डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  संस्कृति विमर्श  पर आधारित लघुकथा तुम संस्कृति हो ना?  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 47 ☆

☆  लघुकथा – तुम संस्कृति हो ना? ☆

शादी की भीड़-भाड़ में अचानक मेरी नजर उस पर पडी। अरे, ये संस्कृति है क्या? पर वह कैसे हो सकती है? मेरा मन मानने को तैयार ही नहीं हो रहा था। चेहरा तो मिल रहा है लेकिन रहन – सहन? कोई इतना कोई बदल सकता है कि पहचान में ही ना आए? हाँ ये सुना था कि वह विदेश में है और वहीं उसने शादी भी कर ली है। सारी सुनी-सुनाई बातें थी, हम साथ पढे थे और तब से उससे कभी मिलना हुआ ही नहीं। तब फेसबुक होती तो सबके हाल-चाल मिलते रहते पर उस समय कहाँ था ये सब? स्कूल से निकलो तो कुछ सहेलियां तब छूट जाती थीं और कॉलेज के बाद तो कौन कहाँ गया किसकी कहाँ  शादी हुई, कुछ अता-पता ही नहीं रहता था। फिर से ध्यान उसकी ओर  ही चला गया – – –  मन उलझ रहा था।

तब तक उसने मुझे देख लिया, बडी नफासत से मुझसे गले मिली – हाय निशा, बहुत अच्छा लगा यार तुम मिल गईं, कहाँ रहती हो तुम? कितने सालों बाद हम मिल रहे हैं ना ! ना जाने कितनी बातें उसने उस पल बोल दीं और मैं अब भी मानों सकते में थी। उसके पास से परफ्यूम की तेज गंध आ रही थी, चेहरे पर मेकअप की गहरी परत चढ़ी हुई थी जिससे वह अपनी उम्र छुपाने की भरसक कोशिश कर रही थी। कटे हुए स्टाईलिश बालों पर परमानेंट कलर किया हुआ था। अंग्रेजी के लहजे में वह हिंदी बोल रही थी, बहुत बनावटी लग रहा था सब कुछ। मैं खुद को समझा ही नहीं पा रही थी, अपने को संभालते हुए मैंने धीरे से पूछा – तुम संस्कृति ही हो ना? उसे झटका लगा – अरे ! पहचाना नहीं क्या मुझे? मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा – बहुत बदल गई हो तुम, मेरे दिमाग में कॉलेज वाली सीधी – सादी संस्कृति का चेहरा बसा हुआ था।

वह खिलखिला कर हँस पडी – यार पर तुम वैसी की वैसी रहीं, ना लुक्स में बदलीं, ना सोच में। मैं बीस साल से कनाडा में रहती हूँ, जैसा देश वैसा भेष।  उन लोगों बीच रहना है तो उनके जैसे ही दिखो, उनकी भाषा बोलो। मैंने नाम भी बदल लिया मुझे सब सैंडी बुलाते हैं, अच्छा है ना? मैंने ओढी हुई मुस्कान के साथ कहा – हाँ, तुम पर सूट कर रहा है पर अपनी पहचान ही बदल दी? अपने बच्चों को हिंदी सिखाई है ना? – मैंने पूछा। उसे मेरा प्रश्न बेमानी लगा, बोली – क्या करेंगें हिंदी सीखकर? कौन- सा अब उन्हें यहाँ वापस आना है। मैं बेमन से उसकी हाँ में हाँ मिला रही थी। मुझे संस्कृति के माता – पिता  याद आ रहे थे जो हमेशा अपना भारत देश, बोली – भाषा, खान-पान में देसीपन के इर्द-गिर्द जिया करते थे। उन्होंने अपनी माटी, अपने देश के संस्कार दिए थे इसे  फिर भी  खरे देसीपन के वातावरण में पली – बढी संस्कृति सैंडी क्यों बन गई?

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
4 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments