डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी…… । स्त्री जीवन के कटु सत्य को बेहद भावुकता से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को मानवीय रिश्तों और दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 45 ☆
☆ लघुकथा – किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी….. ☆
सौम्या हर बार की तरह इस बार भी गर्मी की छुट्टियों में बच्चों को लेकर मायके चली गयी थी। जैसे-जैसे बच्चे बड़े हो रहे थे मायके से उसकी दूरियां बढ़ती जा रही थीं। कारण वह समझती थी। जिन बातों को वह आज तक नजरअंदाज करने की कोशिश करती थी वे बातें अब खुलकर बच्चों के सामने आने लगी थी। बच्चे नासमझ नहीं रह गए थे और वह भी किन-किन बातों पर पर्दा डालती। उसने भी जैसा चल रहा है चलने दो ,का भाव अपना लिया था।
उस दिन तो सौम्या भी सकते में आ गयी जब भाई ने घर के सामान के लिए दिए पैसों का हिसाब माँगते हुए कहा- सौम्या ! मुझे दो ना पैसों का हिसाब। पापा का इन्तजार क्यों कर रही हो। मैं और पापा एक ही तो हैं। मयंक मासूमियत से बोला- मतलब…..? और मेरी मम्मी ? वो भी तो नाना-नानी की बेटी हैं ?
सौम्या ने बच्चों के सामने बात बढ़ाना उचित नहीं समझा। बच्चों के मन में रिश्तों को लेकर कड़वाहट नहीं घुलनी चाहिए। सच, जब रिश्ते पूरी गरमाहट के साथ रजाई की तरह बच्चों को अपने में लपेट लेते हैं तो बच्चों की दुनिया ही बदल जाती है। और ऐसा ना होने पर अपनों के प्रति ही अविश्वास का भाव………।
सौम्या ने उस समय तो बात टाल दी लेकिन भाई का वाक्य उसे कचोटता रहा। उसे याद आया वह दिन जब शादी के बाद उसने भावुकतावश एक सादे लिफाफे में मुँह दिखाई में मिले रुपए रखकर भाई को भेज दिए थे। भाई के मोह में वह उस दिन यह भी नहीं सोच पाई कि सादे लिफाफे में रखकर रुपए नहीं भेजने चाहिए, मनीआर्डर करना चाहिए था। ऐसा एक लिफाफा तो मिल गया। दूसरा नहीं पहुँचा ,शायद किसी ने रुपए निकाल लिए होंगे। आज वही भाई उसे यह एहसास करा रहा है कि तुम अब इस परिवार से अलग हो। सौम्या ने उस दिन ही यह तय कर लिया था कि वह माता-पिता के लिए ही मायके जाएगी। हाँ इतना जरूर था कि अब वह मायके अकेले जाने लगी थी। पति और बच्चों के सामने मायके में अपमान सहना जरा कठिन होता है।
समय किसी के लिए रुकता नहीं। माँ-पापा की मृत्यु के बाद मायके जाना लगभग खत्म हो गया। जब रिश्तों में तरावट नहीं रही तो दीवारों का मोह क्या करना। धीरे-धीरे घर, शहर सब छूट गया। जब पलटकर देखती तो आश्चर्य होता कि जीवन के इतने साल जिस घर में बिताए वहीँ आज कदम रखना मुश्किल है। उसे फिराक गोरखपुरी का शेर याद आया-
किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी।
ये हुस्नो-इश्क तो धोखा है सब मगर फिर भी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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वास्तविकता का उत्तम वर्णन किया है जी।
आपके लेखन को मेरी शुभकामनाएं।
भरत धन्यवाद