श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने मेरे गुरुवर एवं संस्थापक प्राचार्य केंद्रीय विद्यालय-1,जबलपुर एवं उनके पिताश्री प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी से साहित्यिक विमर्श हेतु सहायता प्रदान की।  गुरुवर प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी उस  भाग्यशाली पीढ़ी के हैं जिन्होंने कम से कम छह पीढ़ियों  ( स्वयं को मिलकर पिछली तीन पीढ़ियां और अगली तीन  पीढ़ियां ) को  ही नहीं देखा अपितु , भारत को स्वतंत्र होते देखा है । एक शिक्षाविद एवं वरिष्ठतम साहित्यकार के रूप में हमने उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व प्रकाशित किया था जिसे आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं  :

☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆

☆ साहित्यिक विमर्श – साहित्य सदैव दीर्घ जीवी रचा जावे – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव

प्रश्न:  सर, सर्वप्रथम प्रणाम एवं अभिनन्दन।  ई- अभिव्यक्ति के लिए आपका परिचय आपके शब्दों में जानना चाहेंगे ।

उत्तर :  संस्कृत में आत्म प्रवंचना अच्छी नही मानी गयी है. यही कारण है कि महाकवि कालिदास का भी कोई वास्तविक परिचय उपलब्ध नहीं है. जहां तक मेरे संक्षिप्त परिचय की बात है, मेरा जन्म १९२७ में हुआ. मैने आजादी से पहले का भारत देखा है, स्वाधीनता आंदोलन में किसी न किसी तरह भागीदारी की है. मण्डला के अमर शहीद स्व उदय चंद जैन न केवल मेरे सहपाठी थे वरन स्कूल में मेरे साथ एक ही बैंच पर बैठा करते थे. आजादी के बाद मैने देखा है कि जिस भारत में एक सुई भी मेड इन इंगलैंड आती थी वहां से आज चंद्रमा तक राकेट जा रहे हैं. मैने लालटेन युग जिया है, और आज मेरे नाती, पोते दुनिया में न्यूयार्क, दुबई, हांगकांग में हैं, मैं उनके साथ विदेशों में अनेक जगह हो आया हूं. शिक्षा जगत ने मुझे यह सुअवसर दिये कि मैने पीढ़ियो का निर्माण किया है. साहित्य जगत ने मुझे सेवानिवृति के बाद भी आज तक लगातार कुछ न कुछ नया रचने, लिखने अध्ययन करने की प्रेरणा दी है.

प्रश्न:  साहित्य के प्रतिआपकी रुचि कैसे जागृत हुई?

उत्तर :  बाल्यकाल में ही हम मित्रों ने नवयुग पुस्तकालय की स्थापना की थी.  मण्डला के पढ़े लिखे परिवार होने के कारण मेरे पिताजी के पास लोग जिले में स्वातंत्र्य साहित्य के लिये संपर्क करते थे. मुझे अध्ययन के प्रति बचपन से ही लगाव था . संस्कृत साहित्य में मुझे आनन्द आता था. बस इस तरह साहित्य से लगाव बढ़ता गया .

प्रश्न:   साहित्य के अतिरिक्त आपकी अन्य अभिरुचियाँ ?

उत्तर :  स्कूल के दिनो में मैं हाकी बहुत अच्छी खेला करता था. नये नये स्थान घूमना, किताबें पढ़ना, गार्डनिंग मेरी साहित्येतर रुचियां रही हैं.

प्रश्न:  आपकी प्रिय विधा एवं प्रिय कवि?

उत्तर :  छंद बद्ध काव्य मेरी सबसे पसंदीदा विधा है. चांद व सरस्वती में १९४६ में मेरी कवितायें छपी थीं. आज भी कविता लिख कर मुझे नई उर्जा मिलती है. संस्कृत नई पीढ़ी नही पढ़ रही हे, जबकि गीता जैसे वैश्विक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं, इसलिये मैंने हिन्दी में प्रायः प्रमुख संस्कृत ग्रंथो के  अनुवाद करने की ठानी, और इस तरह काव्य अनुवाद मेरी विधा बन गई. महाकवि कालिदास का मेघदूतम विश्व का अप्रतिम श्रंगार रस का काव्य है, इसमें विरह की वेदना और श्रंगार का अद्भुत सौंदर्य भी है, मैंने इसका श्लोकशः हिन्दी काव्य अनुवाद किया है.

प्रश्न:  ऐसा विशेष क्या कारण है जिसने आप को हिन्दी साहित्य सेवा और निःशुल्क प्रकाशन के लिए आकर्षित किया?

उत्तर :  मुझे साहित्य से सुकून मिला. आत्म केंद्रित रहकर मैं  साहित्य सेवा में आजीवन लगा रहा हूं. सेवानिवृति के बाद मेरी पाण्डुलिपियों को मेरे पुत्र विवेक रंजन ने पुस्तको के रूप में छपवाया है.

प्रश्न:   सहिया  सेवा की भावना का प्रेरणा स्रोत आप किसे मानते हैं ?

उत्तर :  मेरा विवाह लखनऊ में हुआ, मेरी पत्नी श्रीमती दयावती श्रीवास्तव की रुचियां भी लिखने पढ़ने की थीं. हम दोनो ने साथ साथ पढ़कर एम ए किया. साथ ही शिक्षा जगत में नौकरी की. उनकी भी पुस्तकें छपी. वे मुझे बराबर नया लिखने के लिये उत्साहित करती थीं.

प्रश्न:  आपके जीवन में कोई ऐसी विशेष घटना घटित हुई हो जिसे आप सबसे सगर्व साझा करना चाहेंगे?

उत्तर :  मेरी यह इच्छाशक्ति कि मुझे आगे पढ़ना है, मेरी उन्नति में हमेशा सहायक रही. सामान्यतः विवाह के बाद मेरी पीढ़ी के लोग अपनी नौकरी से संतुष्ट हो जाते थे, पर हम निरंतर आगे बढ़ने के यत्न करते रहे. यही कारण है कि हम समाज को सुशिक्षित संस्कारी बच्चे दे पाये, और स्वयं अपनी शिक्षा से साहित्य व समाज में अपना स्थान बनाते बढ़ते गये.

प्रश्न:   आपकी दृष्टि  में स्वान्तः सुखाय लेखन उचित है अथवा साहित्य एवं समाज के कल्याण हेतु लेखन  उचित है ?

उत्तर : स्वान्तः सुखाय तो हर कवि लिखता ही है. रचना प्रक्रिया प्रसव वेदना होती है, जिसमें विचारो की परिपक्वता, और उसकी समुचित विधा में अभिव्यक्ति शमिल होती है, किन्तु रचना का  अंतिम उद्देश्य जनहित ही होता है.

प्रश्न:  साहित्य सेवा के प्रत्युत्तर में आप मित्रों और परिवार से क्या पाते हैं ?

उत्तर :  समाज में मेरी पहचान शिक्षाविद व साहित्यकार के रूप में ही है. बिना व्यक्तिगत रूप से मिले भी दुनिया के अनेक हिस्सो के पाठक मेरी रचनाओ के जरिये मुझे पसंद करते हैं, तथा दूरभाष, पत्र आदि से संपर्क व प्रशंसा करते हैं.

प्रश्न:  आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रति आप क्या दृष्टिकोण  हैं?

 उत्तर :  साहित्य ने अभिव्यक्ति के माध्यम बदले हैं. आज डेली सोप, फिल्म, टेलीविजन, आ गये हैं पर प्रकाशित पुस्तको का महत्व यथावत निर्विवाद बना हुआ है. मुझे तो बिना किताब पढ़े नींद नही आती. पुस्तकालय संस्कृति की पुनर्स्थापना मुझे आवश्यक लगती है. पाश्चात्य देशो में बुक रीडिंग हाबी के रूप में बनी हुई है, जैसे जैसे हमारे देश की संपन्नता बढ़ेगी हमारे यहां भी पुस्तक संस्कृती फिर से लोकप्रिय होगी ऐसा मेरा विश्वास है.

प्रश्न:  नवोदित लेखकों के प्रति आपका दृष्टिकोण और  उनके लिए कोई सन्देश देना चाहेंगे ?

उत्तर :  नये माध्यमो जैसे फेसबुक आदि ने नई पीढ़ी को विचार आते ही लिख डालने की आजादी दी है पर संपादन का महत्व होता है. युवा रचनाकारो को अपना लिखा बारम्बार पढ़कर सुधारकर तब रचना रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता समझ आती है. यह देखकर मुझे प्रसन्नता होती है कि साहित्य अब केवल हिन्दी के शोधार्थियो की बपौती नही रह गया है. कितने ही इंजीनियर, डाक्टर, प्रोफेशनल्स अच्छे साहित्यकार बनकर उभर रहे हैं. स्पष्ट है कि साहित्य मनोभावों की अभिव्यक्ति का संसाधन है. और यह मनोवृत्ति प्रकृति दत्त होती है. भाषाई ज्ञान उसे संप्रेषण की शक्ति देता है. नये कवियो से मेरा यही आग्रह है कि साहित्य के सौंदर्य शास्त्र की समझ विकसित करें और परिपक्व लेखन करें तो वह दीर्घ जीवी साहित्य रच सकेंगे.

सौजन्य – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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