डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत है यह सामयिक एवं बेबाक लघुकथा  “श्राद्ध”.)

 

☆ लघुकथा – श्राद्ध ☆

 

बाबूजी की तिथि पर सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया गया था । श्रीमतीजी ने बाबूजी की पसन्द के सभी पकवान बनाये थे । मेहमानों को परोसते हुए कह रही थीं – “बाबूजी को मटर पनीर, आलू छोले, गोभी, पराठाँ  बहुत पसंद थे । उनकी ही पसन्द को ध्यान में रखते हुए यह सब बनाये हैं, ताकि उनकी आत्मा तृप्त हो जाये।”

वह श्रीमतीजी के इस कथन पर अंदर ही अंदर कसमसा रहा था –  जब तक बाबूजी जिंदा थे, तब तक वे श्रीमतीजी को फूटी आंख न सुहाते थे। हमेशा ताने मारा करती, बुढ़ापे में बाबूजी की जीभ कुछ ज्यादा ही चलने लगी है, उनकी रोज़ रोज की फरमाइश से में तंग आ गई हूँ।

वह उठकर छत पर आ गया। छत की मुंडेर पर बाबूजी के निमित्त निकाली गयी पत्तल वैसी ही रखी थी। उसने चारों ओर नजर घुमाई, दूर दूर तक आसमान में कौआ नजर नहीं आ रहा था। उसे बाबूजी का कथन याद आ गया जो  एक बार बाबूजी ने उससे मजाक में कहा था – बेटा, न जाने कितने दिन की जिंदगी है, मेरा मन जो खाना चाहे खिला दो। मरने के बाद मैं कौआ बनकर खाने नहीं आऊंगा।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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