डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक सामाजिक त्रासदी पर विमर्श करती लघुकथा “देवी नहीं, इंसान है वह। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 36 ☆
☆ लघुकथा – देवी नहीं, इंसान है वह ☆
उसे देवी मत बनाओ, इंसान समझो- आजकल ये पंक्तियां स्त्री के लिए कही जा रही हैं. हाँ खासतौर से भारतीय नारी के लिए जिसे आदर्श नारी के फ्रेम में जडकर दीवार पर टाँग दिया जाता है, उसकी जिंदा मौत किसी को नजर नहीं आती, खुद उसे भी नहीं, क्योंकि ये तो घर – घर की बात है.
उसे भी मायके से विदा होते समय यही समझाया गया था कि पति परमेश्वर होता है, मायके की बातें ससुराल में नहीं कहना और ससुराल में तो जैसे रखा जाए, वैसे रहना. वह भूलती नहीं थी अपने पिता की बात – डोली में जा रही हो ससुराल से अर्थी ही उठनी चाहिए. सुनने में ये बातें साठ के दशक की किसी पुरानी फिल्म के संवाद लगते हैं, पर नहीं, ये उसका जीवन था जिसे उसने जिया. इतनी गहराई से जिया कि अपनी बीमारी में वह सब भूल गई लेकिन यह ना भूली कि पति परमेश्वर होता है. उसे ना अपने खाने – पीने की सुध थी, ना अपनी, बौराई- सी इधर – उधर घूमती बोलती रहती – आपने खाना खाया कि नहीं ? बताओ किसी ने अभी तक इन्हें खाने के लिए नहीं पूछा, हम अभी बना देते हैं. वह सिर पीट रही थी – हे भगवान बहुत पाप लगेगा हमें कि पति से पहले हमने खा लिया. थोडी देर बाद वही बात दोहराती, फिर वही, वही —.
सिलसिला थमता कैसे ? वह अल्जाइमर की रोगी है. इस रोग ने भी उसे ससुराल जाते समय दी गई सीख को भूलने नहीं दिया. शायद वह सीख नहीं, मंत्र होता था जिसे अनजाने ही स्त्रियां जीवन भर जपती रहतीं थीं. धीरे – धीरे उसमें अपना अस्तित्व ही खत्म कर लेती थीं, अपना खाना- पीना, सुख – दुख सब होम . उससे मिलता क्या था उन्हें ? आईए यह भी देख लेते हैं –
वह अब घर की चहारदीवारी में कैद है, कहने को मुक्त, पर उसे कुछ पता नहीं . बूढे पति देव छुटकारा पाने के लिए निकल लेते हैं दोस्तों – यारों से मिलने. उनके आने पर वह कोई शिकायत ना कर कभी उन्हें पुचकारती है, कभी सिर पर हाथ फेरती है, कहती है बहुत थक गए होंगे आओ पैर दबा दूँ, क्या खाओगे ? वे झिडक देते हैं – हटो, जाओ यहाँ से अपना काम करो —
अपना काम??? वह दोहराती है, इधर- उधर जाकर फिर लौटती है उसी प्यार और अपनेपन के साथ, पूछती है – थक गए होगे, पैर दबा दूँ, क्या खाओगे —— फिर झिडकी —————-.
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005
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आज की परिस्थिति को दर्शाती लघुकथा।।J
अभय धन्यवाद
बहुत ही मार्मिक कहानी है । भारतीय मध्यवर्गीय परिवार में जो महिला अपना ‘स्व ‘ परिवार के लिये गँवा दी जाती है, जिस पति पर अपना सर्वस्व लुटा देती है , जीवन भर उसके नाज नख़रों झेलती है वही पुरुष उसकी लंबी बीमारी में उसका साथ नहीं दे पाता , बचता है, दुत्कारता है । वहीं यदि पुरुष किसी एसी बीमारी से ग्यरस्हत हो जाएँ तो स्त्री आख़िरी साँस तक सेवा भाव में कोई कमी नहीं रखती। पुरुषों की संवेदनहीनता की भी इशारा करती है और उपभोक्ता प्रवृत्ति की ओर भी। विचलित करनेवाली कहानी है।
वंदना , स्त्री जीवन का यही कटु सत्य है .
अच्छी रचना
हार्दिक धन्यवाद
औरतों की जीवनी तपस्या की तरह होती हैं। उसे हर चीज़ के लिए लढना पडता हैं। शिकक्षा पुर्ण करने के लिए, नौकरी करने के लिए, ससुराल में हक्के लिए। अफसोस तब होता हैं। हमारे भारत देश में औरतों के हक्के लिए बने कानून न्याय दिलाते समय देर करते हैं।
सादिक आपने अपनी प्रतिक्रिया में सच्चाई बयान की है .