हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 – लघुकथा – नशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा नशा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 184 ☆

☆ लघुकथा 🌹 नशा 🌹

रंग से सराबोर और लाल-लाल आँख, बिखरे बाल, चेहरे पर मासूमियत और लड़खड़ाते कदम।

दरवाजे की घंटी बजी। जैसे ही दरवाजा खुला लगभग गिरते हुए बबलू ने कहा… “अंकल मुझे माफ कर दीजिए। पापा नाराज होंगे और इस हालत में मैं उनके सामने नहीं जाना चाहता। बाकी आप संभाल लेना।”

कहते-कहते धड़ाम से कमरे में बिछे पलंग पर औंधा गिरा।

संजय और उसकी धर्मपत्नी को समझते देर नहीं लगी कि बबलू आज नशे में धुत है।

गुस्से में पत्नी ने बोलना आरंभ किया..” घसीट कर बाहर कर दो हमें क्या करना है। इस लड़के से कोई लेना-देना नहीं।” कहते-कहते जल्दी-जल्दी पानी का गिलास लाकर बबलू को पिलाने लगी। मुँह पर पानी के छींटे मारने लगी। “हे भगवान यह क्या हुआ… कैसी संगत हो गई। हमने आना-जाना क्या छोड़ा। बच्चे को बिगाड़ कर रख डाला।” संजय भी आवक बबलू के सिर पर हाथ फेरता जा रहा था।

“अब चुप हो जाओ मैं ही बात करता हूँ।” पत्नी ने कहा.. “कोई जरूरत नहीं होश आने पर स्वयं ही चला जाएगा” और जोर-जोर से इधर-उधर चलने लगी और बातें करने लगी ताकि पड़ोसी सुन ले।

आकाश और संजय की गहरी दोस्ती थी। और होती भी क्यों नहीं एक अच्छे पड़ोसी भी साथ-साथ बन गए थे। परंतु एक छोटी सी गलतफहमी के कारण दोनों के बीच मनमुटाव यहाँ तक हुआ की बातचीत तो छोड़िए शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते थे।

बरसों बाद फोन नंबर डायल किया, नंबर देखते ही दोस्त आकाश ने अपनी पत्नी से कहा… “संजय का फोन आ रहा है।” श्रीमती झल्लाकर बोली… “कोई जरूरत नहीं है अब वक्त मिल गया। अकल ठिकाने आ गई। रहने दीजिए।”

“परंतु पता भी तो चले हुआ क्या है।”

“हेलो… बबलू मेरे घर पर है। संगति का असर है। थोड़ा बहक गया है तुम नाराज नहीं होना डर रहा है। अभी सोया है। सब ठीक हो जाएगा। हम मिलकर संभाल लेंगे।”

फोन पर बात करते-करते दोनों पति-पत्नी की आँखों में आँसू बहने लगे।

“मैं अभी आता हूँ।” दरवाजे पर बरसों बाद दोनों दोस्त मिले। पलंग पर बैठ गंभीर चर्चा करने लगे।

“अरे छोड़ यार हो जाता है गलती हो गई है। अब दोबारा नहीं होना चाहिए।” बबलू अचानक उठ बैठा जेब से गुलाल उड़ाते कहने लगा…. “मैंने कोई नशा नहीं किया। आप दोनों का नशा उतारना था और जो असली नशा आप दोनों के बीच है उसे फिर से चढ़ाना था।

इसलिए मैंने इस नशे का नाटक किया।” चारों एक दूसरे का मुँह देखने लगे।” इस नाटक को करने के लिए मैंने कल से कुछ नहीं खाया है। कुछ मिलेगा।” “अब तुम मार खाओगे।”

हँसी का गुब्बारा फूटने छूटने लगा.. बबलू के नशे ने अपना काम कर दिया था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-3 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-3 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(हाॅं जी हाॅं! भेजेंगे न पैसे! क्योंकि यहाॅं एक तो पैसे की खुदान और दूसरा गुप्त धन का भंडार हाथ लगा है। बहु बोले जा रही थी और बेटा सिगरेट सुलगाकर धुएं के छल्ले पर नजर गढाए बैठा था। )…. अब आगे

पूरी रात उसको नींद नहीं आयी। अगले दिन जैसे ही बेटा ऑफिस चला गया, वह एक थैली में अपने चार कपड़े ठुॅंसकर बाहर निकली। बहू के लिए एक संदेश छोड़ना भी उसने जरुरी नहीं समझा। उसे मालूम था वे दोनो उसकी खोज खबर लेने का प्रयास भी नहीं करेंगे।

सीधी अपनी सहेली रमा के पास पहुॅंच गई। बचपन से ही दोनों में पक्की दोस्ती थी। दोनों अपने सुख दुख आपस में बाॅंटा करती थी। ….. फिर दोबारा हाथ में चकला बेलन! लेकिन इसमें अब पहले जैसी ताकत नहीं रहीथी। हाथ काॅंपने लगते थे। कोई जरूरतमंद महिला कुछ दिनों के लिए रख लेती, …. फिर दूसरा घर! सहेली की वजह सिर पर छत तो मिल गया था लेकिन पैसा कमाना जरुरी था।

वह काम के चक्कर में घूमती रही, एक दिन वह घूमते घूमते इधर आ गई। … पानसे वकील साहब के घर। पिताजी वकील थे अब वह नहीं रहे, पर छोटा बेटा, संतोष भी वकील बन गया है, इतनी उसे जानकारी थी। इन लोगों के घर में बहुत सालों तक उसने काम किया था। बहू बेटियों के जापे में वह बड़ी खुशी से मालिश का काम भी किया करती थी।

उसकी कहानी जानने के बाद संतोष ने उसको अपने घर में ही पनाह दे दी। दुबारा वह उस घर की सदस्य बन गई।

एक दिन अचानक एडवोकेट संतोष पानसे की चिट्ठी, इसके बेटे को मिल गई। …

लिखा था, ‘तुम्हारी अम्मा जी हमारे घर रह रही है, … पर काम करने के लिए नहीं। वह हमारी दादी जैसी है। बड़े मान सन्मान के साथ रह रही है। काम करने जितनी ताकत भी उसकी बुढी हड्डियों में नहीं है। …. और अगर होती तो भी उसको अब इतने कष्ट उठाने की क्या जरूरत है? तुम पढ़ लिख कर बड़े आदमी बन गए हो। तुम्हारी कमाई भी अच्छी खासी है। तुम यह अच्छी जिंदगी हासिल कर सको इसी बात के लिए तुम्हारी माँ ने अपना खून पसीना बहाया है। अब उसको अपने उस खून पसीने की कीमत चाहिए….. उसको तुमसे गुजारा भत्ता चाहिए। alimony….. क्यों डर गए? मैं वकील हूँ इसलिए उसने मेरी राय पूछी…. और उनकी बात मुझे सही लगी। मैंने उनका वकील पत्र लिया है। इस केस के लिए मैं उनसे एक पैसा भी नहीं लूॅंगा। एक माँ अपने बेटे के खिलाफ कोर्ट जाना चाहती है, वह भी बेटे को बड़ा करने में उसने जो कष्ट उठाएं, उसकी कीमत वह मांग रही है। …. बुढ़ापे में बिना परिश्रम किये जीवन आराम से, शांति से व्यतीत हो जाए इसलिए!…. तुम इसको उनके कष्ट का परतावा समझ सकते हो। यह बात मुझे अलग और बहुत ही प्रैक्टिकल लगी।

….. यह केस लड़ना मेरे लिए एक चुनौती है। तुमने उस पर अन्याय किया है। अब देखता हूँ न्याय देवता क्या करती है, वह अंधी जरूर है… पर तुम्हारी जैसी उल्टे कलेजे वाली नहीं है।

इसलिए उनको सुकून की जिंदगी जीने के लिए आवश्यक गुजारा भत्ता तुम्हें उनको मरते दम तक देना ही पड़ेगा। सोच समझकर निर्णय लेना, यह तुम्हें भेजी गई अनौपचारिक चिट्ठी है। फैसला तुम्हारे हाथ में है। अगर तुम मना करोगे कोर्ट का रास्ता हमेशा हमारे लिए खुला है।

बेटे ने चिट्ठी पढी, बीवी ने पढी… फाड़ कर फेंक दी।

फिर कोर्ट की तरफ से उसको नोटिस आया और कोर्ट में हियरिंग शुरू हो गयी। ऐसे अनोखे माँ की यह केस उस छोटे से गांव में चर्चा का विषय बन गयी। … और मॉं केस जीत भी गयी।  

बिते पूरे साल गुजारा भत्ता भेजते वक्त माँ की जिंदगी भर की मेहनत उसे याद आने लगी। बहू भी अब नरम पड़ गई थी। …पर थी तो पूरी पक्की स्वार्थी और तिकड़म चलाने वाली! वह बोली,

“इससे अच्छा तो सासू जी को अपने पास ही रखना सस्ता पड़ेगा। वह फायदे का सौदा होगा। ” पति के मन में भी यह बात उसने बोल बोल के… बोल बोल के… ठुॅंस दी… और अभी अम्मा को वापस ले जाने के लिए वह उनके घर के सामने खड़ा है।

“हाॅं! आपने सही पहचाना, मैं वही हूँ …. उस अम्मा का बदनसीब बेटा! 

मेरे बीवी के मन मेंअम्मा के प्रति बहुत ज्यादा प्यार वार नहीं उमडा है। लेकिन उसका शब्द हमारे घर में अंतिम शब्द है। और ज्यादा बोलना, बीवी से बहस करना मेरे स्वभाव में ही नहीं है। “

“वकील पानसे जी की राय ली थी, उन्होंने कहा, ‘मैं किसी तरह की राय देकर उस माता पर अन्याय नहीं कर सकता। अब जो करना है वह आपको ही, … और सोच समझकर करना है। ‘ अपनी जगह वे भी सही थे। “

“अब दरवाजे पर दस्तक देकर मुझे ही अंदर जाना पड़ेगा। मन से मैं वहाँ कभी का पहुॅंच गया हूँ । … पर कदम लड़खड़ा रहे हैं। लगता है, हमारे स्वार्थी इरादे की जरा सी भी भनक उसको लग जाय, या नहीं भी लग जाय… वह स्वाभिमानी माता सब कुछ भूल कर मेरे साथ आएगी यह बात नामुमकिन ही है। “

“कृपया आप जरा आगे जाकर, झाॅंक कर देखेंगे? क्या उसको बतायेंगे कि, आपका बेटा आपको अपने घर ले जाने के लिए आया है। “

**समाप्त **

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-2 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-2 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

(बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ियाॅं पहन रही माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आयी।) अब आगे…

वैसे भी उसका आहार बहुत कम था। लेकिन उसकी एक आदत थी। जो छोडे नहीं छुटती थी। जो उसने सालों से भूख मिटाने की दवाई के रूप में डाल रखी थी। वह थी चाय पीने की आदत। .. एक बार सुबह अच्छी अदरक वाली, और ज्यादा चीनी वाली चाय!… फिर दिन भर खाने को कुछ भी ना मिले कोई फर्क नहीं पड़ता था। बहू इस बारे में अनजान हो ऐसी भी कोई बात नहीं थी। यह रोज सुबह जल्दी उठती थी, अपनी और बेटे बहू की भी चाय बनाती थी।

एक दिन की बात…. रात देर से नींद आयी, सुबह जल्दी ऑंखें नहीं खुली। उसने रसोई में देखा पति-पत्नी दोनों की चाय बनी हुई थी। ब्रश किया, हाथ  पोंछती हुई  रसोई में आई। देखा, तो चाय का पतेला फिर गैस पर चढ़ा हुआ था। उसके सामने ही पतेला उतार कर उसके कप में पानी जैसी पतली चाय और ऊपर थोड़ा सा दूध डाला गया। वह समझ गई उन दोनों की चाय छानने के बाद छननी पर जो चाय पत्ती थी, उसमें ही पानी डालकर उसके लिए चाय उबाली गई थी। यहाॅं मन पर दूसरी बार खरोंच आयी। … मन लहू लुहान हो गया। मन कहने लगा, ‘बस्स, अब और नहीं!’

बेटे को आवाज दी, तब  ऑंखों में आंसू छलक रहे थे,

“क्या मैं इतनी गयी बिती  हो गयी हूॅं, की एक कप अच्छी चाय भी मेरे नसीब में नहीं है?”

” क्या हुआ?”

”  देखी यह चाय ?”

“हाॅं, देखी…आगे!”…

“देखो, एक बार चाय छानकर छननी पर पड़ी चायपत्ती से मेरी चाय बनाई गयी है। क्या इतने गरीब है हम लोग?  या तुम दोनों के लिये बोझ बन गई हूॅं मैं?”…..

वह कुछ भी नहीं बोला सिर्फ हल्के से त्योरियाॅं चढ़ाकर उसने बीवी की तरफ देखा। बीवी फटाक् से उठ खड़ी हुई, उसने तेजी से सास के सामने पड़ा हुआ चाय का कप उठाया, मुॅंह को लगायाऔर सारी चाय वह पी गई….. फिर कैची की तरह उसकी  जुबान चलती रही,

“कोई जहर देकर मार नहीं डाल रही थी तुम्हें। मेरी एक बात, एक चीज भी पसंद आती हो तो जानू! खुद अपने आप बनाकर क्यों नहीं पी? शरीर में जान नहीं है, फिर भी इतने नखरे! अगर हट्टी कट्टी होती तो रोज जूते की मार ही मेरे नसीब में होती। मानो जैसे आजतक अमृत पीकर जी रही थी, जो इस चाय को देखकर नाक भौ सिकुड़ रही है। “

…. बोलते बोलते उसका रोना भी शुरू हो गया। सामने घटित  तमाशा देखकर यह अपना अपमान, दु:ख भी भूल गई। बेटा खंबे जैसा खड़ा था।

यह उठकर अपने कमरे में जाकर लेट गई। दिन भर न पानी पिया न खाना खाया। पूरे दिन बेटा बीवी को प्यार से समझाता रहा।

शाम को माॅं के कमरे में झाॅंककर बोला,

“अम्मा जी, आपने यह क्या शुरू कर दिया है ?”

“मैंने शुरू कर दिया?”

” देखो अम्मा, मुझे घर में शांति चाहिए बस्स, बैठे ठाले तुम्हें दो वक्त की रोटी मिलती है। फिर भी तुम्हारा यह बर्ताव!थोड़े सब्र से, प्यार से रहने में तुम्हारी क्या चव्वल खर्च होती है ?”

खाली पेट उसने, बेटे से दो वक्त की रोटी  खिलाने का बड़प्पन सुना…. और वह गुस्से से आग बबूला हो गई। जोर से चिल्ला कर बोलना चाहती थी पर बोलते वक्त हाॅंपने लगी।

” कितना सब्र करूॅं?

जैसे तुम लोग जिलाओगे वैसे जिऊॅं? अपने मन की हत्या करके ?…  वह … तुम्हारी बीवी, बहू है मेरी, कोई दुश्मन नहीं है। दुश्मन के प्रति भी मैंने बुरा व्यवहार नहीं किया। जरूरत थी तब अपनी खुद की गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए मैंने चकला बेलन लेकर चार घरों में काम किया है। अब शरीर नहीं चल रहा है। कम से कम मेरे सफेद बालों की और सुखकर काटा हुए शरीर की  तो इज्जत.”…

“लेकिन अम्मा, “….

“मुझे दो वक्त के भोजन से मतलब नहीं है, ….. प्यार के दो शब्दों की भूखी हूॅं मैं! बुरे वक्त पर मैंने मेहनत की वह सिर्फ मेरे दो कौर रोटी के लिए नहीं। कभी दो समय का खाना मिला, कभी नहीं!  जो भी मिला वह पहले तुम्हें खिलाया। …. तुम्हें खिलाया- पिलाया, लिखाया- पढ़ाया, बड़ा किया, “…..

सुनते ही बहू तीर के समान अंदर आ गई।

“देखना मॉंजी, यह तो आपका कर्तव्य था। कोई एहसान नहीं किया। हम भी अपने होने वाले बच्चों के लिए ये सब करेंगे। कोई उनको कुडा घर में नहीं फेंकेंगे। “

“बहू तुम्हारी सारी बातों से दिल खुश हुआ। … इन सारे बातों से एक बात मेरी समझ में आ गई है कि मैं तुम्हें एक ऑंख नहीं सुहाती। …. कोई बात नहीं, जहाॅं काम करती थी वहाॅं भी इज्जत से रही, बेज्जती का जहर वहाॅं भी किसी ने मुझे नहीं परोसा। मैंने मेरे बेटे का पालन पोषण किया कोई एहसान नहीं किया…. सही बात है। लेकिन एक बात आप लोग भूल रहे हैं। अब जिम्मेवारी निभाने का, अपने कर्तव्य का पालन करने का, जिम्मा आपका। आप उसको नकार नहीं सकते। आपकी घर गृहस्थी आपको मुबारक!….. मेरे लिए कहीं पर एक किराए का कमरा ढूॅंढ लो। और जब तक शरीर में जान है तब तक खर्चे के लिए कुछ पैसे भेजते रहो। …. इसमें मेरे पर  एहसान जताने वाली कोई बात नहीं है। बेटा, … यह तुम्हारे प्रति मैंने निभाये कर्तव्य  का पुनर्भुगतान समझो। “…

” हाॅं जी हाॅं ऽ, भेजेंगे ना, यहां पैसों की खुदान है। …. या कोई गुप्त धन का भंडार हाथ लगा है?”

….बहू बोलते जा रही थी और बेटा सिगरेट सुलगाकर धुए के छल्ले पर नजर गढाए  बैठा था।

**क्रमशः* 

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-1 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

सुश्री सुनीता गद्रे

☆ कथा कहानी ☆ ऐसी भी एक मॉं … भाग-1 – लेखक – श्री अरविंद लिमये ☆ भावानुवाद – सुश्री सुनीता गद्रे ☆

“क्या आप जरा सामने जो घर है वहॉं जाकर उसमें झॉंककर देखेंगे? अपनी गृहस्थी के लिए, फिर अपने बेटे के लिए जिसने खून पसीना बहाया ऐसी एक थकी-मांदी बूढी माॅं अंदर होगी। देख लिया झॉंककर?”

” मुझे तो वहाॅं अंदर जाना है। मन कभी का जा पहूॅंचा है। लेकिन कदम लड़खड़ा रहे हैं। आगे जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा हूॅं, क्योंकि पुरानी यादें पीछा ही नहीं छोड़ रही। “

तब से मुझे याद आ रहा है, जब उसके बेटे की शादी तय हो गई थी। दो साल पहले की ही तो बात है, उस समय यह वृद्धा, थके शरीर से पर प्रसन्न मन से कमर कसकर सारा काम कर रही थी। और क्यों न करें?…. उसका अपने गृहस्थी का सपना तो अचानक टूट गया था। अब बेटे की शादी और उसके खुशहाली का सपना उसे  ऊर्जा दे रहा था।

तीन बेटियों के बाद घर में आया हुआ था यह बेटा !वे तीनों तो पैदा होते ही, ऑंखें खुलने से पहले ही चल बसी थी। …. तीनों आयी और इसके कलेजे को  जख्म देकर चल बसी। तब से उसके ऑंखों के आसू कभी सुखे ही नहीं। कभी उन जख्मों की याद से… कभी पति की बढ़ती बीमारी से दुखी होकर!… .पति तो चल बसे, … इस बेचारी को रोता बिलखता छोड़कर। …पर इसने हिम्मत नहीं हारी। पति के प्राइवेट नौकरी में आमदनी ही क्या थी ? कम खर्चे में गृहस्थी चलाकर जो पैसा बचाया था, वह भी पति की बीमारी में स्वाहा हो गया। ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन खाना बनाने की कला बहुत जानती थी। हाथ में चकला- बेलन पकड़ा और औरों के रसोई घर बड़ी मेहनत से बहुत अच्छी तरह से संभाले। बेटे की पढ़ाई लिखाई पूरी हो गई और उसको बहुत अच्छी नौकरी भी मिल गई। इसके खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। यही सपना देख रही थी कि बस! अब दुख के, कष्ट के दिन खत्म हो गए। एक बार बेटे की शादी हो जाए…. फिर घर में आराम से चिंता मुक्त जिंदगी बिताऊॅंगी। … अब औरों के रसोई घर संभालने की  कोई जरूरत ही नहीं है।

जब बेटे की शादी हुई संतुष्टि की एक अत्यंत अप्राप्य  अनुभूति उसको स्पर्श कर गई। बहू का गृह प्रवेश हुआ। वह खुश थी, प्रसन्न थी।

बहू को प्यार भरी निगाहों से निहार रही थी, तभी उसने बहू के माथे की त्यौरियाॅं देखी  और जो समझना था समझ गई। उसी पल से  खुशी मानो भाग ही गई। मन से थक गई… शरीर तो पहले से जवाब देने लगा था। एक तो दोनों घुटनों में बहुत दर्द रहने लगा था। दोनों आंखों में मोतियाबिंदु बढ़ रहा था। फिर भी बहू का तमतमा सा चेहरा देखकर बात लड़ाई झगड़े तक ना आ जाए, इसी वजह से घर का सारा काम करती रही… थकी मांदी होने के बावजूद उसने बिस्तर नहीं पकड़ा।

“आप आ गए घर के अंदर झाॅंककर ? कैसी दिख रही है वह ?अकेली होगी पर कैसी लग रही है? “

असल में यह सवाल जब जरूरत थी तब बेटे के जेहन में उठना चाहिए था, जो उठा ही नहीं।

गृह लक्ष्मी की हॅंसी से वह खुश हो जाता था, …. वह रूठ जाए तो मुरझा जाता था। मानो, घर आई वह एक नाजुक गोरी मन मोहिनी परी थी। …

यह सिर्फ देखती ही रह गई। …

अपना बेटा और उसकी परछाई इसमें जो फर्क था, उसको वह समझ गई। शादी के साथ ही उसके पास सिर्फ बेटे की परछाई थी। … वैसे शुरू से ही बेटा मितभाषी था। हाॅं- ना, चाहिए- नहीं चाहिए… इतनी ही बातें …लेकिन अब तो माॅं के साथ उतनी बातें भी नहीं बची थी। माॅं के कष्ट, उसका कमजोर शरीर, घुटनों के दर्द की वजह से धीमे-धीमे चलना, इन सब की तरफ उसका ध्यान भी नहीं गया। …अब इसने बाहर के काम बंद किए थे लेकिन घर में एक मिनट का भी आराम नहीं था। वह सहनशीलता की एक मूर्तिमंत प्रतिमा थी। .. अपना दुख दर्द उसने किसको बताया तक नहीं।

घर में सिर्फ तीन जने, बेटा बहू और वह !बहुत अमीर नहीं थे लेकिन पैसे टके की कमी भी नहीं थी। नई-नई शादी, नई नवेली दुल्हन के साथ गृहस्थी की नयी नयी चीजों की शॉपिंग, पिक्चर, बड़े होटलों के खर्चे …सब कुछ अच्छे से चल रहा था। ड्रिंक, स्मोकिंग, क्लब, पार्टीयाॅं ….सब उनके जिंदगी का जरूरी हिस्सा बन गई थी। इसको उनके लाइफस्टाइल के बारे में कोई शिकायत नहीं थी। लेकिन बीवी की साड़ियाॅं, खुद के कपड़े खरीदते वक्त बदरंग, फटी साड़ीयाॅं पहनी हुई माॅं उन दोनों को कभी याद ही नहीं आयी। ….तब पहली बार उसके मन पर खरोंच आ गई।

**क्रमशः* 

मूल मराठी कथा (जगावेगळी) –लेखक: श्री अरविंद लिमये

हिन्दी भावानुवाद –  सुश्री सुनीता गद्रे 

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 136 ☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा सलमा बनाम सोन चिरैया। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 137 ☆

☆ लघुकथा – सलमा बनाम सोन चिरैया ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

सलमा बहुत हँसती थी, इतना कि चेहरे पर हमेशा ऐसी खिलखिलाहट जो उसकी सूनी आँखों पर नजर ही ना पड़ने दे। गद्देदार सोफों, कीमती कालीन और महंगे पर्दों से सजा हुआ आलीशान घर।तीन मंजिला विशाल कोठी, फाईव स्टार होटल जैसे कमरे। हँसती हुई वह हर कमरा दिखा रही थी –‘ये बड़े बेटे साहिल का कमरा है, न्यूयार्क में है, गए हुए आठ साल हो गए, अब आना नहीं चाहता यहाँ।’ 

फिर खिल-खिल हँसी — ‘इसे तो पहचान गई होगी तुम —सादिक का गिटार, बचपन में तुम्हें कितने गाने सुनाता था इस पर, उसी का कमरा है यह, वह बेंगलुरु में है- कई महीने हो गए उसे यहाँ आए हुए। मैं ही गई थी उसके पास।’ वह आगे बढ़ी – ‘यह गेस्ट रूम है और यह  हमारा बेडरूम —-। ‘पति ?’ – — अरे तुम्हें तो पता ही है सुबह नौ बजे निकलकर रात में दस बजे ही वह घर लौटते हैं’ – वही हँसी, खिलखिलाहट, आँखें छिप गईं।

‘और यह कमरा मेरी प्यारी सोन चिरैया का’– सोने -सा चमकदार पिंजरा कमरे में बीचोंबीच लटक रहा था, जगह – जगह छोटे झूले लगे थे | सोन चिरैया इधर-उधर उड़ती, झूलती, दाने चुगती और पिंजरे में जा बैठती। 

सलमा बोली – ‘दो थीं एक मर गई। कमरे का दरवाजा खुला हो तब भी वह उड़कर बाहर नहीं जाती।यह अकेली कब तक जिएगी पता नहीं ?’

इस बार उसकी आँखें बोली  थीं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 94 – बैंक: दंतकथा : 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “बैंक: दंतकथा : 3“

☆ कथा-कहानी # 94 –  बैंक: दंतकथा : 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अविनाश अतीत में गोते लगाते रहते पर मोबाईल में आई नोटिफिकेशन टोन ने उन्हें अतीत से वर्तमान में ट्रांसपोर्ट कर दिया. आंचलिक कार्यालय की घड़ी रात्रि के 8 बजे के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी. पर मोबाईल में वाट्सएप पर आया केके का मैसेज उन्हें लिफ्ट में ही रुककर पढ़ने से रोक नहीं पाया.

मैसेज :Dear AV, Mr. host of the month, what will be the menu of sunday lunch?

Reply from AV : It will be a secret surprise for both of us, only Mrs. Avantika Avinash & Mrs. Revti Kartikay know. But come on time dear Sir. Reply was followed by various whatsapp emojis which were equally reciprocated by KK.

अविनाश और कार्तिकेय की दोस्ती सही सलामत थी, मजबूत थी. ये दोस्ती ऑफिस प्रोटोकॉल के नियम अलग और पर्सनल लाईफ के अलग से, नियंत्रित थी. हर महीने एक संडे गेट टु गेदर निश्चित ही नहीं अनिवार्य था जिसकी शुरुआत फेमिली लंच से होती थी, फिर बिग स्क्रीन टीवी पर किसी क्लासिक मूवी का लुत्फ़ उठाया जाता और फाईनली अवंतिका की मसाला चाय या फिर रेवती की बनाई गई फिल्टर कॉफी के साथ ये चौकड़ी विराम पाती. जब कभी मूवी का मूड नहीं होता या देखने लायक मूवी नहीं होती तो कैरमबोर्ड पर मनोरंजक और चीटिंग से भरपूर मैच खेले जाते. ये चीटिंग कभी कभी खेले जाने वाले चेस़ याने शतरंज के बोर्ड पर भी खिलाड़ियों को चौकन्ना बनाये रखती. शतरंज के एक खिलाड़ी की जहाँ knight याने घोडों के अटेक में महारत थी, वहीं दूसरा खिलाड़ी बाजी को एंडगेम तक ले जाने में लगा रहता क्योंकि उसे पैदलों याने Pawns को वजीर बनाने की कला आती थी. घोड़े और पैदल शतरंज के मोहरों के नाम हैं और उनकी पहचान भी.

जहाँ अविनाश और अवंतिका प्रेमविवाह से बंधे युगल थे वहीं रेवती का चयन, कार्तिकेय के परंपराओं को कसकर पकड़े उनके पेरेंट्स की पसंद से हुआ था. मिसेज़ रेवती कार्तिकेय जी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाती थीं पर उससे भी बढ़कर सांभर बनाने की पाककला में पीएचडी थीं. उनका इस कहावत में पूरा विश्वास था कि दिल तक पहुंचने के रास्ते की शुरुआत, सुस्वादु भोजन के रूप में पेट से होती है.

तो इस मंथली लंच टुगेदर के होस्ट कभी अविनाश होते तो कभी कार्तिकेय. महीने में एक बार आने वाले ये सुकून और आनंददायक पल, कुछ कठोर नियमों से बंधे थे जहाँ बैंक और राजनीति पर चर्चा पूर्णतया वर्जित थी. स्वाभाविक था कि ये नियम रेवती जी ने बनाये थे क्योंकि उनके लिये तीन तीन बैंकर्स को झेलना बर्दाश्त के बाहर था.

कार्तिकेय जानते थे कि कैरियर के लंबे सफर के बाद पुराने दोस्त से मुलाकात हुई है और पता नहीं कब तक एक सेंटर पर रहना संभव हो पाता है, तो इन खूबसूरत लम्हों को दोनों भरपूर इंज्वाय करना चाहते थे. वैसे इस बार लंच का मेन्यु, अविनाश की बनाई फ्राइड दाल, अवंतिका की बनाई गई मसालेदार गोभी मटर थी और देखी जा रही मूवी थी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन अभिनीत “नमकहराम”. और जो गीत बार बार रिपीट किया जा रहा था वो था

दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं

बड़ी मुश्किल से मगर, दुनियां में दोस्त मिलते हैं

दौलत और जवानी इक दिन खो जाती है

सच कहता हूँ सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है

उम्र भर दोस्त मगर साथ चलते हैं, दिये जलते हैं

ये फिल्म देख रहे दोनों परिवारों का पसंदीदा गीत था और हो सकता है कि शायद कुछ पाठकों का भी हो.

तो खामोश मित्रों और मान्यवरों, ये दंतकथा अब इन परिवारों की समझदारी और दोस्ती को नमन कर यहीं विराम पाती है. हो सकता है फिर कुछ प्रेरणा पाकर आगे चले, पर अभी तो शुभकामनाएं और धन्यवाद !!!

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – 14 – मिलावटी दुनिया ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिलावटी दुनिया।)

☆ लघुकथा – मिलावटी दुनिया ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

बहू शारदा ने अमित से कहा – “तुम्हारी मां के पास तो काम धाम रहता नहीं है रात में भी चिल्लाती रहती हैं और सुबह सुबह 5:00 बजे से घंटी बजा के हम सब को उठा देती हैं।

9:00 यदि बैंक में ना पहुंचे तो मैनेजर से डांट खानी पड़ती है।

बहू शारदा ऑफिस जाते जाते चिल्लाकर कहती है-

कान खोल कर सुन लीजिए?

जैसे ही एग्जाम खत्म हो जाएगा मैं विक्की को हॉस्टल में डाल दूंगी इनको वृंदावन के आश्रम में भेज देना या कहीं और इनकी व्यवस्था के विषय में सोचो?

तभी कमला जी कहती है नाश्ता तो कर लो चाय बन गई है। 

वह गुस्से से अपने पति की ओर देखती है और कहती हैं आप ही मां बेटे नाश्ता करो!

उसके जाने के बाद कमला जी अपने बेटे से कहती है कि आखिर प्यार में कहां कमी रह गई?

घर की इज्जत का सवाल है उसे तो शर्म लिहाज नहीं है ?

तभी अमित के मोबाइल में फोन की घंटी बजती है अमित बाजार से कुछ मिठाइयां समोसे ले आओ शाम को मेरे ऑफिस के सहकर्मी घर में आ रहे हैं मां से कहना की कुछ अच्छा सा खाना बना लें।

अमित घर पर ही ऑनलाइन काम करता है वह अपनी मां से कहते हैं मां तुम चिंता मत करो मैं बाहर से कुछ लेकर आता हूं, तभी कमला अपने पति की तस्वीर देखकर कहती हैं, मुझे अपने ही घर में साथ घर में नहीं रख सकती?

चलो भाई  ठीक ही है वहां चैन से भगवान का भजन करूंगी।

मेरे भजन पूजन में खर्चा होता है और बहू को यही कष्ट है कि मैं दान करती हूं।

अब इनका मतलब निकल गया है, बच्चा बड़ा हो गया है।

आखिर भाई वह नौकरी जो करती है, वह घमंड में चूर है लेकिन भाई अवस्था तो सबकी आनी है।

पुश्तो में भी ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन आजकल के बच्चे सारे नए काम ही कर रहे हैं घोर कलयुग है मिलावटी सामान खाते-खाते रिश्ते भी जाने कब मिलावटी हो गए।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 – लघुकथा – कोरी साड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा कोरी साड़ी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 ☆

☆ लघुकथा 🌹 कोरी साड़ी 🌹

शहर, गाँव, महानगर सभी जगह चर्चा थी, तो बस सिर्फ महिला दिवस की। छोटी बड़ी कई संस्था, कई ग्रुप और हर विभाग में कार्यशील महिलाओं के लिए जैसे सभी ने बना रखा था महिला दिवस।

हो भी क्यों न महिला नारी – –

म – से ममता

ह – से हृदय

ल – से लगती

ना – से नारी

री- से रिश्ते

ममता हृदय से लगती सभी नाते रिश्ते वह कहलाती नारी या महिला मातृशक्ति।

ठीक ही है बिना नारी के सृष्टि की कल्पना करना भी एक बेकार की चीज होगी। शहर में घर-घर बाईयों का काम करके अपना जीवन, घर परिवार चलाना आम बात है।  जीवन का सब भार संभाले रहती है, चाहे उसका पति कितना भी नशे का आदी क्यों न हो, निकम्मा क्यों न हो या कुछ भी पैसा कमा कर नहीं दे रहा हो।

परंतु महिलाएं इसी में खुश रहकर बच्चों का पालन पोषण करती है और शायद संसार में सबसे सुखी दिखाई देती है।

बंगले में काम करते – करते अचानक माया को आवाज सुनाई दिया – माया मुझे एक जरूरी फंक्शन में जाना है जल्दी-जल्दी काम निपटा लो।

वहाँ क्या होगा मेम साहब? माया ने पूछा। मेमसाहब पलट कर बोली पूरे साल में एक दिन हम महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। गिफ्ट और शील्ड, सम्मान पत्र मिलते हैं।

अच्छा जी… कह कर माया अपने काम में लग गई। परंतु तुरंत ही पलट कर माया को देखते हुए मेमसाहब.. हंसने लगी वाह क्या बात है? आज तो तुम बिल्कुल नई कोरी साड़ी पहन कर आई हो।

माया ने हाथ की झाड़ू एक ओर सरकाकर कोरी साड़ी पर हाथ फेरते बोली.. मुझे भी मेरे मरद ने आज यह कोरी साड़ी दिया। सच कहूँ मेमसाहब मुझे तो पता ही नहीं।

यहाँ आने पर पता चला कि मेरा मरद मुझे कितना प्यार करता है। एकदम दुकान से चकाचक कोरी साड़ी लाकर दिया है। सच मेरी तो बहुत इज्जत करता है।

माया के चेहरे के रंग को देखकर उसके मेमसाहब के चेहरे का रंग उड़ गया। वह जाकर आईने के पास खड़ी हो गई। उसके बदन पर जो साड़ी थी। आज उसे वह कई जगह से दागदार दिखाई दे रही थी।

क्योंकि आज सुबह ही उसके पति ने चाय की भरी प्याली उसके शरीर पर फेंकते हुए कहा था… ले आना जाकर अपना महिला सशक्तिकरण का सम्मान। चाहे घर कैसा भी हो।

पीछे से माया की आवाज आ रही थी…सुना मेमसाहब वह मेरा मरद मेरे लिए सम्मान पत्र नहीं लाया, परंतु आज सिनेमा की दो टिकट लाया है।

हम आज सिनेमा देखने जाएंगे। अच्छा मैं जल्दी-जल्दी काम निपटा लेती हूँ। बाकी का काम  कल कर लेगी। मेरी कोरी साड़ी मेरे मोहल्ले वाले भी देखेंगे। मैं तो चुपचाप पहन कर आ गई थी। अब जाकर बताऊंगी कि आज महिला दिवस है।

मेमसाहब सोच में पड़ गई.. कैसा और कौन सा सम्मान मिलना चाहिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  फ्लाइंग किस)

☆ लघुकथा – फ्लाइंग किस ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

कवि खंडहर देखते-देखते थक गया तो एक पत्थर पर जा बैठा। पत्थर पर बैठते ही उसे एक कराह जैसी चीख़ सुनाई दी। उसने उठकर इधर-उधर देखा। कोई आसपास नहीं था। वह दूसरे एक पत्थर पर जा बैठा। ओह, फिर वैसी ही कराह! वह चौंक गया और उठकर एक तीसरे पत्थर पर आ गया। वहाँ बैठते ही फिर एक बार वही कराह! कवि डर गया और काँपती आवाज़ में चिल्ला उठा, “कौन है यहाँ?”

“डरो मत। तुम अवश्य ही कोई कलाकार हो। अब से पहले भी सैंकड़ों लोग इन पत्थरों पर बैठ चुके हैं, पर किसी को हमारी कराह नहीं सुनी। तुम कलाकार ही हो न!”

“मैं कवि हूँ। तुम कौन हो और दिखाई क्यों नहीं दे रहे हो?”

“हम दिखाई नहीं देते, सिर्फ़ सुनाई देते हैं। हम गीत हैं- स्वतंत्रता, समता और सद्भाव के गीत। हम कलाकारों के होठों पर रहा करते थे। एक ज़ालिम बादशाह ने कलाकारों को मार डाला। उनके होठों से बहते रक्त के साथ हम भी बहकर रेत में मिलकर लगभग निष्प्राण हो गये। हम साँस ले रहे हैं पर हममें प्राण नहीं हैं। हममें प्राण प्रतिष्ठा तब होगी जब कोई कलाकार हमें अपने होठों पर जगह देगा। क्या तुम हमें अपने होठों पर रहने दोगे कवि?”

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 136 ☆ लघुकथा – थाप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा थाप। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 136 ☆

☆ लघुकथा – थाप ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के काम निपटाती जा रही थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी -मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं हो रही थी, शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।‘कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे?’ मैंने उसकी अविवाहित बड़ी बहन से पूछा।‘अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है‘ कहकर उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि शादी लायक दो बड़ी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कहीं कुमुद की उदासी का यही तो कारण नहीं? लड़कियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? खैर छोड़ो,दूसरे के फटे में पैर क्यों  अड़ाना।

शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा था। महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – ‘जवान बहनें बिनब्याही घर में बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ–बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, पर कुमुद के लिए तो देखना चाहिए।‘  ढ़ोलक की थाप के साथ नाच –गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। ‘अरे कुमुद! अबकी तू उठ,बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोड़ी प्रैक्टिस कर ले’ –बुआ ने हँसते हुए कहा। ‘भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते,फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढ़ोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो। वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।

कुमुद की माँ अपनी ननदरानी से उलझ रही थीं– ‘बहन जी! आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने यह सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो-दो लड़कियों के हाथ पीले करने को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है यह बात,पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी’ —

ढ़ोलक की थाप और तालियों के बीच इन सब बातों से अनजान कुमुद मगन मन नाच रही थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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