श्री सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से श्री सुरेश पटवा जी द्वारा हाल ही में की गई उत्तर भारत की यात्रा -संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज से प्रतिदिन प्रस्तुत है श्री सुरेश पटवा जी का “देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण“ )
☆ यात्रा-संस्मरण ☆ देहरादून-मसूरी-हरिद्वार-ऋषिकेश-नैनीताल-ज़िम कार्बेट यात्रा संस्मरण-3 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
कुमाऊँ
उत्तराखंड दो परम्परागत क्षेत्रों में विभाजित है-कुमायूँ और गढ़वाल। पूर्वी उत्तराखंड के आदिम निवासी अपने आपको विष्णु के कूर्म अवतार से उत्पन्न मानते थे इसलिए वह क्षेत्र पहले कुरमायूँ कहलाता था, बाद में कुमायूँ हो गया। पश्चिमी क्षेत्र में आदिम निवासियों के गढ़ थे इसलिए वह गढ़वाल कहलाने लगा।
उत्तराखंड के तेरह ज़िलों में छह ज़िले अल्मोड़ा, बागेश्वर, चंपावत, नैनीताल, पिथौरागढ़ और उधमसिंह कुमाऊँ मण्डल में आते हैं। कुमाऊँ के उत्तर में तिब्बत, पूर्व में नेपाल, दक्षिण में उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम में गढ़वाल मंडल हैं I रानीखेत में भारतीय सेना की प्रसिद्ध कुमाऊँ रेजिमेंट का केन्द्र स्थित हैI कुमाऊँ के मुख्य नगर हल्द्वानी, नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत, पिथौरागढ़, रुद्रपुर, किच्छाकाशीपुर, पंतनगर, चम्पावत तथा मुक्तेश्वर हैंI कुमाऊँ मण्डल का प्रशासनिक केंद्र नैनीताल है और यहीं उत्तराखण्ड का उच्च न्यायालय भी स्थित है I
भारतवर्ष के धुर उत्तर का हिमाच्छादित पर्वतमालाओं, सघन वनों और दक्षिण में तराई-भावर से आवेष्टित भू-भाग ‘कुमाऊँ’ कहलाता है। 1850 तक तराई-भावर क्षेत्र एक विषम वन था जहां जंगली जानवरों का राज था किन्तु उसके उपरान्त जब खेतिहर ज़मीन हेतु जंगलों की कटाई-छटाई की गई तो यहाँ की उर्वरक धरती ने कई पर्वतीय लोगों को आकर्षित किया, जो गर्मी और सर्दी के मौसम में वहां खेती करते और वर्षा के मौसम में वापस पर्वतों में चले जाते थे। तराई-भाबर के अलावा अन्य क्षेत्र पर्वतीय है। यह हिमालय पर्वतमाला का एक मुख्य हिस्सा है तथा यहाँ 30 से अधिक पर्वत शिखर 5500 मी. से अधिक ऊँचाई लिए ध्यानस्थ हैं। यहाँ चीड़, देवदारु, भोज-वृक्ष, सरो, बाँझ इत्यादि पर्वतीय वृक्षों की बहुतायत है। यहाँ की मुख्य नदियाँ गौरी, काली, सरयू, कोसी, रामगंगा इत्यादि हैं। काली (शारदा) नदी भारत तथा नेपाल के मध्य प्राकृतिक सीमा बनाती है। कैलाश-मानसरोवर का मार्ग इसी नदी के साथ लिपू लेख दर्रे से तिब्बत को जाता है। 17500 फुट की ऊँचाई पर स्थित ऊंटाधुरा दर्रा से जोहार लोग तिब्बत में व्यापार करने जाते हैं। यहाँ विश्वविख्यात पिंडारी हिमनद् है जहां विदेशी पर्वतारोही सैलानी आते हैं। यहाँ की धरती प्रायः चूना-पत्थर, बलुआ-पत्थर, स्लेट, सीसा, ग्रेनाइट से भरी है। यहाँ लौह, ताम्र, सीसा, खड़िया, अदह इत्यादि की खानें हैं। तराई-भाबर के अलावा संपूर्ण कुमाऊँ का मौसम सुहावना होता है। मानसून में लगभग 1000 मी.मी. से 2000 मी.मी. तक से भी अधिक वर्षा होती है, शरद ऋतु में पर्वत शिखरों में प्रायः हिमपात होता है। गर्मी के मौसम में इन पर्वतों पर बर्फ़ पिघल कर गंगा-यमुना और उनकी सहायक नदियों का सृजन करता है।
कुमाऊं में, हर चोटी, झील या पर्वत श्रृंखला किसी न किसी मिथक या किसी देवता या देवी के नाम से जुड़ी हुई है, जिसमें शैव, शाक्त और वैष्णव परंपराओं से जुड़े लोगों से लेकर हैम, सैम, गोलू, नंदा, सुनंदा, छुरमल, कैल बिष्ट, भोलानाथ, गंगनाथ, ऐरी और चौमू जैसे स्थानीय देवता शामिल हैं। कुमाऊं से जुड़े समृद्ध धार्मिक मिथकों और कथाओं का उल्लेख करते हुए, ई. टी. एटकिंसन ने कहा है: ‘हिंदुओं के महान बहुमत की मान्यताओं (केदारनाथ-बद्रीनाथ-गंगोत्री-यमनोत्री) के कारण कुमाऊं वही है जो ईसाइयों के लिए फिलिस्तीन है।
अल्मोड़ा और नैनीताल जिलों में प्रागैतिहासिक आवास और पाषाण युग के औजार मिले हैं। प्रारंभ में कोल आदिवासियों द्वारा बसाया गए इस क्षेत्र में किरात, खास और इंडो-सीथियन की लहरें आती गईं। कुनिन्द इस क्षेत्र के पहले शासक थे। उनके बाद कत्यूरी राजा आए जिन्होंने 700-1200 ईस्वी तक इस क्षेत्र को शासित किया। लगभग 1100-1200 ईस्वी के बाद कत्यूरी साम्राज्य के विघटन के बाद कुरमांचल को आठ अलग-अलग रियासतों में विभाजित किया गया था: बैजनाथ-कत्यूर, द्वारहाट, दोती, बारामंडल, अस्कोट, सिरा, सोरा, सुई। लगभग 1581 ईस्वी के आसपास रुद्र चंद के अधीन, पूरे क्षेत्र को फिर से कुमाऊं के रूप में एक साथ लाया गया।
कुमांऊँ में सबसे पहले कत्यूरी राजाओं ने शासन की बागडोर संभाली। राहुल सांकृत्यायन ने इस समय को सन् 850 से 1060 तक का माना है। कत्यूरी शासकों की राजधानी पहले जोशीमठ थी, परन्तु बाद में यह कार्तिकेयपुर हो गई। यद्यपि इस विषय में भी विद्वानों व इतिहासकारों में मतभेद है। कत्यूरी वंश कुनिन्द मूल की एक शाखा का था और इसकी स्थापना वासुदेव कत्यूरी ने की थी। उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया और इसे कुरमांचल साम्राज्य कहा, उन्होंने 7 वीं और 11 वीं शताब्दी ईस्वी के बीच कुमाऊं में ‘कत्यूर’ (आधुनिक बैजनाथ) घाटी से अलग-अलग भूमि पर प्रभुत्व स्थापित किया, और बागेश्वर जिले के बैजनाथ में अपनी राजधानी की स्थापना की, जो तब कार्तिकेयपुरा के रूप में जाना जाता था और ‘कत्यूर’ घाटी के केंद्र में स्थित है। सुदूर पश्चिमी नेपाल के कंचनपुर जिले में ब्रह्मदेव मंडी की स्थापना कत्यूरी राजा ब्रह्मा देव ने की थी, अपने चरम पर, कत्यूरी राजाओं ने 12 वीं सदी में कुरमांचल साम्राज्य को पूर्व में सिक्किम से लेकर पश्चिम में काबुल, अफगानिस्तान तक बढ़ा लिया था।
कुमाऊँ निवासी ‘कत्यूर’ को लोक देवता मानकर पूजा अर्चना करते हैं। यह तथ्य प्रमाणित करता है कि कत्यूर शासकों का प्रजा पर बहुत प्रभाव था क्योंकि उन्होंने जनता के हित में मन्दिर, नाले, तालाब व बाजार का निर्माण कराया। पाली पहाड़ के ‘ईड़ा’ के बारह खम्भा में इन राजाओं की यशोगाथा अंकित है। तत्कालीन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों से पता चलता है कि कत्यूर राजा वैभवशाली तथा प्रजावत्सल थे। काली, कुमाऊँ, डोरी, असकोट, बारामंडल, द्वाराहाट, लखनपुर तक इनका शासन फैला हुआ था। 11वीं शताब्दी के बाद इनकी शक्ति घटने लगी। राजा धामदेव व ब्रह्मदेव के बाद कत्यूरी शासन समाप्त होने लगा था। डॉ॰ त्रिलोचन पांडे लिखते हैं- ‘कत्यूर शासकों का उल्लेख मुख्यतः लोक गाथाओं में हुआ है। प्रसिद्ध लोक गाथा मालसाई का सम्बन्ध कत्यूरों से है। कत्यूरी राजाओं की संतान असकोट, डोरी, पाली, पछाऊँ में अब भी विद्यमान है। कुमाऊँ में आज भी यह प्रचलित है कि कत्यूरी वंश के अवसान पर सूर्य छिप गया और रात्रि हो गई, किन्तु चन्द्रवंशी चन्द्रमा के उदय से अंधकार मिट गया। चन्द्रवंशी शासन की स्थापना पर नया प्रकाश फैल गया।‘
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈