डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा “हाथी के दांत खाने के और …..”। यह लघुकथा हमें जीवन के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जो हम देख कर भी नहीं देख पाते और स्वयं को कुछ भी करने में असहाय पाते हैं। जब तक हमारे हाथ पांव चल रहे हैं तब तक ही हमारा मूल्य है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम् भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 21 ☆
☆ लघुकथा – हाथी के दांत खाने के और ….. ☆
रात के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। उत्तर भारत में सर्दी के मौसम में शाम से ही ठंड पाँव पसारने लगती है। ऐसा लगने लगता है मानों ठंडक कपड़ों को भेदकर शरीर में घुस रही हो। मुझे नींद आ रही थी, एक झपकी लगी ही थी कि बर्तनों की खटपट सुनाई दी। सब तो सो गए फिर कौन इस समय रसोई में काम कर रहा है ? रजाई से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हो रही थी फिर भी बेमन से मैं रसोई की ओर चल पड़ी। देखा तो सन्न रह गई। काकी काँपते हाथों से बर्तन माँज रही थी। शॉल उतारकर एक किनारे रखा हुआ था। स्वेटर की बाँहें कोहनी तक चढ़ाई हुई थी जिससे पानी से गीली ना हो जाए। दोहरी पीठ वाली काकी बर्तनों के ढ़ेर पर झुकी धीरे–धीरे बर्तन माँज रही थी।
मैं झुंझलाकर बोली – “क्या कर रही हो काकी ? समय देखा है ? रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं रजाई में लेटकर भी कँपकँपी छूट रही है और तुम बर्तन धोने बैठी हो ? छोड़ो बर्तन, सुबह मंज जाएंगे। बीमार पड़ जाओगी तुम।“
काकी से मेरी फोन पर अक्सर बातचीत होती रहती है। उनका हमेशा एक ही डायलॉग होता ‘गुड्डो’! काम से फुरसत नहीं मिलती। घर के काम खत्म ही नहीं होते। काकी की बातें मैं हंसी में टाल देती – “अब बुढ़ापे में कितना काम करोगी काकी ?” और सोचती शायद याददाश्त खराब होने के कारण काकी बातें दोहराती रहती हैं
मैं उनका हाथ पकड़कर जबर्दस्ती उठाना चाह रही थी। काकी मेरा हाथ छुड़ाते हुए बहुत शांत भाव से बोलीं “हम बीमार नहीं पड़तीं गुड्डो। हमारा तो यह रोज का काम है, आदत हो गई है हमें।“ मैंने फिर कहा – “हालत देख रही हो अपनी जरा – सा चलने में थक जाती हो। हाथ की उंगलियाँ देखो गठिए के कारण अकड़ गई हैं। काकी ! तुम जिद्द बहुत करती हो। भाभी भी तुम्हारी शिकायत कर रही थीं। भैया कितना मना करते हैं तुम्हें काम करने को, उनकी बात तो सुनो कम से कम।“
“रहने दे गुड्डो, क्यों जी जला रही है अपना। चार दिन के लिए आती है यहाँ आराम से रह और चली जा, भावुक ना हुआ कर। भैया – भाभी की मीठी बातें तू सुन। हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। तू वह सुनती है जो वो तेरे सामने बोलते हैं। मैं साल भर वो सुनती हूँ जो वे मुझे सुनाना चाहते हैं। बूढ़ी हूँ, कमर झुक गई है तो क्या हुआ ? घर में रहती हूँ, खाना खाती हूँ, चाय पीती हूँ, मुफ्त में मिलेगा क्या ये सब ……………..?”
काकी काँपती आवाज़ में मुझे वह बताना चाह रही थीं जो मैं खुली आंखों से देख नहीं पा रही थी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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घर घर की कहानी है ये।