ई-अभिव्यक्ति:  संवाद– 5 

कल देर रात डॉ सुरेश कान्त के नवीनतम व्यंग्य उपन्यास “जॉब बची सो ……” की श्री एम एम चन्द्र जी द्वारा की गई पुस्तक समीक्षा को e-abhivyakti  में प्रकाशित करने के पूर्व पढ़ते-पढ़ते उसमें इतना खो गया कि समय का पता ही नहीं चला और आपसे संवाद करने से भी चूक गया। इस संदर्भ में संस्कारधानी जबलपुर के साहित्यकार श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का आभारी हूँ, जिन्होने बैंक के पुराने दिनों की याद ताजा कर दी।

डॉ सुरेश कान्त एवं श्री एम एम चंद्रा दोनों ही हस्तियाँ व्यंग्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। अभी हाल ही में मैंने श्री चंद्रा जी के उपन्यास “यह गाँव बिकाऊ है” की समीक्षा इसी वेबसाइट पर प्रकाशित की थी। श्री चंद्रा जी प्रसिद्ध सम्पादक, आलोचक, व्यंग्यकार एवं उपन्यासकार हैं।  डॉ  सुरेश कान्त जी के बारे में अमेज़न की साइट पर उपलब्ध निम्नलिखित जानकारी  आपको उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से रूबरू कराने के लिए काफी है।

“अपने एक नियमित कॉलम के शीर्षक की तरह अग्रणी व्यंग्यकार सुरेश कांत अन्य व्यंग्यकारों से  कुछ अलग’ हैं। व्यंग्य उनके हाथ में ऐसा अस्त्र है, जो लगातार इस्तेमाल किए जाने से भोथरा नहीं होता, बल्कि और पैना होता जाता है। तभी तो उनके व्यंग्य इतने प्रखर और बेधक होते हैं। वे पाठक के मन को भाते भी हैं और उसे यह सोचने के लिए बाध्य भी करते हैं कि अरे, हमारा जीवन इतना विसंगति भरा है? इतना दूषित और विषमतापूर्ण है? यह तो बहुत गलत है! तो फिर किस तरह हम इसे ठीक करें? और इस प्रक्रिया में वह स्वयं से भी साक्षात्कार करता है, कि कहीं मैं ही, या फिर मैं भी, तो जिम्मेदार नहीं इसके लिए? जिन विसंगतियों की तरफ व्यंग्य में इशारा किया गया है, कहीं वे मुझमें भी तो नहीं? अगर हैं, तो सबसे पहले तो मुझे अपने को ही दुरुस्त करना चाहिए। और अगर नहीं हैं, तो भले ही मैंने खुद कोई गलत काम न किया हो, पर औरों को गलत काम करते देख चुप रह जाना भी तो गलत काम ही है! इससे उसकी चेतना में हलचल होती है, उसकी चेतना जागती है, सच्चे अर्थों में चेतना बनती है। क्योंकि चेतना अगर सोई हो, तो चेतना कैसी? परिणामत: विसंगतियाँ उसे कचोटने लगती हैं, गलत आचरण उससे बरदाश्त नहीं होता, वह खुद को गलत के विरोध में खड़ा पता है और उससे लड़ने लगता है। इस तरह उनके व्यंग्य जीवन में बदलाव की नींव रखते हैं। इसीलिए तो हैं वे दूसरों से ‘कुछ अलग’। 

किसी भी लेखक के पात्र/चरित्र उसके आसपास ही होते हैं। कई बार तो वह स्वयं भी पात्र बन जाता है और किसी भी शैली में लिखने लगता है। कई बार किसी का वार्तालाप या कोई घटित घटना भी उसे लिखने के लिए प्रेरित कर देती है। बस एक बार सूत्र मिल जाए लेखक सूत्रधार बन शब्दों का ताना बाना बुन कर पात्र रच लेता है, चरित्र गढ़ लेता है।

इस संदर्भ में मुझे मेरी कविता “मैं मंच का नहीं मन का कवि हूँ” की निम्न पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

 

तब जैसे

मन से बहने लगते हैं शब्द

व्याकुल होने लगती हैं उँगलियाँ

ढूँढने लगती हैं कलम

और फिर

बहने लगती है शब्द सरिता

रचने लगती है रचना

कथा, कहानी या कविता।

शायद इसीलिए

कभी भी नहीं रच पाता हूँ

मन के विपरीत

शायरी, गजल या गीत।

नहीं बांध पाता हूँ शब्दों को

काफिये मिलाने से

मात्राओं के बंधों से

दोहे, चौपाइयों और छंदों से।

 

शायद वे प्रतिभाएं भी

जन्मजात होती होंगी।

जिसकी लिखी प्रत्येक पंक्तियाँ

आत्मसात होती होंगी।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बावनकर

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