डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  की एक समसामयिक कविता  ”ईद के पहले “।  ईद – उल – फितर या मीठी ईद  कहा जाने वाला यह पर्व खासतौर पर भारतीय समाज के ताने-बाने और उसकी भाईचारे की सदियों पुरानी परंपरा का वाहक है।डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी  के इस सार्थक एवं समसामयिक  कविता के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन।  ) 

 ☆ ईद के पहले  ☆

इधर कई सालों से

कटने लगा हूँ

अपने बचपन के दोस्त

आसिफ से

लोगों से बच बचाकर

जाता हूँ उसके घर

मुझे भी

वह अब उतना

अज़ीज़ नहीं लगता

उसकी ज़ालीदार टोपी

मुझे चिढाती -सी लगती है

मुझे उत्तेजना -सी

होने लगती है उससे

फनफना उठता है मन

इन दिनों

उस टोपी से ज़्यादा

उसमें दिखने लगे हैं छेद

वह बडा अफसर है

प्रगतिशील विचारक है

फिर क्यों ज़रूरी समझता है

चिकन के कुर्ते पाजामे पर पहनना

क्रोशिया की टोपी

ईद के दिन

कभी-कभी शुक्रवार को

जींस पर भी

पहन लेता है यह टोपी

और चला जाता है मस्ज़िद

न जाने क्यों

चुभता है मुझे

एक दिन के लिए भी

उसका इस तरह

मुसलमान हो जाना

उसे भी चुभता होगा

अल्हड़ जवानी के दिनों में

हर मंगलवार को

मेरा टीका लगाकर

मंदिर से सीधे उसके घर जाना

यानी हिंदू हो जाना

उन दिनों जिस चाव से

गपक लेता था मेरे लड्डू

अब नहीं खाता

शुगर का बहाना बनाके

दो-तीन बुंदियां भर

छुड़ा लेता है लड्डू से

हमारे भी गले में

अटक जाती हैं

उसके घर की

सुस्वादु सिवइयां

अब तो बस

अपने-अपने दर्द

अपने -अपने भीतर दबाए

बिना रस की

निभा रहे हैं दोस्ती

हम समझ नहीं पा रहे हैं कि

ईद के पहले

हमारा मन क्यों हो रहा है खट्टा

आखिर क्या है उसका रिश्ता

हमारे इस खट्टेपन से

उसे भी तो शायद यह पता नहीं

यह वातावरण

इतना विषाक्त क्यों है कि

होली और ईद पर

मिलते हुए गले वह गर्माहट

नहीं है

हम दोनों की सांसों में

बस छू भर लेते हैं सीने

नहीं तो

गले मिलते हुए

ऐसे छूटती थीं सांसें

जैसे साइकिल में भर रहे हों हवा

और,

भरते ही रहते थे

दोनों दिलों के

टायरों का मेढकों-से फूल जाने तक

हम आने वाली पीढियों तक

कैसे पहुंचा पाएंगे

मिठास

सिंवइयों,गुझियों और लड्डू-पेडों की

जो मरती जा रही है बेतरह

दिनोंदिन

कुछ तो गड़बड़ है जो

हमारे लाख प्रयासों के बावज़ूद कि

बनी रहे दोस्ती

उतनी ही सरस और विश्वसनीय

मरता जा रहा है विश्वास

सूखती जा रही है

हमारे भीतर के

अपनेपन की सरिता.

 

©  डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत, गुजरात

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Shyam Khaparde

बहुत ही सुन्दर मार्मिक, यथार्थ पूर्ण, आजकी वास्तविकता पर आधारित बधाई