तक ?
नहीं ….. नहीं
वह छटपटाता है
हर रोज़
सूरज की
पहली किरण से आखिरी किरण तक
और
सारी रात घुप्प अंधेरे में भी।
वह होता है आतुर
दर्ज कराने
अपनी उपस्थिती
समसामयिक विषयों में
सामाजिक-राजनीतियक परिदृश्यों में
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्यों में
तत्संबंधित ‘रचनाओं में
कार्टूनों में
कविताओं में
व्यंग्यों में
और सामयिक स्तंभों में भी
हमेशा की तरह
मात्र तटस्थ रहकर
‘कॉमन मेन’ बनाम ‘आम आदमी’
की मानिंद।
कहते हैं कि
‘समय’
बड़े-बड़े जख्म
भर देता है।

© हेमन्त बावनकर, पुणे

(इस कविता में वर्णित ‘कॉमन मेन’ बनाम ‘आम आदमी’ आदरणीय स्वर्गीय आर के लक्ष्मण जी की कृति से संबन्धित मेरे व्यक्तिगत विचार हैं।)

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