हेमन्त बावनकर
(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” प्रारम्भ करने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #2 ☆
☆ जख्मी कलम की वसीयत ☆
जख्मी कलम से इक कलाम लिख रहा हूँ,
बेहद हसीन दुनिया को सलाम लिख रहा हूँ।
ये कमाई दौलत जो मेरी कभी थी ही नहीं,
वो सारी दौलत तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
तुम भी तो जानते हो हर रोटी की कीमत,
वो ख़्वाहिशमंद तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
पूरी तो करो किसी ख़्वाहिशमंद की ख़्वाहिश,
ख़्वाहिशमंद की ओर से सलाम लिख रहा हूँ।
सोचा न था हैवानियत दिखायेगा ये मंज़र,
आबरू का जिम्मा तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।
इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत,
ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।
ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,
बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
कुछ भी तो नहीं बचा वसीयत में तुम्हें देने,
अमन के अलफाज तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
जाने क्या किया था इस बदनसीब कागज ने,
जो इसे घायल कर अपना नाम लिख रहा हूँ।
© हेमन्त बावनकर, पुणे
Very nice
Thanks Ashish
बहुत बढ़िया