हिन्दी साहित्य ☆ परसाई जन्मशती विशेष – ‘व्यंग्यम जबलपुर’ के ‘परसाई समग्र विमर्श’ में डॉ प्रेम जनमेजय ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ परसाई जन्मशती विशेष – व्यंग्यम जबलपुर के ‘परसाई समग्र विमर्श’ में डॉ प्रेम जनमेजय ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

परसाई जन्मशती पर व्यंग्यम, जबलपुर में ‘परसाई समग्र विमर्श‘ का आयोजन किया। इस विमर्श में प्रतिष्ठित व्यंग्यकार एवं व्यंग्य यात्रा पत्रिका के सम्पादक डॉ प्रेम जनमेजय ने परसाई जी पर अपने विचार प्रस्तुत किए।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिचर्चा # 194 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – आमने-सामने – भाग-2 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर श्री जयशंकर प्रसाद जी से किए गए सवाल जवाब का अंतिम भाग “आमने-सामने…”)

☆ परिचर्चा — हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – आमने-सामने – भाग-2 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

देश के जाने-माने व्यंग्यकारों ने विगत दिनों व्यंंग्यकार जय प्रकाश पाण्डेय से सवाल जबाव किए। विगत अंक में व्यंंग्यकार श्री मुकेश राठौर (खरगौन) एवं श्री प्रभाशंकर उपाध्याय (गंगानगर) जी के सवालों के जवाब आपसे साझा किये थे। आज आमने-सामने में प्रस्तुत है व्यंंग्यकार डॉ ललित लालित्य (दिल्ली), श्री आत्माराम भाटी (बीकानेर), श्री शशांक दुबे (मुंबई), श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल), श्री रमेश सैनी (जबलपुर), श्री अशोक व्यास (भोपाल) एवं डॉ अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) जी के सवालों के जवाब के अंश —

व्यंंग्यकार डॉ ललित लालित्य (दिल्ली)

प्रश्न – १ – पांडेय जी आप चुपचाप काम करने वाले व्यंग्यकार हैं जबकि आपके जूनियर कहाँ से कहाँ पहुँच गए ।

प्रश्न – २ – क्या आप मानते है कि व्यंग्यकार को ईमानदार होना चाहिए,चुगलखोर या ईर्ष्यालु नहीं ?

प्रश्न – ३ – क्या जीते जी व्यंग्यकार मंदिर बनवा कर पूजे जाएं यह कहाँ की भलमान्सियत है ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

उत्तर (१) – सर जी,लेखन में कोई जूनियर, सीनियर या वरिष्ठ, कनिष्ठ या गरिष्ठ नहीं होता, ऐसा हमारा मानना है। ईमानदारी और दिल से जितना कुछ संभव हो, वही संतुष्टि देता है। यदि कोई कहां से कहां पहुंच भी गया तो खुशी की बात है, उसकी प्रतिभा उसका अध्ययन उसे और ऊपर ले जाएगा।

उत्तर (२) – ईमानदार और दीन-दुखी जन जन के साथ खड़ा लेखक ही असली व्यंंग्यकार कहलाने का हकदार है, जैसे आप हर दिन आम आदमी की दैनिक जीवन में आने वाली विसंगतियों और पाखंड पर रोज लिखकर आम आदमी के साथ खड़े दिखते हो। समाज की बेहतरी के लिए व्यंंग्यकार की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए, ईमानदार प्रयास ही इतिहास में दर्ज होते हैं, फोटो और बोल्ड लेटर के नाम पानी के बुलबुले हैं। भाई,व्यंंग्यकार ही तो है जो जुगलखोरी और ईर्षालुओं के विरोध में लिखकर उनके चरित्र में बदलाव की कोशिश करता है।

उत्तर (३) – ऐसे लोगों को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए जो आत्म प्रचार और आत्ममुग्धता के नशे में जीते जी मंदिर बनवाने की कल्पना करते हैं। ऐसे लेखक के अंदर खोट होती है, वे अंदर से अपने प्रति भी ईमानदार नहीं होते,जो लोग ऐसे लोगों के मंदिर बनवाने में सहयोग देते हैं वे भी साहित्य के पापी कहलाने के हकदार हो सकते हैं।

व्यंंग्यकार श्री आत्माराम भाटी(बीकानेर)

जयप्रकाश जी ! बतौर साहित्यकार स्वयं लिखी रचना को सम्पादित करना आसान है या किसी दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से देखना ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय जी,स्वयं लिखी रचना को सबसे पहले सम्पादित करने और कांट-छांट करने का अधिकार, कायदे से घर की होम मिनिस्ट्री के पास होना चाहिए, फिर उसके बाद आवश्यक सुधार, संशोधन आदि स्वयं लेखक को करना चाहिए, दूसरे की रचना को सम्पादक की नजर से नहीं बल्कि सुझाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। पहले किसी लेखक की रचना जब संपादक के पास प्रकाशनार्थ जाती थी तो संपादक लेखक की अनुमति लेकर छुट-पुट सुधार कर लेता था, आजकल तो कुछ संपादक ऐसे हैं जो विचारधारा के गुलाम हैं,सत्ता के दलाल बनकर बैठे हैं, रचना मिलते ही सबसे पहले कांट-छांट कर रचना की हत्या करते हैं बिना लेखक की अनुमति लिए। फिर छापकर अच्छी रचना बनाने का श्रेय भी खुद ले लेते हैं।

व्यंंग्यकार श्री शशांक दुबे (मुंबई)

पाण्डेय जी आपको व्यंग्य के बहुत बड़े हस्ताक्षर *हरिशंकर परसाई जी* का सान्निध्य प्राप्त हुआ है। परसाई जी के दौर के व्यंग्यकारों के बौद्धिक व रचनात्मक स्तर में और आज के दौर के व्यंग्यकारों के स्तर में आप कोई अंतर देखते हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय भाई दुबे जी, वास्तविकता तो ये है कि जब परसाई जी बहुत सारा लिख चुके थे, उन्होंने 1956 में वसुधा पत्रिका निकाली, उसके दो साल बाद हमारा धरती पर आना हुआ। बड़ी देर बाद परसाई जी के सम्पर्क में आए 1979 से।पर हां 1979से 1995 तक उनका आत्मीय स्नेह और आशीर्वाद मिला।

परसाई और जोशी जी के दौर के व्यंंग्यकार त्याग, तपस्या,, संघर्ष की भट्टी में तपकर व्यंग्य लिखते थे,उनका जीवन यापन व्यंग्य लेखन से होता था, उनमें सूक्ष्म दृष्टि, गहरी संवेदना, विषय पर तगड़ी पकड़ के साथ निर्भीकता थी ।आज के समय के व्यंग्यकारों में इन बातों का अभाव है। परसाई जी, जोशी जी के दिमाग राडार के गुणों से युक्त थे,वे अपने समय के आगे का ब्लु प्रिंट तैयार कर लेते थे, उन्हें पुरस्कार और सम्मान की भूख नहीं थी। बड़े बड़े पुरस्कार उनके दरवाजे चल कर आते थे।आज के अधिकांश व्यंग्यकार अवसरवादी,सम्मान के भूखे, पकौड़े छाप जैसी छवि लेकर पाठक के सामने उपस्थित हैं और इनके अंदर बर्र के छत्ते को छेड़ने का दुस्साहस कहीं से नहीं दिखता।

व्यंंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल) 

आप लंबे समय तक बैंकिंग सेवाओं मे थे,बैंक हिंदी पत्रिका छापते हैं,आयोजन भी करते हैं। 

आप क्या सोचते हैं की व्यंग्य, साहित्य के विकास व संवर्धन में संस्थानों की बड़ी भूमिका हो सकती है ? होनी चाहिये ?

जय प्रकाश पाण्डेय –

विवेक भाई, हम लगातार लगभग 36साल बैंकिंग सेवा में रहे और शहर देहात, आदिवासी इलाकों के आलावा सभी स्थानों पर लोगों के सम्पर्क में रहे और अपने ओर से बेहतर सेवा देने के प्रयास किए।पर हर जगह पाया कि बेचारे दीन हीन गरीब,दलित,किसान, मजदूर,दुखी है पीड़ित हैं,उनकी बेहतरी के लिए लगातार सामाजिक सेवा बैंकिंग के मार्फत उनके सम्पर्क में रहे, गरीबी रेखा से नीचे के युवक युवतियों को रोजगार की तरफ मोड़ा, दूरदराज की ग़रीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत मदद की मार्गदर्शन दिया। प्रशासनिक कार्यालय में रहते हुए गृह पत्रिकाओं के मार्फत गरीबों के उन्नयन के लिए स्टाफ को उत्साहित किया, बिलासपुर से प्रतिबिंब पत्रिका, जबलपुर से नर्मदा पत्रिका, प्रशिक्षण संस्थान से प्रयास पत्रिका आदि के संपादन किए, और जो थोड़ा बहुत किया वह आदरणीय प्रभाशंकर उपाध्याय जी के उत्तर में देख सकते हैं। बैंक में रहते हुए साहित्य सेवा और सामाजिक सेवा से समाज को बेहतर बनाने की सोच में उन्नयन हुआ, दोगले चरित्र वाले पात्रों पर लिखकर उनकी सोच सुधारने का अवसर मिला। कोरोना काल में विपरीत परिस्थितियों के चलते बैंकों में अब समय खराब चल रहा है इसलिए आप जैसा सोच रहे हैं उसके अनुसार अभी परिस्थितियां विपरीत है।

व्यंंग्यकार श्री रमेश सैनी (जबलपुर) 

वर्तमान समय में सभी तरफ व्यंग्य पर बहुत गंभीरता से विमर्श हो रहा है,विशेषकर परसाई जी और आज लिखे जा रहे व्यंग्य के संदर्भ में। क्योंकि आज के पाठक और आलोचक इससे संतुष्ट नज़र नहीं हो रहे। एक व्यंग्य विमर्श गोष्ठी में आपके सवाल के उत्तर में यह बात उभर कर आई थी कि व्यंग्य में खतपरवार ऊग आई है,जो फसल को नष्ट कर रही है। 

उक्त टिप्पणी को केंद्र में रखकर व्यंग्य में खतपरवार और अराजक परिदृश्य पर आप क्या सोचते हैं ? 

इसकी सफाई कैसे संभव हैं?

जय प्रकाश पाण्डेय –

आदरणीय सैनी जी  व्यंग्य विधा के उन्नयन और संवर्धन के यज्ञ में आपका योगदान महत्वपूर्ण है,अब व्यंग्य विमर्श के आयोजन के बिना आपका खाना नहीं पचता,हम सब आप से और सबसे ही बहुत कुछ सीख रहे हैं। खरपतवार हमारे अपने ही कुछ लोग पैदा कर रहे हैं इसलिए व्यंग्य की लान में ऊग आयी जंगली घास को आप जैसे पुराने व्यंग्यकारों को निंदाई का कार्य करना पड़ेगा और जो लोग खरपतवार में खाद पानी दे रहे हैं उन्हें चौगड्डे में लाकर खड़ा करना पड़ेगा।

व्यंंग्यकार श्री अशोक व्यास (भोपाल) 

मेरा प्रश्न है कि आजकल जो व्यंग्य पढ़ने में आ रहे हैं उसमें  साहियकारों  पर जिसमें अधिकतर व्यंग्यकारों पर व्यंग्य किया जा रहा है । क्या विसंगतियों को अनदेखा करके दूसरे के नाम पर अपने आप को व्यंग्य का पात्र बनाने में खुजाने जैसा मजा ले रहे हैं हम ?  

जय प्रकाश पाण्डेय –

भाई साहब,सही पकड़े हैं।हम आसपास बिखरी विसंगतियों, विद्रूपताओं, अंधविश्वास को अनदेखा कर अपने आसपास के तथाकथित नकली व्यंंग्यकारों को गांव की भौजाई बनाकर खुजाने का मजा ले रहे हैं, जबकि हम सबको पता है कि इनकी मोटी खाल खुजाने से कुछ होगा नहीं,वे नाम और फोटो के लिए व्यंग्य का सहारा ले रहे हैं।

व्यंंग्यकार डॉ अलका अग्रवाल सिगतिया (मुंबई) 

आपने परसाईं जी का साक्षात्कार  भी किया है।

उस साक्षात्कार  के अनुभव क्या रहे?

आज यह कहा जा रहा है,व्यंग्य कार खुल कर नहीं  लिख रहे,अक्सर व्यंग्य  चर्चाओं में  बहस छोड़ रही है ।

कितने सहमत  हैं, आप?

क्या अभिव्यक्ति  के खतरे पहले नहीं  थे?

आपके लेखन में आप इसे कितना  उठाते हैं, या स्टेट बैंक  के महाप्रबंधक  पद रहकर उठाए?

परसाई जी से आप अपने लेखन  को लेकर चर्चा  करते थे?

जय प्रकाश पाण्डेय –

डॉ अलका जी की कहानियां हम 1980 से पढ़ रहे हैं, कहानियां मासिक चयन (भोपाल) पत्रिका में हम दोनों अक्सर एक साथ छपा करते थे। उन्हें परसाई जी का आत्मीय आशीर्वाद मिलता रहा है। 

वे परसाई जी के बारे में सब जानतीं हैं। पर चूंकि प्रश्र किया है इसलिए थोड़ा सा लिखने की हिम्मत बनी है।

 1- सुंदर नाक नक्श, चौड़े ललाट,साफ रंग के विराट व्यक्तित्व परसाई जी से हमने इलाहाबाद की पत्रिका कथ्य रूप के लिए इंटरव्यू लिया था। हमने उनकी रचनाओं को पढ़कर महसूस किया कि उनकी लेखनी स्याही से नहीं खून से लेख लिखती थी, व्यंग्य करती थी और हृदय भेदकर रख देती थी। परसाई जी से हमारे घरेलू तालुकात थे, ऐसे विराट व्यक्तित्व से इंटरव्यू लेना बड़े साहस का काम था। इंटरव्यू के पहले परसाई जी कुछ इस तरह प्रगट हुए जैसे अर्जुन के सामने कृष्ण ने अपना विराट रूप दिखाया था। उनके विराट रूप और आभामंडल को देखकर हमारी चड्डी गीली हो गई, पसीना पसीना हो गये क्योंकि उनके सामने बैठकर उनसे आंख मिलाकर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हुई,तो टेपरिकॉर्डर छोटा था हमने बहाना बनाया कि टेपरिकॉर्डर पुराना है आवाज ठीक से रिकार्ड नहीं हो रही और हम उनके सिर के तरफ बैठकर सवाल पूछे। परसाई जी पलंग पर अधलेटे जिस ऊर्जा से बोल रहे थे,हम दंग रह गए थे।

2- हमारा सौभाग्य था कि हमारी पहली व्यंग्य रचना परसाई ने पढ़ी और पढ़कर शाबाशी दी, और लगातार लिखते रहने की प्रेरणा दी।

3- आजकल बहुत से व्यंंग्यकार खुल कर नहीं लिख रहे हैं, इस बारे में आदरणीय शशांक दुबे के उत्तर में स्पष्ट कर दिया गया है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिचर्चा # 193 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – आमने-सामने – भाग-1 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर श्री जयशंकर प्रसाद जी से किए गए सवाल जवाब दो भागों में परिचर्चा – “आमने-सामने…”)

☆ परिचर्चा — हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – आमने-सामने – भाग-1 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

देश के जाने-माने व्यंग्यकारों ने विगत दिनों व्यंंग्यकार जय प्रकाश पाण्डेय से सवाल जबाव किए, आमने-सामने में प्रस्तुत हैं, आनलाइन बातचीत के अंश 

व्यंंग्यकार श्री मुकेश राठौर (खरगौन)

प्रश्न – १ – आप परसाई जी की नगरी से आते है| परसाई जी ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में तत्कालीन राजनेताओं, राजनैतिक दलों और जातिसूचक शब्दों का भरपूर उपयोग किया | क्या आज व्यंग्यलेखक के लिए यह सम्भव है  या फ़िर कोई बीच का रास्ता है?ऐसा तब जबकि रचना की डिमांड हो सीधे-सीधे किसी राजनैतिक दल,राजनेता या जाति विशेष के नामोल्लेख की।

प्रश्न- २ – कथा के माध्यम से किसी सामाजिक,राजनैतिक विसंगति की परतें उधेड़ना |बग़ैर पंच, विट, ह्यूमर के ऐसी रचना कथा मानी जायेगी या व्यंग्य?

जय प्रकाश पाण्डेय –

उत्तर (१) – मुकेश भाई, व्यंग्य लेखन जोखिम भरा गंभीर कर्म है, व्यंग्य बाबा कहता है जो घर फूंके आपनो, चले हमारे संग। व्यंग्य लेखन में सुविधाजनक रास्तों की कल्पना भी नहीं करना चाहिए, लेखक के लिखने के पीछे समाज की बेहतरी का उद्देश्य रहता है। परसाई जी जन-जीवन के संघर्ष से जुड़े रहे,लेखन से जीवन भर पेट पालते रहे,सच सच लिखकर टांग तुड़वाई,पर समझौते नहीं किए, बिलकुल डरे नहीं। पिटने के बाद उन्हें खूब लोकप्रियता मिली, उनकी व्यंग्य लिखने की दृष्टि और बढ़ी।लेखन के चक्कर में अनेक नौकरी गंवाई। व्यंंग्य तो उन्हीं पर किया जाएगा जो समाज में झूठ, पाखंड,अन्याय, भ्रष्टाचार फैलाते हैं, व्यंग्यकार तटस्थ तो नहीं रहेगा न, जो जीवन से तटस्थ है वह व्यंंग्यकार नहीं ‘जोकर’ है। यदि आज का व्यंग्य लेखक तत्कालीन भ्रष्ट अफसर या नेता या दल का नाम लेने में डरता है तो वह अपने साथ अन्याय करता है। आपने अपने सवाल में अन्य कोई बीच के रास्ते निकाले जाने की बात की है, तो उसके लिए मुकेश भाई ऐसा है कि यदि ज्यादा डर लग रहा है तो उस अफसर या नेता की प्रवृत्ति से मिलते-जुलते प्रतीक या बिम्बों का सहारा लीजिए, ताकि पाठक को पढ़ते समय समझ आ जाए। जैसे आप अपने व्यंग्य में सफेद दाढ़ी वाला पात्र लाते हैं तो पाठक को अच्छे दिन भी याद आ सकते हैं।पर आपके कहने का ढंग ऐसा हो,कि ऐसी स्थिति न आया…

रहिमन जिव्हा बावरी, कह गई सरग-पताल।

आप तो कह भीतर गई, जूती खात कपाल।

उत्तर (२) – मुकेश जी, व्यंग्य वस्तुत:कथन की प्रकृति है कथ्य की नहीं।कथ्य तो हर रचना की आकृति देने के लिए आ जाता है। आपके प्रश्न के अनुसार यदि कथा के ऊपर कथन की प्रकृति मंडराएंगी तो वह व्यंग्यात्मक कथा का रुप ले लेगी।

व्यंंग्यकारश्री प्रभाशंकर उपाध्याय (गंगानगर)

आपने अभियांत्रिकी में स्नातकोत्तर किया। बैंक की अफसरी की। आपकी अभिरूचि व्यंग्य लेखन, काव्य और नाट्य में है। आपको निरंतर ‘ई-अभिव्यक्ति’ में पढता रहता हूँ। आपके संकलन- डांस इंडिया डांस के आवरण पृष्ठ पर एक बिजूका खेत में खड़ा हुआ चित्रित है। कोने में एक किसान अग्नि पर कुछ पका रहा है। इसे देखकर रंगमंच की प्रतीति होती है।  इसके बरबक्स, मेरी जिज्ञासा ‘चुटका’ के बारे में जानने की है, तनिक बताइए ?

जय प्रकाश पाण्डेय – पंडित प्रभाशंकर उपाध्याय जी ने अपने प्रश्न के माध्यम से पन्द्रह साल पहले का जूनूनी प्रसंग छेड़ दिया,प्रश्न के उत्तर की गहराई में जाने के लिए आपको चुटका परमाणु बिजली घर की लम्बी दास्तान पढ़ना पड़ेगी। जो इस प्रकार है…

पन्द्रह साल पहले मैं स्टेट बैंक की नारायणगंज (जिला – मण्डला) म. प्र. में शाखा प्रबंधक था। बैंक रिकवरी के सिलसिले में बियाबान जंगलों के बीच बसे चुटका गांव में जाना हुआ था। आजीवन कुंआरी कलकल बहती नर्मदा के किनारे बसे छोटे से गांव चुटका में फैली गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता देखकर मन द्रवित हुआ । चुटका गांव की आंगन में रोटी सेंकती गरीब छोटी सी बालिका ने ऐसी प्रेरणा दी कि हमारे दिल दिमाग पर चुटका के लिए कुछ करने का भूत सवार हो गया। उस गरीब बेटी के एक वाक्य ने चुटका परमाणु बिजली घर बनाने के द्वार खोल दिए।

बैंक वसूली प्रयास ने इस करुण कहानी को जन्म दिया…

आफिस से रोज पत्र मिल रहे थे,… रिकवरी हेतु भारी भरकम टार्गेट दिया गया था । कहते है – ” वसूली केम्प गाँव -गाँव में लगाएं, तहसीलदार के दस्तखत वाला वसूली नोटिस भेजें… कुर्की करवाएं… और दिन -रात वसूली हेतु गाँव-गाँव के चक्कर लगाएं,… हर वीक वसूली के फिगर भेजें,… और ‘रिकवरी -प्रयास ‘ के नित -नए तरीके आजमाएँ…। बड़े साहब टूर में जब-जब आते है… तो कहते है – ”तुम्हारे एरिया में २६ गाँव है, और रिकवरी फिगर २६ रूपये भी नहीं है, धमकी जैसे देते है… कुछ नहीं सुनते है, कहते है – कि पूरे देश में सूखा है … पूरे देश में ओले पड़े है… पूरे देश में गरीबी है… हर जगह बीमारी है पर हर तरफ से वसूली के अच्छे आंकड़े मिल रहे है और आप बहानेबाजी के आंकड़े पस्तुत कर रहे है, कह रहे है की आदिवासी इलाका है गरीबी खूब है… कुल मिलाकर आप लगता है की प्रयास ही नहीं कर रहे है… आखें तरेर कर न जाने क्या -क्या धमकी…।

तो उसको समझ में यही आया की वसूली हेतु बहुत प्रेशर है और अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा… सो उसने चपरासी से वसूली से संबधित सभी रजिस्टर निकलवाये,  … नोटिस बनवाये… कोटवारों और सरपंचों की बैठक बुलाकर बैंक की चिंता बताई । बैठक में शहर से मग्वाया हुआ रसीला -मीठा, कुरकुरे नमकीन, ‘फास्ट-फ़ूड’ आदि का भरपूर इंतजाम करवाया ताकि सरपंच एवम कोटवार खुश हो जाएँ … बैठक में उसने निवेदन किया की अपने इलाका का रिकवरी का फिगर बहुत ख़राब है कृपया मदद करवाएं , बैठक में दो पार्टी के सरपंच थे …आपसी -बहस ….थोड़ी खुचड़ और विरोध तो होना ही था, सभी का कहना था की पूरे २६ गाँव जंगलों के पथरीले इलाके के आदिवासी गरीब गाँव है, घर -घर में गरीबी पसरी है फसलों को ओलों की मर पडी है… मलेरिया बुखार ने गाँव-गाँव में डेरा दल रखा है,.. जान बचाने के चक्कर में सब पैसे डॉक्टर और दवाई की दुकान में जा रहा है …ऐसे में किसान मजदूर कहाँ से पैसे लायें… चुनाव भी आस पास नहीं है कि चुनाव के बहाने इधर-उधर से पैसा मिले… सब ने खाया पिया और ”जय राम जी की ” कह के चल दिए और हम देखते ही रह गए…।

दूसरे दिन उसने सोचा -सबने डट के खाया पिया है तो खाये पिए का कुछ तो असर होगा ,थोड़ी बहुत वसूली तो आयेगी… यदि हर गाँव से एक आदमी भी हर वीक आया तो महीने भर में करीब १०४ लोगों से वसूली तो आयेगी ऐसा सोचते हुए वह रोमांचित हो गया… उसने अपने आपको शाबासी दी,और उत्साहित होकर उसने मोटर सायकिल निकाली और ”रिकवरी प्रयास ” हेतु वह चल पड़ा गाँव की ओर… जंगल के कंकड़ पत्थरों से टकराती… घाट-घाट कूदती फांदती… टेडी-मेढी पगडंडियों में भूलती – भटकती मोटर साईकिल किसी तरह पहुची एक गाँव तक…।

 सोचा कोई जाना पहचाना चेहरा दिखेगा तो रोब मारते हुए ” रिकवरी धमकी ” दे मारूंगा , सो मोटर साईकिल रोक कर वह थोडा देर खड़ा रहा , फिर गली के ओर-छोर तक चक्कर लगाया… वसूली रजिस्टर निकलकर नाम पड़े… कुछ बुदबुदाया… उसे साहब की याद आयी… फिर गरीबी को उसने गालियाँ बकी… पलट कर फिर इधर-उधर देखा… कोई नहीं दिखा । गाँव की गलियों में अजीब तरह का सन्नाटा और डरावनी खामोशी फैली पडी थी , कोई दूर दूर तक नहीं दिख रहा था।

कोई नहीं दिखा तो सामने वाले घर में खांसते – खखारते हुए वह घुस गया ,अन्दर जा कर उसने देखा… दस-बारह साल की लडकी आँगन के चूल्हे में रोटी पका रही है , रोटी पकाते निरीह… अनगढ़ हाथ और अधपकी रोटी पर नजर पड़ते ही उसने ” धमकी ” स्टाइल में लडकी को दम दी… ऐ लडकी ! तुमने रोटी तवे पर एक ही तरफ सेंकी है , कच्ची रह जायेगी? … लडकी के हाथ रुक गए… पलट कर देखा , सहमी सहमी सी बोल उठी… बाबूजी रोटी दोनों तरफ सेंकती तो जल्दी पक जायेगी और जल्दी पक जायेगी तो… जल्दी पच जायेगी… फिर और आटा कहाँ से पाएंगे…?

वह अपराध बोध से भर गया… ऑंखें नम होती देख उसने लडकी के हाथ में आटा खरीदने के लिए १००/ का नोट पकडाया…और मोटर सायकिल चालू कर वापस बैंक की तरफ चल पड़ा…

रास्ते में नर्मदा के किनारे अलग अलग साइज के गढ्ढे खुदे दिखे तो जिज्ञासा हुई कि नर्मदा के किनारे ये गढ्ढे क्यों  ? गांव के एक बुजुर्ग ने बताया कि सन् 1983 में यहां एक उड़न खटोले से चार-पांच लोग उतरे थे गढ्ढे खुदवाये और गढ्ढों के भीतर से पानी मिट्टी और थोड़े पत्थर ले गए थे और जाते-जाते कह गए थे कि यहां आगे चलकर बिजली घर बनेगा। बात आयी और गई और सन् 2006 तक कुछ नहीं हुआ हमने शाखा लौटकर इन्टरनेट पर बहुत खोज की चुटका परमाणु बिजली घर के बारे में पर सन् 2005 तक कुछ जानकारी नहीं मिली। चुटका के लिए कुछ करने का हमारे अंदर जुनून सवार हो गया था जिला कार्यालय से छुटपुट जानकारी के आधार पर हमने सम्पादक के नाम पत्र लिखे जो हिन्दुस्तान टाइम्स, एमपी क्रोनिकल, नवभारत आदि में छपे। इन्टरनेट पर पत्र डाला सबने देखा सबसे ज्यादा पढ़ा गया… लोग चौकन्ने हुए। 

हमने नारायणगंज में “चुटका जागृति मंच” का निर्माण किया और इस नाम से इंटरनेट पर ब्लॉग बनाकर चुटका में बिजली घर बनाए जाने की मांग उठाई। चालीस गांव के लोगों से ऊर्जा विभाग को पोस्ट कार्ड लिख लिख भिजवाए। तीन हजार स्टिकर छपवाकर बसों ट्रेनों और सभी जगह के सार्वजनिक स्थलों पर लगवाए। चुटका में परमाणु घर बनाने की मांग सबंधी बच्चों की प्रभात फेरी लगवायी, म. प्र. के मुख्य मंत्री के नाम पंजीकृत डाक से पत्र भेजे। पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखे। इस प्रकार पांच साल ये विभिन्न प्रकार के अभियान चलाये गये। 

जबलपुर विश्वविद्यालय के एक सेमिनार में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ काकोड़कर आये तो चुटका जागृति मंच की ओर से उन्हें ज्ञापन सौंपा और व्यक्तिगत चर्चा की उन्होंने आश्वासन दिया तब उम्मीदें बढ़ीं। डॉ काकोड़कर ने बताया कि वे भी मध्यप्रदेश के गांव के निवासी हैं और इस योजना का पता कर कोशिश करेंगे कि उनके रिटायर होने के पहले बिजलीघर बनाने की सरकार घोषणा कर दे और वही हुआ लगातार हमारे प्रयास रंग लाये और मध्य भारत के प्रथम परमाणु बिजली घर को चुटका में बनाए जाने की घोषणा हुई।

मन में गुबार बनके उठा जुनून हवा में कुलांचे भर गया। सच्चे मन से किए गए प्रयासों को निश्चित सफलता मिलती है इसका ज्ञान हुआ। बाद में भले राजनैतिक पार्टियों के जनप्रतिनिधियों ने अपने अपने तरीके से श्रेय लेने की पब्लिसिटी करवाई पर ये भी शतप्रतिशत सही है कि जब इस अभियान का श्रीगणेश किया गया था तो इस योजना की जानकारी जिले के किसी भी जनप्रतिनिधि को नहीं थी और जब हमने ये अभियान चलाया था तो ये लोग हंसी उड़ा रहे थे। पर चुटका के आंगन में कच्ची रोटी सेंकती वो सात-आठ साल की गरीब बेटी ने अपने एक वाक्य के उत्तर से ऐसी पीड़ा छोड़ दी थी कि जुनून बनकर चुटका में परमाणु बिजली घर बनने का रास्ता प्रशस्त हुआ। वह चुटका जहां बिजली के तार नहीं पहुंचे थे आवागमन के कोई साधन नहीं थे, जहां कोई प्राण छोड़ देता था तो कफन का टुकड़ा लेने तीस मील पैदल जाना पड़ता था। मंथर गति से चुटका में परमाणु बिजली घर बनाने का कार्य चल रहा है। प्रत्येक गरीब के घर से एक व्यक्ति को रोजगार देने कहा गया है जमीनों के उचित दाम गरीबों के देने के वादे हुए हैं,जमीन के कंपनसेशन देने की कार्यवाही हो गई है। चुटका से बनी बिजली से मध्य भारत के जगमगाने की उम्मीदें पूरी होने की तैयारियां चल रहीं हैं।

धन्यवाद उपाध्याय जी,इस बहाने आपने पुरानी यादों को हमसे संस्मरण रूप में लिखवा लिया। आपकी गहराई से पड़ताल और अपडेट जानकारियों के लिए हम आश्चर्य चकित हैं।आदरणीय उपाध्याय जी आपके पास सूक्ष्म दृष्टि और तिरछी नजर है,आप चीजों को सही नाम से बुलाते हैं एवं सही ढंग से पकड़ते हैं। आपने अपने विस्तृत फलक लिए प्रश्न में बहुत सी चीजें सही पकड़ी है, बैंक की नौकरी करते हुए हमने पच्चीसों साल सामाजिक सेवा कार्यों से जुड़े रहे। लम्बे समय तक एसबीआई आरसेटी के डायरेक्टर के रूप में कार्य करते हुए नक्सल प्रभावित पिछड़े आदिवासी जिले के सुदूर अंचलों के ग़रीबी रेखा से नीचे के करीब 3500-4000 युवक युवतियों का हार्ड स्किल डेवलपमेंट एवं साफ्ट स्किल डेवलपमेंट करके उन्हें रोजगार से लगाकर एक अच्छे नागरिक बनने में सहयोग किया।देश की पहली माइक्रो फाइनेंस ब्रांच के मेनेजर रहते हुए म.प्र.के अनेक जिलों की 90 हजार गरीब महिलाओं को स्वसहायता समूहों के मार्फत वित्त पोषित कर महिला सशक्तिकरण के लिए कार्य किया, ऐसे अनेक उल्लेखनीय कार्य की लंबी लिस्ट है,पर आपने चूंकि अपने प्रश्न के मार्फत छेड़ दिया इसीलिए थोड़ा सा लिखना पड़ा। अन्य भाई इसको पढ़कर आत्मप्रशंसा न मानें, ऐसा निवेदन है।

क्रमशः… शेष भाग अगले सोमवार केअंक में…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ हर साहित्यिक आंदोलन के साथ समाज का परिवर्तन सामने आता है : रचना यादव ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ हर साहित्यिक आंदोलन के साथ समाज का परिवर्तन सामने आता है : रचना यादव ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

फिर चाहे वह नयी कहानी आंदोलन हो या कोई और ! यह कहना है प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव व मन्नू भंडारी की बेटी रचना यादव का ! उन्होंने कहा कि साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब है और समय के साथ समाज भी बदलता है। समय के बदलाव के साथ नयी दृष्टि और नयी दिशा भी बनती है।

रचना यादव का जन्म कोलकाता में हुआ और इनकी पढ़ाई लिखाई दिल्ली में हुई। दिल्ली के तीसहजारी स्थित क्वीन मेरी में स्कूलिंग तो हिंदू काॅलेज से ग्रेजुएशन। इसके बाद इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन, नयी दिल्ली से विज्ञापन व जनसम्पर्क में डिप्लोमा।

– आप तो क्लासिकल डांसर हैं तो वह कहां और कितना सीखा?

– प्रयाग विश्वविद्यालय से छह साल का प्रभाकर सर्टिफिकेट। वैसे रवि जैन, अदिति मंगलदास और पंडित जैकिशन महाराज से बाकायदा कत्थक सीखा।

– स्कूल काॅलेज में किन गतिविधियों में रूचि रही आपकी?

– डांस, भाषण के साथ साथ हैड गर्ल भी रही। स्पोर्ट्स में बास्केटबॉल और एथलीट भी रही। काॅलेज कलर भी मिला।

– कब पता चला कि इतने बड़े सेलिब्रिटी मम्मी पापा की बेटी हो?

– बाहर वालों से धीरे धीरे ! एक बार काॅलेज में एडमिशन लेने बस में जा रही थी। बाॅयोडाटा था जो पारदर्शी कवर में था तो एक ने पढ़ लिये मम्मी- पापा के नाम और सभी मुझे देखने लगे हैरान होकर ! उनको जब अवार्ड्स मिलते थे तब पता चलता था।

– ये बताइये कि पापा राजेंद्र यादव के क्या क्या गुण याद हैं?

– पापा अपने काम व लेखन को लेकर बहुत ही समर्पित थे। जो ठान लिया वह किया, फिर किसी की परवाह कम ही करते थे। बड़े फैसले लेते समय उन्हें खुद पर विश्वास होता था।

– और मम्मी मन्नू भंडारी के बारे में?

– मम्मी उसूलों की बहुत पक्की थीं। बहुत पारदर्शी , ईमानदार और कुछ भी गलत बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं। अंदर व बाहर से एक।

– मम्मी पापा से क्या ग्रहण किया?

– पापा से अनुशासन और समर्पण। देर से फैसला किया था क्लासिकल डांसर बनने का। पहले थोड़ी डांवाडोल सी थी , फिर पापा की सीख से कि करना है तो करना है और कर लिया ! बन गयी क्लासिकल डांसर। मम्मी से सीखा दूसरों के दुख को समझना। वादे की पक्की रहना !

– अब बताइये कि पापा राजेंद्र यादव के साहित्य में से क्या पसंद है?

– शह और मात व प्रेत बोलते हैं। जिस उम्र में ये रचनायें लिखीं वह भी महत्वपूर्ण है।

– और मम्मी के साहित्य में से क्या पसंद है आपकी?

– महाभोज और आपका बंटी उपन्यास। महाभोज में जिस तरह से राजनीति की परतें उधेड़ी हैं , वह हैरान करती हैं। मेरे ख्याल से इससे पहले यह उनके लेखन का स्टाइल नहीं था।

– और मन्नू भंडारी की फिल्मों और धारावाहिकों में कौन सा पसंद?

– रजनी धारावाहिक जिससे वे घर घर तक पहुंच गयीं थीं।

– आपको कोई पुरस्कार मिला?

– क्लासिकल डांस में और स्पोर्ट्स में।

– परिवार के बारे में?

– पति दिनेश खन्ना फोटोग्राफर। दो बेटियां – मायरा योगा टीचर तो माही पोस्ट ग्रेजुएट।

– आप हंस के अतिरिक्त क्या करती हैं?

– गुरुग्राम में रचना यादव कत्थक स्टुडियो चलाती हूं और कोरियोग्राफर भी।

– पापा के बाद हंस के प्रकाशन की जिम्मेदारी कैसी लगी?

– हंस का हिस्सा बन कर अच्छा लगा। सोचती हूं यदि पापा के समय से ही जुड़ी होती तो और भी कुछ सीखने को मिलता और बेहतर कर पाती। हंस की टीम बहुत अच्छी है और पापा के समय की है।

– हंस की ओर से कौन कौन से समारोह किये जाते हैं?

– पहला 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती। दूसरा 28 अगस्त पापा के जन्मदिन पर कथा सम्मान। तीसरा 28 अक्तूबर को साहित्य समारोह।

– कथा आंदोलनों का क्या योगदान?

– हर साहित्यिक आंदोलन के साथ परिवर्तन आता है। साहित्य समाज का प्रतिबिंब ही तो है और इसमे समाज का बदलाव दिखता है। इसके साथ साथ साहित्य का बदलाव भी दिखता है।

– इन दिनों किन रचनाकारों को पढ़ रही हैं?

– अलका सरावगी पसंद है। अनिल यादव की कहानियां खूब हैं और गीतांजलिश्री का  बुकर पुरस्कार प्राप्त उपन्यास ‘रेत की समाधि’ पढ़ रही हूं।

हमारी शुभकामनाएं रचना यादव को। आप इस नम्बर पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं – 011- 41050047

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ साहित्य अकादमी उपाध्यक्ष प्रो. कुमुद शर्मा से बातचीत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ साक्षात्कार ☆ साहित्य अकादमी उपाध्यक्ष प्रो. कुमुद शर्मा से बातचीत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

सभी भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने का रहेगा प्रयास : प्रो. कुमुद शर्मा

साहित्य अकादमी की नवनिर्वाचित उपाध्यक्ष प्रो कुमुद शर्मा का जन्म मेरठ में हुआ लेकिन पालन पोषण व एम ए, पीएचडी तक की शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई । एम.ए में सर्वोच्च अंकों का रिकॉर्ड बनाकर तीन स्वर्ण पदक प्राप्त किए। मीडिया में डी लिट रांची विश्वविद्यालय से की । आईएएस बनने का संकल्प था पर विवाह के बाद अध्यापन का विकल्प चुना। विवाह से पूर्व एम ए करते ही इलाहाबाद के एक महाविद्यालय में तीन महीने पढ़ाया । यू जी सी फैलोशिप प्राप्त होने पर डॉ जगदीश गुप्त के निर्देशन में ‘ नयी कविता में राष्ट्रीय चेतना के स्वरूप विकास ‘ विषय पर पर पीएचडी की उपाधि । विवाह के उपरांत दिल्ली आते ही जीसेस एंड मेरी कॉलेज में अध्यापन शुरु किया । फिर दिल्ली के एस पी एम कॉलेज, आई पी कॉलेज, शिवाजी कॉलेज में पढ़ाने के बाद के बाद सन् 2004 से दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हैं। इस समय हिंदी विभाग की अध्यक्ष एवं इसी विश्वविद्यालय में हिंदी माध्यम कार्यालय निदेशालय के कार्यवाहक निदेशक का दायित्व भी सँभाल रही हैं ।

लेखन कब शुरू किया ?

उन्नीस साल की उम्र में । इलाहाबाद के समाचार पत्र ‘अमृत प्रभात’ में पहला लेख अनुशासनहीनता की जड़ें कहां है’ प्रकाशित हुआ । फिर आकाशवाणी की ओर भी मुड़ी । ड्रामा ऑडिशन क्लीयर किया और रेडियो नाटक किये ।

अमृत प्रभात से आगे कहां कहां ?

जनसत्ता , सारिका , नवभारत टाइम्स , दैनिक जागरण ,कादम्बिनी, वामा , गगनाचंल, इन्द्रप्रस्थ भारती, बहुवचन जैसी अनेक पत्र -पत्रिकाओं में लेखन। साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य अमृत’ की संयुक्त संपादक रही । इस पत्रिका के संपादक थे पं विद्यानिवास मिश्र । इसी पत्रिका में स्तम्भ लिखा- हिंदी के निर्माता ! जिसे बाद में भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया जिसके चार संस्करण आ चुके हैं । दिल्ली में 1987 से दूरदर्शन से जुड़ी । पत्रिका, कला परिक्रमा , मेरी बात जैसे कार्यक्रमों की प्रस्तुति ही । फिर प्रसार भारती बोर्ड के अन्तर्गत लिटरेरी कोर कमेटी की सदस्य के रुप में साहित्यिक कृतियों पर बनी फ़िल्मों के निर्माण से जुड़ी ।

आप प्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की बहू हैं । क्या स्मृतियां हैं आपकी ?

बहुत कुछ सीखने लायक़ था उनके व्यक्तित्व में। बाबू जी स्थितप्रज्ञ व्यक्ति थे। किसी के लिए भी कोई दुर्भावना नहीं । किसी से ईर्ष्या द्वेष नहीं । सुख दुख में सम भाव से जीने वाले । लेखन उनकी प्राथमिकता थी । भौतिक संसाधनों को लेकर कोई महत्वाकांक्षा नहीं । मैंने जीवन में उन्हें कभी भी क्रोध करते हुए नहीं देखा ।

परिवार के बारे में बताइए ।

दो बेटे हैं- बड़ा बेटा अमेरिका में माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी में डायरेक्टर है। बहू बैंक ऑफ अमेरिका में है। दूसरा बेटा फिल्म जगत में । पति अरूण वर्धन ‘टाइम्स ऑफ इन्डिया’ के ‘नवभारत टाइम्स’ अख़बार में विशेष संवाददाता थे। कोरोना की दूसरी लहर में सन् 2021 में हमने उन्हें खो दिया ।

साहित्य अकादमी से नाता ?

पहले कार्यक्रमों में व्याख्यान देने के लिये जाती थी । साहित्य अकादमी द्वारा पंडित विद्यानिवास मिश्र पर बनी फिल्म लिखी । साहित्य अकादमी की भारतीय साहित्य के निर्माता श्रंखला के अन्तर्गत अम्बिका प्रसाद वाजपेयी पर पुस्तक लिखी । यहॉं से निकलनेवाली पत्रिका में भी लिखा ।

पहले भी कोई चुनाव लड़ा आपने साहित्य अकादमी का ?

पहली बार ही चुनाव लड़ा और उपाध्यक्ष चुनी गयी ।

कितनी किताबें हैं आपकी ?

तेरह किताबें हैं । आलोचना , स्त्री विमर्श और मीडिया पर केंद्रित ।

उल्लेखनीय सम्मान /पुरस्कार ?

केंद्रीय सूचना व प्रसारण मंत्रालय से दो बार भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार । पहला ‘स्त्री घोष’ कृति पर । दूसरा समाचार बाज़ार की नैतिकता पुस्तक पर । उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से ‘साहित्य भूषण’ सम्मान। दिल्ली हिंदी साहित्य सम्मेलन से साहित्य श्री सम्मान बाबू बालमुकुंद गुप्त सम्मान। इनके अतिरिक्त अनेक सम्मान/पुरस्कार ।

उपाध्यक्ष बन कर क्या करने का सपना ?

अपने देश के साथ विविध भारतीय भाषाओं के रचनाकारों के भावों का रिश्ता एक जैसा ही रहा । आज भी सामजिक , मानवीय और राष्ट्रीय सरोकारों को अपनी रचनाधर्मिता का अभिन्न हिस्सा मानने वाले विविध भारतीय भाषाओं के रचनाकारों की चिँताए एक जैसी है, उनके सरोकार एक जैसे हैं । उनकी निष्ठाएँ एक जैसी हैं। भाषा के ज़रिए मनुष्यत्व को बचा लेने की ज़िद भी एक जैसी है । भाषा और साहित्य दोनों का प्रयोजन सबको एक स्वस्थ साझेदारी के लिए तैयार करना होना चाहिए । साहित्य अकादमी का प्रयास रहेगा सभी भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की सोच में सांस्कृतिक साझेदारी की उत्कंठा बनी रहे। सभी भारतीय भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय स्थापित करने की कोशिश।

क्या सपने है साहित्य अकादमी को लेकर ?

साहित्य अकादमी अपने कार्यक्रमों को लेकर देश भर के छोटे-छोटे शहरों और गॉंवों तक जायेगी।

हमारी शुभकामनाएं प्रो. कुमुद शर्मा को ! 💐

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ फिल्मों में सफलता के बावजूद थियेटर की जिद्द बरकार : हिमानी शिवपुरी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ साक्षात्कार ☆ फिल्मों में सफलता के बावजूद थियेटर की जिद्द बरकार : हिमानी शिवपुरी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

हम आपके हैं कौन, दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे, कुछ कुछ होता है, परदेस जैसी अनेक सफल फिल्मों  की अभिनेत्री हिमानी शिवपुरी की थियेटर की जिद्द अभी तक बरकरार है । वे सिर्फ थियेटर ही करना चाहती थीं और इसके लिए अमेरिका में पढ़ाई के लिये स्कॉलरशिप मिलने के बावजूद एनएसडी में दाखिला लेकर दुनिया की नजर में अपने सुनहरे करियर को उस समय बर्बाद कर लिया ! अब भी हिमानी 22 फरवरी को दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में ‘जीना इसी का नाम है ‘नाटक मंचन करने आ रही हैं, जो सिर्फ दो पात्रों वाला नाटक है और दूसरे पात्र हैं प्रसिद्ध एक्टर राजेंद्र गुप्ता !

हिमानी शिवपुरी मूलतः देहरादून की रहने वाली हैं और प्रसिद्ध लेखक डाॅ हरिदत्त भट्ट शैलेश की बेटी हैं । दून स्कूल,देहरादून की छात्रा रहते ही डांस व थियेटर से जुड़ीं और फिर आजीवन यह जुड़ाव चला आ रहा है । डी ए वी काॅलेज , देहरादून से एम एस सी की और स्कॉलरशिप के आधार पर अमेरिका जाने की बजाय एनएसडी में थियेटर पढ़ने चली गयीं !

-यह खूबसूरत मोड़ कैसे आया ?

-जब स्कूल में डांस, डिबेट आदि में  परफाॅर्म करती थी तब हमारे हैडमास्टर साहब की पत्नी ने कहा था कि तुम्हें तो फिल्मों में जाना चाहिए ! हालांकि उन दिनों इस बात पर गौर नहीं किया । बात आई गयी हो गयी । जबकि साइंस की ब्रिलियंट छात्रा थी, अच्छे मार्क्स लेती लेकिन थियेटर से लगाव बराबर जारी रहा ! जैसे जैसे काॅलेज में थियेटर करने लगी तब बहुत मज़ा आने लगा और सोच लिया कि इसी क्षेत्र में जाना है मुझे !

-जब अमेरिका की बजाय एनएसडी जाने का फैसला किया तब परिवार में क्या प्रतिक्रिया रही ?

-परिवार में  जैसे हाय तौबा मच गयी ! बस एक पापा को छोड़कर सबने इसका विरोध किया कि स्कॉलरशिप छोड़कर , बढ़िया करियर छोड़कर यह क्या नौटंकी करने जा रही है ! यह क्या ड्रामा ड्रामा लगा रखा है ! मैंने पापा से कहा कि मेरे मन में यह मलाल न रहे कि थियेटर नहीं किया और पापा चल दिये मुझे एनएसडी में दाखिल करवाने ! आखिरी कोशिश जरूर की जब बी बी कारंत से कहा कि इसे समझाइए कि पहले अमेरिका जाये और फिर थियेटर करे ! इस पर कारंत जी ने कहा कि जब वह थियेटर करना चाहती हो तो करने दीजिए न ! फिर पापा दाखिल करवा कर चले गये !

-दिल्ली में कब तक रहीं ?

-लगभग दस साल ! कोर्स करने के बाद खुद्दारी के चलते छह सौ रुपये की एप्रेंटिसशिप की ! फिर रेपेट्री में आई, ए ग्रेड आर्टिस्ट बनी और यहीं ज्ञानदेव शिवपुरी से मुलाकात हुई, निकटता बढ़ी और हम एक साथ मुम्बई तक पहुंचे !

-पहला अवसर या पहली बार नोटिस कब लिया गया आपका ?

-पहला अवसर ‘हमराही’ में मिला दूरदर्शन पर ! देवकी भौजाई को सफल कैरेक्टर के रूप में चहुंओर प्रसिद्धि मिली ।

-फिर ?

-आप हैरान होंगे कि लेखक तो ज्यादातर मनोहर श्याम जोशी होते थे तो उन्होंने मुझे ‘हम लोग’ सीरियल में छुटकी के रोल का ऑफर दिया लेकिन मैंने कहा कि थियेटर नहीं छोड़ूंगी और यह रोल नहीं किया । फिर हमराही का ऑफर आया तब ज्ञानदेव जी ने कहा कि देख लो ! और फिर देवकी भौजाई की धूम मच गयी !

-मुम्बई कब गये ?

-सन् 1990 के आसपास ।

-देवकी भौजाई के बाद क्या ?

-यही हम भी सोच रहे थे कि अब क्या होगा ? हमराही तो खत्म हो गया । इस बीच बेटा भी हो गया । तभी सूरज बड़जात्या ने मुझे ‘हम आपके हैं कौन’  का रोल ऑफर किया ! हालांकि बीच में जीटीवी में ‘हसरतें’ सीरियल भी किया । बस हम आपके हैं कौन सुपरहिट रही और मैं भी चल निकली !

-आगे का सफर ?

-फिर तो दिल वाले दुल्हनिया , कुछ कुछ होता है जैसी फिल्मों में आई और ये फिल्में हिट रहीं और मुझे लक्की माना जाने लगा ! परदेस, उमराव जान , आ अब लौट चलें आदि अनेक फिल्मों में अवसर मिलता गया !

-जीना इसी का नाम है नाटक में क्या रोल है ?

-यह विदेशी नाटक का रुपांतरण है । दो वृद्धों के अकेलेपन पर आधारित जो संयोगवश इकट्ठे होते हैं और राजेंद्र गुप्ता इसमें डाॅक्टर के रोल में हैं जहां हैल्थ रिवाइनिंग सेंटर में मैं जाती हूं पेशेंट जैसी ! परिस्थितियोंवश हम निकट आते हैं और एक दूसरे के अकेलेपन को महसूस करते हैं ! यह आज के समाज की बहुत बडी समस्या भी है और सच्चाई भी ! अभी पटना में मन्नू भंडारी की कहानियों पर भी मंचन करके आई हूं !

-देहरादून को कितना याद करती हैं ?

-बहुत बहुत मिस करती हूं देहरादून को । जब दिल्ली रही तब तक रोडवेज की बस में हर वीकेंड पर देहरादून पहुंच जाती थी । फिर पापा की पहली बरसी पर उनकी कहानी ‘सुनहरी सपने’ पर नाटक मंचन करने गयी थी । अब भी साल में दो तीन बार तो देहरादून जाना हो ही जाता है ! अब भी दिल्ली में नाटक के बाद देहरादून जाऊंगी !

-कौन सी एक्ट्रेस पसंद ?

-ऐसे कोई आइडिया नहीं लेकिन डांसर थी तो वहीदा रहमान बहुत अच्छी लगती थीं । बलराज साहनी और फिर डांस के चलते ही माधुरी दीक्षित भी । यहां तक कि कंगना रानौत भी !

-वह भी आपकी तरह पहाड़ से है , हिमाचल से !

-जी ।

-पसंदीदा नाटक ?

-कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रो मरजानी’ पर आधारित नाटक जिसकी नायिका उस जमाने से आगे काफी बोल्ड थी लेकिन वह अद्भुत नाटक था । खुद कृष्णा सोबती देखने आईं और गले लगा कर कहा कि तुमने तो मेरी मित्रो को जीवंत कर दिखाया !

-परिवार के बारे में कुछ ?

-ज्ञानदेव शिवपुरी जी का निधन तब हुआ जब ‘दिल वाले दुल्हनिया’ का क्लाईमेक्स शूट होने जा रहा था और आप देखेंगे उसमें मैं नहीं हूं ! एक बेटा है कात्यायन जो फिल्म निर्देशन से जुड़ा है और शाॅर्ट फिल्में भी बनाता है !

-किन निर्देशकों के साथ कैसा लगा ?

-सूरज बड़जात्या बहुत प्यारे डायरेक्टर और कम बोलने वाले जबकि करण जौहर खूब बोलते हैं । डेविड धवन डायरेक्टर के तौर पर पूरी छूट देते हैं । उनके और गोविंदा के साथ बीबी नम्बर वन और हीरो नम्बर वन करके मजा आ गया ।

-कोई पुरस्कार ?

-अनेक । संगीत नाटक अकादमी अवाॅर्ड, श्रीकांत वर्मा स्मृति अवाॅर्ड, महाराष्ट्र सरकार सम्मान , उत्तराखंड गौरव और टीवी में आईटीए अवाॅर्ड, कलर्स अवाॅर्ड और ऑल इंडिया जर्नलिस्ट अवाॅर्ड सहित अनेक सम्मान !

-लक्ष्य ?

-थियेटर की जिद्द व सार्थक फिल्में ।

हमारी अनंत शुभकामनाएं हिमानी शिवपुरी को !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ “साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता” – श्री शेखर जोशी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता” – श्री शेखर जोशी ☆ श्री कमलेश भारतीय  

साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता

खुली आंखों देखें दुनिया , अच्छा साहित्य पढ़ें नये रचनाकार

-कमलेश भारतीय

हरियाणा ग्रंथ अकादमी की ओर से शुरू की गयी पत्रिका के प्रवेशांक नवम्बर , 2012 के अंक में हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठित कथाकार शेखर जोशी से कथा विधा पर चर्चा की गयी थी । कल पंचकूला के सेक्टर 14 स्थित हरियाणा अकादमी भवन जाना हुआ तो प्रवेशांक ले आया ।

-हिंदी कहानी में वाद और आंदोलन कैसे शुरू हुए ?

-हिंदी कहानी में वाद और आंदोलन की शुरूआत का रोचक तथ्य यह है कि पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था ‘ सन् 1915 में प्रकाशित हुई थी । संवेदना व शिल्प की दृष्टि से यह कहानी अपने रचनाकाल में बेजोड़ थी और आज भी है ! इस नयेपन के बावजूद गुलेरी ने इसे नयी कहानी नहीं कहा ।

प्रेमचंद , सुदर्शन , जैनेंद्र , अज्ञेय , पहाड़ी, इलाचंद्र जोशी और अमृत राय ने भी सहज ढंग से कहानी के विकास में अपना योगदान दिया लेकिन किसी आंदोलन की घोषणा नहीं की ।

संभवतः सन् 1954 में कवि दुष्यंत कुमार ने ‘कल्पना’ पत्रिका में कहानी विधा पर केंद्रित एक आलेख लिखा और स्वयं खूब जोर शोर से ‘नयी कहनी’ का नारा बुलंद किया । अपने अभिन्न मित्रों मार्कंडेय व कमलेश्वर की कहानियों को नयी कहानी की संज्ञा दी ! संपादक भैरव प्रसाद गुप्त और आलोचक नामवर सिंह ने भी इस नामकरण पर अपनी मुहर लगा दी तो यह नाम पड़ा !

नयी कहानी के प्रवक्ता कहानीकारों की दिगंतव्यापी कीर्ति को देखकर ही शायद आने वाली पीढ़ियों के कहानीकारों ने भी अपने लिए एक नया नाम खोजने की परंपरा चलाई ताकि अपना वैशिष्ट्य रेखांकित किया जा सके ! जो भी हो कहानी को किसी वाद या आंदोलन से लाभ या नुकसान नहीं हुआ । कालांतर में वे ही कहानियां सर्वमान्य हुईं जिनमें अपना युग का यथार्थ प्रतिबिंबित था और कथ्य और शिल्प के स्तर पर बेजोड़ थीं !

-क्या कविता में सन्नाटा है ?

-कौन कहता है कि कविता में सन्नाटा है ? नये ऊर्जावान , प्रतिभाशाली कवि बहुत अच्छी कविताएं लेकर आ रहे हैं । हिमाचल , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़, बिहार , मध्यप्रदेश और देश के अन्य भागों से कवि अच्छा लिख रहे हैं । प्रकाशकों से पूछ कर देखिए उनके पास कितने काव्य संग्रहों की पांडुलिपियां प्रकाशन की बाट जोह रही हैं !

-क्या कविता की तरह कथा में भी सन्नाटे की बात की जा सकती है ?

-कहानी में भी कोई सन्नाटा नहीं । जितने नये कहानीकार इस दौर में उभरे हैं उतने तो पचास दशक में भी नही थे !

-क्या कहानी पर बौद्धिकता भारी पड़ रही है ?

-कहानी पर बौद्धिकता हावी नहीं हो रही । कुछ लोग कई माध्यमों से अर्जित ज्ञान को अपनी कहानियों में प्रक्षेपित कर रहे हैं ! ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्धिकता हावी हो गयी! हां , कुछ प्रबुद्ध कहानीकार वाकई अच्छे बौद्धिक हैं । सहज ढंग से अपनी अभिव्यक्ति में बौद्धिकता का आभास देते हैं । यह स्वागत् योग्य है ।

-पत्र पत्रिकाओं में साहित्य का स्थान कम होता जा रहा है । ऐसा क्यों ?

-कथा के ही नहीं समाचारपत्रों के रविवारीय अंकों में भी पहले जो साहित्यिक सामग्री रहा करती थी अब वह लुप्त होती जा रही है । कहानी के लिए यदि पत्रिकाओं में पृष्ठ कम होने की शिकायत है तो यह स्वीकार करना होगा कि कुछ पत्रिकायें कहानी पर ही केंद्रित हैं । बहुत कहानियां आ रही हैं । कितना पढ़ेंगे ? संस्मरण , यात्रा वृत्तांत , निंदापुराण इस कमी को पूरा कर ही रहे हैं न !

-नये रचनाकारों के नाम कोई संदेश देना चाहेंगे ?

– नये रचनाकारों के नाम कोई संदेश देने की पात्रता मैं स्वयं में नही देखता ! जैसे हमने खुली आंखों दुनिया को देखकर लिखा , उस्ताद लेखकों के साहित्य को पढ़कर सीखा,अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं की बारीकियों को समझा वैसे ही किया जाये तो कुछ हासिल किया जा सकता है । आज के समाज को समझने के लिए साहित्य के अलावा अन्य विषयों की भी अच्छी जानकारी उतनी ही जरूरी है । सबसे बड़ी बात है आत्मविश्वास। धैर्य की ! साहित्य में कोई शाॅर्टकट नहीं होता !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ अविराम 1111 – साक्षात्कार – प्रश्न पाठक के, उत्तर लेखक के – श्री संजय भारद्वाज ☆ परिचर्चा – सुश्री विनीता सिन्हा ☆

सुश्री विनीता सिन्हा

संक्षिप्त परिचय

जन्म – 28 अप्रिल 1960

जन्मस्थान – गोला प्रखंड, जिला रामगढ़, झारखंड

शिक्षा – राँची विश्वविद्यालय तथा डिप्लोमा- वुमन इन्ट्राप्रिन्योरशिप, नरसी मुंजी काॅलेज, मुंबई, महाराष्ट्र से।

साहित्यिक विधा – कविता, कहानी, संस्मरण
प्रकाशन  – पाथेय (मिला जुला), विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ , कहानियाँ प्रकाशित।

अभिरुचि- लेखन, पठन, लोकगीत, चित्रकारी, पुराने गीत

संप्रति – स्वतंत्र लेखन, बुटिक ‘नंदिनी’ के माध्यम से डिज़ाईनिंग,अपरेल्स पेंटिंग, एम्ब्रायडरी इत्यादि।

 ☆ साक्षात्कार – प्रश्न पाठक के, उत्तर लेखक के – श्री संजय भारद्वाज ☆ परिचर्चा – सुश्री विनीता सिन्हा ☆

संजय भारद्वाज से विनीता सिन्हा की बातचीत

प्र.-आप जो रचते हैं, उस जगह स्वयं उपस्थित होते हैं या यह सर्वथा काल्पनिक होता है। यदि हाँ तो आप अलग-अलग विषयों को लेते हैं, जाने क्या- क्या गढ़ लेते हैं, इतनी गुंजाइश कैसे हो जाती है?

उ- विनम्रता से कहना चाहूँगा कि मेरी रचना प्रक्रिया में काल्पनिकता का पुट लगभग नहीं होता। जैसे ज्वालामुखी में वर्षों तक कुछ न कुछ संचित होता रहता है, उसी तरह देखा, सुना, भोगा यथार्थ भीतर संचित होता रहता है। फिर एक दिन लावा फूटता है और रचना जन्म पाती है। रही बात उपस्थित रहने की तो ईश्वर ने हर मनुष्य को देखने की शक्ति दी है। माँ सरस्वती, लेखक के देखने को दृष्टि में बदल देती हैं।

मैं परकाया प्रवेश में विश्वास रखता हूँ। वागीश्वरी  प्रदत्त दृष्टि से संबंधित घटना के पात्र में जब प्रवेश करता हूँ तो घटना और पात्र के विभिन्न आयाम दिखने लगते हैं। अध्यात्म में अद्वैत का उल्लेख होता है। परकाया प्रवेश कर लेखक को अपने पात्र के साथ अद्वैत होना पड़ता है। तभी रचना में ईमानदारी आती है  और व्यक्तिगत की अपेक्षा समष्टिगत भाव प्रकट होता है।

जहाँ तक अलग-अलग विषयों का प्रश्न है, सुबह उठने से रात सोने तक मनुष्य का जीवन अनगिनत घटनाओं का साक्षी होता है। स्वाभाविक है कि लेखन के विषय भी अलग- अलग होंगे। समानांतर रूप से इसे संबंधों के संदर्भ में ढालकर देखिए। मनुष्य माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, मित्र-सहेली आदि के रूप में अलग-अलग भूमिकाओं का सहजता से निर्वहन कर रहा होता है। पिता और पति की भूमिकाओं में कितना विषयांतर है। बस कुछ इसी तरह भीतर का लेखक भी अलग-अलग भूमिकाओं को जी लेता है। इन सब की गुंजाइश के बाद भी गुंजाइश बची रहती है। यह शेष समाई, अशेष लिखाई का मार्ग प्रशस्त करती है।

अनुभूति वयस्क तो हुई

पर कथन से सकुचाती रही,

आत्मसात तो किया

किंतु बाँचे जाने से

काग़ज़  मुकरता रहा,

मुझसे छूटते गये

पन्ने  कोरे के कोरे,

पढ़ने वालों की

आँख का जादू

मेरे नाम से

जाने क्या-क्या पढ़ता रहा!

प्र.-आप प्रत्यक्ष में जहाँ होते हैं, अप्रत्यक्ष में क्या उसी समय कहीं और भी विराजमान रहते हैं ? अगर दो जगह अपनी उपस्थिति दिखाते हैं तो दोनों जगह किस तरह न्याय कर पाते हैं?

उ.- एक शब्द है अन्यमनस्कता। मैं हर काम मन लगाकर करता हूँ पर शाश्वत अन्यमनस्क हूँ। यह अन्यमनस्कता प्रकृति प्रदत्त है। मैं इसमें बदलाव नहीं करना चाहता, कर भी नहीं सकता।

प्रत्यक्ष और परोक्ष उपस्थिति केवल लेखक पर लागू नहीं होती, हर मनुष्य पर अपितु हर सजीव पर लागू होती है। मन के समान तीव्र गति वाला जेट आज तक न विकसित हुआ, न हो सकेगा। यह जेट क्षणांश में त्रिलोकी की परिक्रमा कर लेता है। लेखक को यह वरदान मिला है कि अपने स्थान पर बैठकर इस परिक्रमा को शब्दों में व्यक्त कर सके।

मस्तिष्क ने अनेक परतें तैयार कर ली हैं। अपना काम फिर चाहे वह रोज़ी-रोटी हो, सामाजिक-सांस्कृतिक उपक्रम हों, पुस्तकों की भूमिका-समीक्षा आदि हो, सब करते हुए भी एक परत में सृजन सम्बंधी चिंतन समानांतर सतत चल रहा होता है।

ऐसे में प्रत्यक्ष उपस्थित स्थान पर अपना काम  पूरी निष्ठा से करते हुए भी परोक्ष में चित्र बन रहे होते हैं, शब्द उमग रहे होते हैं। न्यूनाधिक यह स्थिति 24x 7 है। यह ‘बाय डिफॉल्ट’ है। 

जंजालों में उलझी

अपनी लघुता पर

जब कभी

लज्जित होता हूँ,

मेरे चारों ओर

उमगने लगते हैं

शब्द ही शब्द,

अपने विराट पर

चकित होता हूँ..!

प्र.- आप सड़क पर चल रहे हैं, किसी रास्ते से गुज़र रहे हैं, उस पल के अवलोकन से खुद को जोड़कर एक मर्मस्पर्शी रचना का रूप दे देते हैं। क्या आप एकदम से ऐसा कर लेते हैं या बहुत मनन, चिंतन के बाद रचना आकार लेती है।

उ.- जैसा मैंने आरंभ में कहा कि सृजन के मूल में वैचारिक संचय होता है। अबोध से बोधि होने की प्रक्रिया के मूल में विचार ही है। विचार का यह संचय  कुछ समय का नहीं होता। मनुष्य के जन्म लेने से लेकर किसी रचना के उस संदर्भ में प्रस्फुटित होने तक का होता है। मुझे तो अनेक बार लगता है कि आवश्यक नहीं, संचय केवल इस जन्म का ही हो। यह जन्म की सीमाओं को लांघकर जन्म-जन्मांतर का भी हो सकता है।

तथापि केवल विचार से रचना नहीं सिरजती। सृजन के लिए आवश्यक है अवलोकन। फिर अवलोकन चाहे दृश्यात्मक हो या शाब्दिक। कुछ देखकर, सुनकर एक आघात-सा होता है और रचना फूट पड़ती है।

निरंतर मेरे मर्म पर

आघात पहुँचा रहे हैं,

मेरी वेदना का घनत्व

लगातार  बढ़ा रहे हैं,

उन्हें क्या वांछित है

कुछ नहीं पता,

मैं आशान्वित हूँ

किसी भी क्षण

फूट सकती है एक कविता! 

यही मेरी रचना प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया हर लेखक पर लागू हो, यह आवश्यक नहीं। प्रत्येक का अनुभव ग्रहण करने का अपना तरीका होता है, अभिव्यक्ति का अपना तरीका होता है। सृष्टि में यूँ भी हर आदमी अनुपम है, हर आदमी अतुल्य है।

जहाँ तक चिंतन-मनन करके लिखने का प्रश्न है,  सोच-विचार करके, बिंदु तैयार करके अनुसंधानात्मक लिखना तो हो सकता है पर ललित लेखन नहीं। ललित लेखन से उपजी रचना स्वत: संभूत होती है, विशेषकर कविता। कहानी के चरित्र कुछ विस्तार की मांग रखते हैं। उपन्यास में विस्तार विस्तृत होता है। नाटक में चरित्र सर्वाधिक विचार के बाद उपजते है। तथापि सृजन का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि वह उस क्षण वैचारिकता के लिए थमा नहीं रह सकता। थमा तो जमा। इसका अर्थ है कि वैचारिकता सृजन से पूर्व की प्रक्रिया है।

मैंने अपना एक नाटक रात 3 बजे से अगली दोपहर 3 बजे तक लगभग एक सिटिंग में लिखा। पहला संवाद  लिखते समय तय नहीं था कि किस चरित्र का विकास किस भाँति होगा और कथानक का उत्कर्ष क्या होगा। प्रसव पीड़ा होती रही, नाटक लिखा जाता रहा और समाप्ति पर मैं स्वयं भी अवाक था।

प्र – आप चलते-बैठते महफिल में हमेशा मनन करते रहते हैं तो घर परिवार के साथ सामंजस्य किस प्रकार बैठा पाते हैं? क्या एक अच्छे रचनाकार की कोई निजी ज़िंदगी नहीं होती? क्या वह हमेशा समाज को क्या दे, इसी ऊहापोह में डूबता-उतरता रहता है?

उ- मनुष्य सामान्यत: ‘स्व’ तक सीमित रहना छोड़ नहीं पाता। तथापि ‘स्व’ का विस्तार कर इसमें समष्टि को ले आए तो स्वार्थ, परमार्थ हो जाता है। मेरे लिए घर-परिवार और समाज या यूँ कहूँ कि सजीव सृष्टि एक ही बिंदु में अंतर्निहित हैं। इसे आप ऐसे भी कह सकती हैं कि इन सबको  अलग-अलग आँख से नहीं देख सकता मैं। यह सत्य है कि लौकिक अर्थ में मैं शायद परिवार के साथ न्याय नहीं कर पाता पर अपने दायित्वों का निर्वहन सदैव करता रहा हूँ, आजीवन करता भी रहूँगा। लेखक के रूप में मेरी भूमिका के निबाह में बड़ा योगदान परिवार का भी है। मुख्य श्रेय सुधा जी को है। वह कभी कुछ विशेष की चाह नहीं रखतीं, डिमांड नहीं करतीं। यह उनका त्याग भी है, यही हमारा संतुलन भी है। मेरी दो पंक्तियाँ हैं-

बनने-गढ़ने की प्रक्रिया 

यों संतुलित करती रही,

मैं इतिहास रचता गया 

वह इतिहास होती गई। 

इतिहास रचने वाली बात को मेरे सम्बंध में कृपया न लें। मैं साहित्य का अल्पज्ञानी विद्यार्थी भर हूँ। शब्दों के माध्यम से थोड़ा बहुत व्यक्त हो लेता हूँ। मैं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को माँ शारदा की अनुकंपा, माता-पिता के आशीष और अपने पाठकों की आत्मीयता का परिणाम मानता हूँ।

प्र.- आपके रचने की जो गति है, वह इस दौर में अपने गंतव्य तक वक्त से कैसे पहुँच जाती है?

उ.- जब जो उपजता है, विद्युत गति से आता है। उस गति से उसे काग़ज़ पर लिखकर, मोबाइल पर टाइप करके या रिकॉर्ड करके या ‘स्पीच टू टेक्स्ट’ के माध्यम से भी उतारा नहीं जा सकता। उस गति को, मैं क्या संभवत: कोई भी लेखक पकड़ नहीं  सकता। कोई मनुष्य इतना सक्षम होता ही नहीं कि वह अपौरुषेय की गति के साथ कदमताल कर सके। बहुत कुछ छूट जाता है। जो छूट गया उससे बेहतर या कमतर  संभवत: कभी आ भी जाए पर जो ज्यों का त्यों कभी नहीं लौटता। सत्य  तो यह है कि जितना उपजता है, उसका आधे से भी कम काग़ज़ पर उतार पाता हूँ।

कभी पूछा मैंने-

साँस कब लेते हो,

कैसे लेते हो,

क्यों लेते हो?

फिर क्यों पूछते हो-

कब लिखता हूँ,

कैसे लिखता हूँ,

क्यों लिखता हूँ?

…..बस लिखता हूँ!

प्र.- पूर्णकालिक लेखन के साथ-साथ आप हिंदी आंदोलन परिवार, क्षितिज प्रकाशन, आध्यात्मिक प्रबोधन, अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों से भी जुड़े हैं। एक मनुष्य के लिए इतना सब कैसे संभव है? शिक्षा के दौरान हमने टाइम मैनेजमेंट पढ़ा था पर 24 घंटों को 48 घंटे में बदलना महज किताबी ज्ञान से तो संभव नहीं हो सकता। कृपया इस पर भी प्रकाश डालें।

उ.- मनुष्य को चाहिए कि अपने काम में आनंद अनुभव करे। इस अनुभूति से काम बोझ नहीं लगता, अपितु चहुँ ओर आनंद ही प्रवाहित होने लगता है। एक प्रसंग साझा करता हूँ। किसी स्थान पर प्रभु श्रीराम का मंदिर बन रहा था।  एक जानकार ने अलग-अलग समय एक ही प्रश्न पत्थर ढोकर ले जानेवाले चार अलग-अलग मजदूरों से किया। प्रश्न था, ‘क्या कर रहे हो?’  पहले ने उत्तर दिया, ‘पिछले जनम में अच्छे करम नहीं किए, सो इस जनम में पत्थर ढो रहा हूँ।’ दूसरे ने कहा, ‘बचपन में पढ़ाई-लिखाई नहीं की तो मजदूरी करनी पड़ रही है।’ तीसरा बोला, ‘दिखता नहीं क्या? अपने परिवार का पेट पालने के लिए मेहनत-मजूरी कर रहा हूँ।’ तीनों परेशान, हैरान, खीज से भरे। इन मजदूरों की तुलना में चौथा मजदूर प्रसन्न था। कुछ गुनगुनाते हुए पत्थर ढोता चल रहा था। प्रश्न सुनकर प्रेम से बोला, ‘मेरे राम जी का मंदिर बन रहा है। मेरा भाग्य है कि थोड़ी सेवा दे पा रहा हूँ।’

मेरे लिए हर काम, रघुनाथ जी के मंदिर में अपनी सेवा देने जैसा है। प्रार्थना कीजिए कि यह सेवा अविराम रहे।

अनेक काम एक साथ करना भी शायद विधाता का दिया इनबिल्ट है। एक बात और कहना चाहूँगा कि जो कुछ नहीं कर रहा, उसके लिए एक काम करना याने शत-प्रतिशत बोझ लेना। उसके मुकाबले दस काम एक साथ करते हुए एक काम और बढ़ा तो कुल 10% काम ही तो बढ़ा। मुझे दस प्रतिशत की बढ़ोत्तरी अच्छी लगती है। मुझे चुनौतियाँ अच्छी लगती हैं, सीखने की नयी संभावनाएँ सदा आकर्षित करती हैं।

जुग-जुग जीते सपने

थोड़े से पल अपने,

सूक्ष्म और स्थूल का

दुर्लभ संतुलन है,

नश्वर और ईश्वर का

चिरंतन मिलन है,

जीवन, आशंकाओं के पहरे में

संभावनाओं का सम्मेलन है!

– सुश्री विनीता सिन्हा

संपर्क – 9967448399, D-1803, लाॅयड ईस्टेट, विद्यालंकार रोड, वड़ाला ईस्ट, मुंबई- 400 037

ई-मेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – परिचर्चा ☆ साहित्य से रोजी रोटी नहीं चल सकती, मेरी किताब के विदेशी अनुवाद से पैसे मिले” – बेबी हालदार☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ परिचर्चा ☆ “साहित्य से रोजी रोटी नहीं चल सकती, मेरी किताब के विदेशी अनुवाद से पैसे मिले” – बेबी हालदार ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆ 

साहित्य से रोजी रोटी नहीं चल सकती । मेरी पहली ही किताब इतनी चर्चित हूई कि देश विदेश की 27 भाषाओं में अनुवाद हुई जिससे मुझे पैसे मिले और अपना घर भी बना पाई । यह कहना है प्रसिद्ध लेखिका बेबी हालदार का । जिनके बारे में बहुत पढ़ा व सुना था कि वे कैसे दिल्ली में घरों में कामकाज खोजते खोजते उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार के घर काम करने लगीं जिससे उनकी जिंदगी ही बदल गयी और वे उनकी प्रेरणा से प्रसिद्ध लेखिका बन गयीं । मेरी मुलाकात अभी पिछले माह उत्तराखंड के दिनेशपुर के लघु पत्रिका सम्मेलन में बेबी हालदार से हुई और तभी वादा लिया था कि एक दिन आपसे फोन पर ही बातचीत कर इंटरव्यू करूंगा और आज वह वादा पूरा कर दिया बेबी हालदार ने ।।हालांकि दो चार दिन पहले इनका जन्मदिन था लेकिन उस दिन वे गुरुग्राम के किसी काॅलेज में व्याख्यान के लिए जा रही थीं तो टाल देना पड़ा । बहुत सरल स्वभाव की बेबी हालदार ने दिनेशपुर में खूब बातचीत की ।

मूल रूप से पश्चिमी बंगाल के 24 परगना निवासी बेबी हालदार के पिता जम्मू कश्मीर में सेना में तैनात थे । फौजी होने के नाते शराब के आदी थे और मां से मारपीट करते रहते थे जिससे एक दिन मां हम बच्चों को छोड़कर चली गयीं । फिर मेरे पिता ने मेरी शादी मुझसे दुगुनी उम्र के आदमी से कर दी और इक्कीस साल की होते होते मेरे तीन बच्चे भी हो गये । मेरे पिता ने दूसरी शादी भी कर ली ।

 1. बेबी हालदार मुंशी प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार के साथ 

2. बेबी हालदार के साथ दिनेशपुर में 

मेरे पति भी कोई बहुत अच्छे न थे और आखिरकार मैं अपने बच्चों को साथ लेकर सन् 1999 में दिल्ली चली आई और मेरी खुशकिस्मती कि मुझे मुंशी प्रेमचंद के नाती प्रबोध कुमार के घर काम मिल गया । जिन्होंने किताब व लेखन के प्रति मेरी रूचि को देखते हुए अपनी जीवन गाथा लिखने को प्रेरित किया ।

-आपकी शिक्षा कहां तक हुई ?

-आठवीं कक्षा तक । आगे पढ़ाया ही नहीं जबकि मैं बहुत रोई पढ़ने के लिए ।

-आपने किस भाषा में लिखी अपनी जीवन कथा ?

-बंगाली में और प्रबोध कुमार जी इसे हिंदी में अनुवाद करते चले गये और आखिर उन्होंने इसे प्रकाशक को सौंपा । प्रबोध जी बंगाली जानते थे ।

-क्या नाम है आपकी पुस्तक का ?

-आलो अंधारी यानी अंधेरे से उजाला । इसका हिंदी में अर्थ ।

-इस किताब का कैसा स्वागत् हुआ ?

-उम्मीद से कहीं ज्यादा । आप हैरान होते कि इसका देश विदेश की 27 भाषाओं में अनुवाद हुआ । सब जगह इस किताब की चर्चा होने लगी ।

-और कितनी किताबें लिखीं ?

-ईशित समयांतर यानी परिवर्तन हिंदी में । तीसरी किताब आई जिसका हिंदी में अर्थ घर के रास्ते पर । इस तरह अब तक तीन किताबें आ चुकी हैं ।

-नयी किताब लिख रही हैं कोई ?

-जी । चौथी किताब भी लिख रही हूं ।

-आपको कौन कौन से लेखक पसंद हैं ?

-शरतचंद्र , महाश्वेता देवी , अन्नपूर्णा देवी और सभी पुराने लेखक अच्छे लगते हैं ।

-कोई पुरस्कार मिला ?

-अनेक । विदेशी पुरस्कार भी मिले ।

-आम राय है कि आजकल लोग पुस्तकों से दूर जा रहे हैं ?

-कौन कहता है ? काफी पढ़ते हैं लोग आज भी साहित्य । यदि ऐसा न हो तो हम लिखें ही क्यों ?

-क्या साहित्य लेखन से रोजी रोटी चल सकती है ?

-नहीं चल सकती । मुश्किल है । सिर्फ लेखन से गुजारा मुश्किल है । यदि मेरी पहली पुस्तक विदेशों में अनुवादित न होती तो मुझे पैसे कहां से मिलते ? घर कैसे ले पाती ? अब भी कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है । सरकार को लेखकों के बारे में सोचना चाहिए ।

-किसी पाठ्य पुस्तक में भी आपको शामिल किया गया है ?

-जी । एनसीईआरटी की ग्यारहवीं की पुस्तक में मेरी रचना शामिल है ।

-परिवार के बारे में बताइए ?

-मेरे तीन बच्चे हैं -दो लड़के और एक लड़की । बड़ा बेटा अपने पिता के पास रहता है लेकिन कभी कभार मिलने आ जाता है । तीनों काम पर लग गये हैं ।

-प्रबोध कुमार जी हैं अभी ?

-जी नहीं । पिछले वर्ष 19 जनवरी को उनका निधन हो गया ।

-आगे क्या लक्ष्य ?

-बस लेखन ही लेखन ।

हमारी शुभकामनाएं बेबी हालदार को । आप इस मोबाईल नम्बर पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकती हैं : 9088861892

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साक्षात्कार ☆ पंजाब के लेखक शिद्दत से याद आते हैं : से. रा. यात्री ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ साक्षात्कार – पंजाब के लेखक शिद्दत से याद आते हैं : से. रा. यात्री ☆  श्री कमलेश भारतीय ☆

पंजाब के लेखक बहुत शिद्दत से याद आते हैं मुझे। लगभग छत्तीस साल का साथ रहा है मेरा प्रसिद्ध लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क के साथ और मेरा नाम भी उनका दिया हुआ है। मेरा पूरा नाम सेवा राम गुप्ता था और उन्होंने कहा कि साहित्य में ऐसे नाम नहीं चलते। तुम्हारा साहित्यिक नाम होगा -से. रा. यात्री। इस तरह सेवा राम से मैं बन गया से. रा. यात्री। ग़ाज़ियाबाद प्रवास के दौरान प्रसिद्ध कथाकार से.रा. यात्री ने अपने नाम का रहस्य उजागर किया।

शनिवार की एक सुबह सवेरे उनके निवास एफ/ई-7 कविनगर में मिलने गया था सपरिवार। मेरे लिए तो वे ही मुख्य आकर्षण थे और एक तीर्थ जैसे भी। सुपुत्र आलोक यात्री ने ‘कथा संवाद’ के लिए ग़ाज़ियाबाद आमंत्रित किया था। लेकिन मेरे मन में से.रा. यात्री से मिलने की प्रबल इच्छा थी। सो उस दिन पूरी हो गई। वे बिस्तर से उठ तो नहीं पाए लेकिन उनकी आंखों में जो आत्मीयता दिखी, वह मेरे लिए अनमोल थी। जो बातें कीं वे भी अनमोल। नब्बे वर्ष की आयु के यात्री के आसपास या तो दवाइयां थीं या बीते वक्त की यादें। अश्क जी को स्मरण करते कहने लगे -उपेंद्रनाथ अश्क मेरे गुरु थे और मुझे अपना बड़ा बेटा मानते थे। मेरा प्रथम कथा संग्रह -‘दूसरे चेहरे’ और प्रथम उपन्यास -‘दराजों में बंद दस्तावेज’ अश्क जी ने अपने नीलाभ प्रकाशन से ही प्रकाशित किये थे। इस उपन्यास को बाद में भारतीय ज्ञानपीठ और हिंद पाकेट बुक्स ने भी संस्करण दिए।

– आपकी नवीनतम पुस्तक कौन सी है ?

– संयोग से वह भी अश्क जी के बारे में ही है जो सूचना व प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार ने प्रकाशित की है -‘उपेंद्रनाथ अश्क : व्यक्तित्व व कृतित्व।’

– कोई और उल्लेखनीय पुस्तक ?

– वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय में चार वर्ष के दौरान तैयार की -‘चिट्ठियों की दुनिया’ यह विश्व के कालजयी लेखकों की दुर्लभ चिट्ठियों का संकलन है।

– मुझे यह खुशी मिली कि आपके साथ मेरी कहानियां ‘कहानी’ और सारिका जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। आपको कुछ याद है ?

– हाँ मुझे नाम याद आ रहा है आपका -कमलेश भारतीय। आपको खूब पढ़ा और देखा है पत्रिकाओं में। मुझे तो आपको और आपके परिवार को देखकर सारा पंजाब याद हो आया है। कौशल्या अश्क जी और उनके पुत्र उमेश की पत्नी भी ऐसे ही सूट पहनती थीं जैसे आपकी पत्नी व बेटी ने पहन रखे हैं। आपके परिवार के आगमन से ऐसा महसूस हो रहा है जैसे पूरा पंजाब ही मेरे घर चला आया। हिंदी साहित्य में पंजाब के कथाकारों के योगदान को भुलाना मुश्किल है। राजेंद्र सिंह बेदी, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, रवींद्र कालिया, स्वदेश दीपक, राकेश वत्स, रामसरूप अणखी, करतार सिंह दुग्गल सबसे अच्छे मेरे आत्मीय संबंध रहे। तीस साल लम्बा संबंध रहा अश्क जी के साथ। सिर्फ तीस-बत्तीस साल का था जब पहली बार उनसे मिलने गया था। फिर जालंधर उनके घर भी गया। जनवरी सन 1960 में जाना शुरू किया था अश्क जी के घर इलाहाबाद और सन 1996 तक मिलना जुलना चलता रहा। गुरदयाल सिंह और जगदीश चंद्र वैद पंजाब के बहुत बड़े लेखक थे। जगदीश चंद्र वैद का उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ हिंदी साहित्य की अनमोल निधि है। मैं समझता हूं प्रेमचंद के ‘गोदान’ के समकक्ष उपन्यास है यह।

– प्रकाशकों से कैसे संबंध रहे आपके ?

– बहुत अच्छे। भारतीय ज्ञानपीठ, प्रभात प्रकाशन, हिंद पाकेट बुक्स, वाणी और आत्माराम संस  सहित करीब बीस बड़े प्रकाशकों ने मेरी पुस्तकें प्रकाशित कीं। अंत में आत्माराम संस ने मेरी पच्चीस पुस्तकें एक साथ ले लीं। 

– कोई मंत्र नये लेखकों के लिए ?

-बस… कहानी है जीवन की आलोचना। खूब पढ़ो और खूब लिखो।

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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