डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन । वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध। आज प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी की एक विचारणीय प्रसंग “संकट सब पर है“ एवं कविता ”बेहद उदास रहती है गिलहरी “। डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर ‘ जी के इस सार्थक एवं समसामयिक प्रसंग एवं कविता के लिए उनकी लेखनी को सादर नमन। )
☆ संकट सब पर है ☆
पता नहीं क्यों मैं उन महापुरुषों से सहमत नहीं हो पा रहा हूँ जो इस संकट में बहुत कुछ पॉजिटिव खोज ले रहे हैं। वे इससे बहुत खुश हैं कि कोई सड़क हादसा नहीं हुआ।गंगा निर्मल हो गई। काशी के अस्सी घाट पर कोई अंतिम संस्कार नहीं हुआ। हार्ट अटैक कम हो गए और भी बहुत कुछ। जब कोई घर से ही नहीं निकल पा रहा तो अस्पताल कहाँ से और कैसे पहुँचेगा। ज़िंदा कहीं नहीं निकल पा रहा तो मुर्दा कैसे काशी यात्रा पर जाएगा। गंगा जी तो बिना कोरोना के भी निर्मल हो सकती थीं।
कल एक गाय अपने चिल्लाते हुए बछड़े को छोड़ नहीं पा रही थी। कुछ दूर जाकर लौट-लौट कर आकर बार-बार उसे चाट रही थी। यह दृश्य मैं और मेरी धर्मपत्नी अपनी बोलकनी से देख रहे थे।
मैं तो वहाँ से हट गया पर श्रीमती गायत्री शर्मा जी वहीं डटी रहीं। एक माँ का दर्द माँ ही जान सकती है।
उस गाय का बार-बार आना-जाना वह ऐसे देख रही थी कि बहुत संभव है उसे उसके कदम तक याद हो गए हों।
अंतत: बछड़ा खड़ा हो गया और वे दोनों वहाँ से चले गए। लेकिन हम दोनों बहुत देर तक उदास रहे । कुछ मुखर तो बहुत कुछ मौन भाषा में प्राणि जगत पर छाए संकट पर विमर्श करते रहे।
संकट सिर्फ़ मानव पर ही नहीं सब पर है।
इसी प्रसंग में प्रस्तुत है अपनी एक कविता-
☆ बेहद उदास रहती है गिलहरी ☆
बचपन में
तैरने के लिए
लबालब भरा
एक बड़ा -सा तलाव रहता था
हमारे गाँव में
सीप,घोंघे,केकड़े
सिंघाड़े-सा
मुँह निकाले कछुए
मोतियों की आँखें लिए
लपालप उछलती
मछलियाँ भरी रहती थीं
उस तलाव में
गिलहरियाँ ही गिलहरियाँ
थीं हमारी बगिया में
मोरों के केका
कोयलों की कूक से
आबाद थी बगिया
पेड़ कटे तो
गायब हो गईं गिलहरियाँ
न जाने कहाँ उड़ गए
मोर,कोयलें,सुग्गे,कौए,कठफोरवा,नीलकंठ
और,
न जाने कितनी और भी
नाम- बेनाम चिड़ियाँ
एक गिलहरी का जोड़ा बचा था
पिछवाड़े के अमरूद पर
कच्चे अमरूदों,डालियों और पत्तियों तक से
गाढ़ी दोस्ती थी उनकी
तलाव सूखा
साथ में अमरूद
और एक गिलहरी भी
(पता नहीं
इसी गम में
या गिर कर मरी हो वह)
झर कर गिर गई
सूखे पत्ते की मानिंद
बची हुई भी
बस बची भर है
इन दिनों
अमरूद पर
अनुलोम-विलोम नहीं करती
न ही पिछले पैरों पर खड़ी होकर
जायजा लेती है
मुँह नहीं चलाती
मूँछों पर ताव नहीं देती
बमुश्किल दीवारों पर
थकी-थकी-सी
चढ़ती-उतरती
चारों तरफ़ घुंघची-सी आँखों से
कुछ खोजती हुई
बेहद उदास रहती है गिलहरी।
© डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
सूरत, गुजरात