श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है उनके । द्वारा संकलित बाल साहित्यकारों की यादगार होली के संस्मरण । ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। यह इस कड़ी का अंतिम भाग है। हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )
श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –
“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी निकालने का तरीका रह गई है.
क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”
प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 2 ☆
गौरव वाजपेयी “स्वप्निल”
गौरव वाजपेयी “स्वप्निल” एक नवोदित बालसाहित्यकार है. ये बच्चों के लिए बहुत अच्छा कार्य कर रहे है. उन का कहना है कि मेरे बचपन की यादगार होली रही है. यह बात वर्ष 1991 की है. तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ता था. होली पर मेरे गृहनगर शाहजहाँपुर में लाट साहब का जुलूस निकलता है.वैसे तो सड़क पर जा कर हर बार बड़ों के साथ मैं यह जुलूस देखता था, किन्तु उस वर्ष पहली बार मैं कुछ जान-पहचान के हमउम्र लड़कों के साथ जुलूस के साथ आगे चलता चला गया. ढोल व गाजे-बाजे के मधुर संगीत और चारों ओर बरसते रंगों का हम भरपूर आनन्द ले रहे थे.
परिवार के बड़े लोगों ने हमें ज़्यादा दूर जाने से मना किया था, पर होली के रंग-बिरंगे उल्लास में डूबे हम चलते-चलते ऐसे अनजान मोहल्ले में पहुँच गए जहाँ कुछ बड़ी उम्र के लड़के शराब के नशे में धुत्त थे. वापस लौटते समय उन्हों ने हमें घेर लिया. अपशब्द कहते हुए हमारे कपड़े फाड़ दिए.
हमने बहुत हाथ-पैर जोड़े. पर, नशे में धुत्त उन लड़कों ने हमारी एक न सुनी. हम बहुत दुःखी हुए. बेहद शर्मिंदगी के साथ घर वापस लौटे.घर पर बड़ों से बहुत डाँट भी खानी पड़ी थी. तब पहली बार एहसास हुआ कि बड़ों की बात न मानना कितना भारी पड़ सकता है.
राजेंद्र श्रीवास्तव
राजेंद्र श्रीवास्तव बहुत अच्छे कवि और लेखक है. आप बताते हैं कि अपने गाँव की एक होली हमें आज भी याद है.वे लिखते हैं कि हमारे गाँव में होलिका दहन के अगले दिन होली की राख और धूल लेकर बच्चे बूढ़े घर-घर जाते थे. उसे किसी भी आँगन या बंद दरवाजे पर फेंक कर आते थे.
दूसरे दिन का हम बच्चों को बेसब्री से रहता था. सुबह लगभग नौ-दस बजे गाँव के बड़े-बूढ़े घरों में बनाए गोबर के गोवर्धन का थोड़ा सा गोबर, होलिका स्थल पर लेकर जाते. तब तक हम बच्चे अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार गाँव की एक मात्र गली में मुखिया जी के घर के सामने की ढलान की ऊँचाई पर गोबर इकठ्ठा कर लेते.
जब गाँव के बड़े-बूढ़े लौटकर आते तो उन्हे रोकने के लिए गोबर के हथगोले बना कर उन पर फेंकते. उस तरफ से वह गुट भी टोकरी आदि की ओट लेकर हमारी ओर आने का जतन करते. ढपला, झाँझ व छोटे नगाड़ों के शोर में यह गोबर युद्ध तब तक चलता, जब तक हम लोगों का गोबर का भंडार खत्म न हो जाता. या कि गोबर खत्म होने से पहले ही गाँव के मुखिया किसी तरह बचते-बचाते हमारी सीमा में न आ जाते.
उसके बाद एक-दूसरे पर गोबर पोतते हुए दोपहर हो जाती. तब सभी अपने कपड़े लेकर नदी की ओर दौड़ जाते. जीभर नहाते. घर आकर अगले दिन होने वाली रंग की होली की योजना बनाने लगते.
इस तरह तीन दिन क्रमशः धूल, गोबर और रंग की होली की हुड़दंग में पूरा गाँव एक नजर आता. आजकल ऐसी होली नजर नहीं आती है.
इंद्रजीत कौशिक
इंद्रजीत कौशिक एक प्रसिद्ध कहानीकार है. आप बच्चों को लिए बहुत लिखते हैं. आप को होली का एक संस्मरण याद आता है. आप लिखते हैं कि विद्यालय की पढ़ाई के उपरांत मैं स्थानीय समाचार पत्र के कार्यालय में काम करने लग गया था. जैसा कि सर्वविदित है कि हमारा शहर— बीकानेर भांग प्रेमियों के लिए विख्यात है.
उसी वक्त की बात है कि होली का त्यौहार पास आता जा रहा था. समाचार पत्र के कार्यालय में नवोदित एवं वरिष्ठ साहित्यकारों का आना जाना लगा रहता था. उन के सानिध्य में मैंने लिखना शुरू भी कर दिया था. ऐसे ही एक दिन साहित्यकारों के बीच मिठाई और नमकीन के रूप में विश्वविख्यात बीकानेरी भुजिया का दौर शुरू हुआ. साहित्यकारों की टोली ने मुझे भी आमंत्रित किया तो मैं भी जा पहुंचा उन के बीच ।
” लो तुम यह लो स्पेशल वाली भुजिया ” मैं ने भुजिया देखी तो खुद को रोक न सका.भुजिया चीज ही कुछ ऐसी है जितना भी खाओ पेट भरता ही नहीं . अभी एक दो मुट्ठी भुजिया ही खाए थे कि स्पेशल भुजिया ने रंग दिखाना शुरू कर दिया. दरअसल वे भाँग के भुजिया थे. यानी कि उन में भांग मिलाई हुई थी.
फिर क्या था,चक्कर आने शुरू हुए तो रुके ही नहीं. मुझे उस का नशा होता देख किसी ने सलाह दी,” अरे भाई, जल्दी से छाछ गिलास भर के पिला दो. नशा उतर जाएगा.”तब झटपट पड़ोस से छाछ मंगवाई गई.दोतीन गिलास मुझे पिला दी गई.नुस्खा कामयाब रहा. थोड़ी देर बात स्थिति सामान्य हुई. तब मैंने कसम खाई कि आइंदा कभी बिना सोचे विचारे कोई चीज मुंह में डालने की नहीं सोचूँगा.
अच्छा तो यही होगा कि होली जैसे मस्त त्यौहार पर नशे पते से दूर ही रहा जाए. यही सबक मिला था उस पहली यादगार होली से.
© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”