हेमन्त बावनकर
☆ कविता ☆ जीवन की यह डगर…! ☆
जीवन की यह डगर
है अति कठिन!
है अति जटिल!
धीर-गंभीर सड़क सी
और
हम हैं पथिक।
जीवन के मुहावरों
की मानिन्द।
हम आये थे
बाल सुलभ निश्छलता लिये।
उंगली पकड़ कर चलना सीखा
कभी कुछ कम
और
कभी कुछ ज्यादा ही सीख लिया।
कुछ अनुभव से
कुछ आपसे
और
कुछ अपने आपसे।
सुना था
सब रोते हुये आते हैं
किन्तु,
मैं नहीं जानता
मैं कैसे आया था?
मुटठी खुली थी
या बन्द?
जब से होश संभाला
मुटठी को हमेशा
बन्द ही पाया।
समेटता रहा
अच्छा या बुरा।
सही या गलत।
जो बुरा या गलत था
वापिस लौट आया
मेरे पास
मेरी बुराइयों की मानिन्द।
किन्तु,
अच्छा या सही
फैलता रहा
मेरे चारों ओर
उजाले की तरह
फिर भी
मुटठी रही बन्द
लगाती रही पैबन्द।
श्मशान जाने से डरता था।
इसलिये नहीं कि
आग में तपिश ज्यादा थी।
या कि-
दो गज जमीन छोटी थी।
किन्तु,
इसलिये कि
जीवन में
जो भी बातें सीखीं थी
सारी की सारी थोथी थी।
मैं दूर खड़ा देखता रहा
सभी नें आते जाते
ये पंक्तियां पढ़ी थी
कि-
“सोचो साथ क्या जायेगा?”
फिर भी
सबकी मुटिठयां बन्द थी।
आपकी तरह
मेरी मुटिठयां भी बन्द थी।
अन्त में
जीवन पथ पर
पलट कर देखता हूँ
आश्चर्य चकित
कुछ विस्मित
और
करता हूँ आकलन
क्या खोया – क्या पाया!
इन शब्दों के लिखते तक
कुछ साथ चले
कुछ छूट चले
कुछ टूट गये
कुछ रुठ गये
अपने पराये
भी छूट गये।
काफी पीछे,
इतने पीछे कि
स्मृतियों भी नहीं रहीं शेष
और अवशेष
मैं अकेला
चलता रहा।
चलता रहा।
जीता रहा वर्तमान में।
एक बिटिया ब्याह दी
एक बिटिया ब्याह लाया
अपना
सामाजिक दायित्व मानकर।
बस, अब
मित्रो-स्वजनों का स्नेह ही
पूंजी है मेरी।
बांध ही नहीं पा रहा हूँ
अपनी मुटठी में
बांटना चाहता हूं सबमें
अपना दुख, अपना सुख
मुट्ठी खुली रखकर
शायद,
यही जीवन है
जीवन की डगर है।
मित्रों!
जीवन की यह डगर
है अति कठिन!
है अति जटिल!
© हेमन्त बावनकर
29 जून 2010
पुणे
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈







आपने जीवन का सार बहुत ही सुंदर तरीके से बताया है! आपका भाषा का प्रभुत्व जांचता है। बहुत बढ़िया
वाह वाह क्या बात है, जीवन की सच्चाई है….बहुत सुंदर कविता ।
बहुत सुंदर।
भाई, गज़ब की अभिव्यक्ति है दील को छूने वाली
आपने जीवन का सार इन पंक्तियों में डाला है, बहुत ही लाजवाब है, बधाई हो
बेहतरीन यथार्थ अभिव्यक्ति