डॉ. हंसा दीप
संक्षिप्त परिचय
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ डायरी-संस्मरण – उसका बचपन, मेरा बचपना ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
युग तो नहीं गुजरे मेरा अपना बचपन बीते, पर फिर भी न जाने क्यों ऐसा लगता है कि जैसे वह कोई और जमाना था जब मैं और मेरे हमउम्र पैदा होकर बस ऐसे ही बड़े हो गए थे। हालांकि अभी भी बचपन की यादें ताजा हैं। सारी यादें पलट-पलट कर आती हैं और उस मासूम-से समय के टुकड़े के साथ जुगाली करते हुए सामने खड़ी हो जाती हैं। अब, जब नानी बनकर आज के बचपन को ये आँखें लगातार देख रही हैं तो अपने बचपन का बेचारापन बरबस ही सामने आकर बतियाने लगा है। इन दिनों रोज ही कुछ ऐसा आभास होने लगा है जैसे अपना वह बचपन और आज का बचपन, युगों के अंतराल वाली कहानी-सा बन गया है।
आज के बच्चों का जो बचपन है उसे देखकर मेरी तरह कितने ही दादा-दादी-नाना-नानी कई बार सोच ही लेते हैं कि “काश हम भी अभी बच्चे होते।” इन बच्चों के पैरों के साइज़ की क्रिब इनके बढ़ते-बढ़ते तब तक बड़ी होती है, जब तक ये खुद चार साल की उम्र को पार नहीं कर लेते। उसके बाद तो एक पूरा का पूरा कमरा इनका होता है, जो खिलौनों से, टैडी बेयर से, कपड़ों से भरा रहता है। बसंत, गर्मी, पतझड़ और सर्दी हर मौसम के अलग-अलग जूते और अलग-अलग कपड़े। हमारे जमाने में अपनी दुकान के पास वाले पेड़ से, चादर या साड़ी बांधकर पालना बना दिया जाता था और हम ठंडी हवा के झोंकों में मस्त नींद ले लेते थे। कमरे और कपड़ों की कहानी तो अपनी जुबानी याद है। एक कमरे में पाँच से कम का तो हिसाब होता ही नहीं था। लाइन से जमीन पर सोए रहते थे। एक-दूसरे की चादर खींचते हुए, लातें खाते हुए भी नींद पूरी कर लेते थे। तीन-चार साल के बच्चों तक के लिये नये कपड़े आते ही नहीं थे। एक पेटी भरी रहती थी ऐसी झालर वाली टोपियों से, स्वेटरों से, झबले, फ्राक और बुश्शर्ट-नेकर से। आने वाले हर नये बच्चे के लिये इन कपड़ों की जरूरत होती थी। एक कपड़ा खरीदो, पाँच बच्चों को बड़ा कर लो। अनकहा, अनसमझा, रिसायकल वाला सिस्टम था, कपड़ा धोते ही नया हो जाता था।
जब इन बच्चों के लिये स्मूदी, फलों का शैक बनता है तो मुझे याद आता है तब बेर के अलावा कोई ऐसा फल नहीं था जो हमारे लिये घर में नियमित आता था। बैर बेचने वाली आती थी तो सीधे टोकरी से उठा कर खा लेते थे। फल को धोकर खाने वाली बात के लिये कभी डाँट खायी हो, याद नहीं। सब कुछ ऐसा बिंदास था कि किसी तरह की रोका-टोकी के लिये बिल्कुल जगह नहीं थी।
आज की मम्मी अपने बच्चों के लिये जब प्रोटीन और कैलोरी गिनती हैं तो मैं सोचती हूँ कि मेरी जीजी (माँ) को कहाँ पता था इन सबके बारे में! वे तो ऊपर वाली मंजिल के किचन से नीचे अनाज की दुकान तक के कामों लगी रहती थीं। कुछ इस तरह कि ऊपर-नीचे के चक्करों में बच्चों के आगे-पीछे चक्कर लगा ही नहीं पातीं। तब हम भाई-बहन अपनी अनाज की दुकान के मूँगफली के ढेर पर बगैर रुके, बगैर हाथ धोए, पेट भर कर मूँगफली छीलते-खाते। कड़वा दाना आते ही मुँह बनाकर अच्छे दाने की खोज में लग जाते। होले- हरे चने के छोड़, जिन्हें पहले तो बैठकर सेंकना और फिर घंटे भर तक खाते रहना। हाथ-मुँह-होंठ हर जगह कालिमा न छा जाए तो क्या होले खाए। ताजी कटी हुई ककड़ियाँ व काचरे शायद हमारे आयरन का सप्लाय था। ये सब खाकर पेट यूँ ही भर जाता था। थोड़ा खाना खाया, न खाया और किचन समेट लिया जाता था। शायद इसीलिये मोटापन दूर ही रहा। बगैर किसी ताम-झाम के भरपूर प्रोटीन और नपी-तुली कैलोरी।
जब बच्चे कार में बैठ कर स्कूल के लिये रवाना होते हैं तो मेरी अपनी स्कूल बरबस नजरों के सामने आ जाती है जहाँ आधे किलोमीटर पैदल चल कर हम पहुँचते थे। रिसेस में खाना खाने फिर से घर आते थे। कभी कोई लंच बॉक्स या फिर पानी ले जाना भी याद नहीं। स्कूल के नल से पानी पी लेते थे। कभी यह ताकीद नहीं मिलती कि “हाथ धो कर खाना, नल का पानी मत पीना।” आज इन बच्चों के लिये हैंड सैनेटाइजर का पूरा पैकेट आता है। इनके बस्ते से, लंच बॉक्स से टँगे रहते हैं। गाड़ी में भी यहाँ-वहाँ हर सीट के पास रखे होते हैं। जितनी सावधानी रखी जा रही है उतने बैक्टेरिया भी मारक होते जा रहे हैं। एक से एक बड़ी बीमारियाँ मुँह फाड़े खड़ी हैं। तब भी होंगी। उस समय कई बच्चों के विकल्प थे। मैं नहीं तो मेरा भाई या फिर मेरी बहन, एक नंबर की, दो नंबर की। अब “हम दो हमारे दो” के बाद, “हम दो हमारा एक” ने परिभाषाएँ पूरी तरह बदल दी हैं।
अब बच्चों की प्ले डेट होती है। फोन से समय तय कर लिया जाता है। छ: साल के नाती, शहंशाहेआलम मनु के द्वारा नानी को चेतावनी दी जाती है– “नानी मेरे दोस्तों के सामने हिन्दी मत बोलना, प्लीज़।” गोया नानी एक अजूबा है, जो उसके उन छोटे-छोटे मित्रों को हिन्दी बोल कर डरा दे। बड़ी शान है, बड़ा एटीट्यूड है व गजब का आत्मविश्वास है। मैं तो आज साठ-इकसठ की उम्र में भी अपने बड़े भाई से आँखें मिलाकर बात नहीं कर पाती। इन्हें देखो नाना-नानी भी इनके लिये एक खिलौना है। ऐसा खिलौना जिसे जब चाहे इस्तेमाल कर ही लेते हैं। हमारा समय तो बस ऐसा समय था कि चुपके से आया और निकल गया। कब आया, कब गया और कब बचपन में ही बड़े-से घर की जिम्मेदारी ओढ़कर खुद भी बड़े हो गए, पता ही न चला। गली-गली दौड़ते-दौड़ते छुपाछुपी खेलना, पकड़ में आ जाना व फिर ढूँढना। न तो ऐसे आईपैड थे हमारे हाथों में, न ही वीडियो गैम्स थे। हाथों में टूटे कवेलू का टुकड़ा लेकर, जिसे पव्वा कहते थे, घर के बाहर की पथरीली जमीन पर लकीरें खींच देते थे। उसी पर कूदते-फांदते, लंगड़ी खेलते बड़े होते रहते थे। बगैर किसी योजना के ही हर घंटे प्ले डेट हो जाती थी। कभी गिर जाते, खून बह रहा होता तो जीजी हल्दी का डिब्बा लाकर उस घाव में मुट्ठी भर हल्दी भर देतीं। पुराने पायजामे का कपड़ा फाड़कर पट्टी बांध देतीं। हम रो-धोकर आँसू पोंछते फिर से अपने घाव को देखते हुए निकल पड़ते थे।
इन बच्चों के लिये सुबह का खास नाश्ता बनता है। हम तो रात के बचे पराठे अचार के साथ खा लेते थे। पोषक आहार के तहत बच्चों की शक्कर पर इनके ममा-पापा नजर लगा कर रहते हैं। हम तो शक्कर वाली मीठी गोलियाँ ऐसे कचड़-कचड़ चबाते रहते थे जैसे उस आवाज से हमारा गहरा रिश्ता हो। बाजार के मीठे रंग वाले, लाल-पीले-हरे बर्फ के लड्डू चूस-चूस कर खाते रहते थे। कभी कोई “मत खाओ” वाली ना-नुकुर नहीं होती। हमारा यह स्वाद सबसे सस्ता होता था फिर भला कोई कुछ क्यों कहता!
मुझे अपना बरसों का अनुभव और ज्ञान अपने नाती मनु को देने की बहुत इच्छा होती है। सुना तो यही है कि सारा ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हो जाता है। यहाँ भी मैं मन मसोस कर रह जाती हूँ। उसे कुछ पूछना होता है तो ‘सिरी’ और ‘एलेक्सा’ उसके बगल में खड़ी होती हैं। नानी से कुछ पूछने की जरूरत ही नहीं पड़ती। मेरा ज्ञान भी उसके किसी काम का नहीं रहा।
एक बात बहुत अच्छी है, नया सीखने की मेरी ललक अभी भी है। हालांकि वही अच्छी बात उल्टे प्रहार करती है जब हाथों में रिमोट लेकर निनटेंडो गैम खेलना शुरू करती हूँ। कुछ ही पलों में मनु मेरे हाथ से रिमोट खींचकर मेरे मरते हुए कैरेक्टर को बचाता है।
“नानी आपको तो बिल्कुल भी खेलना नहीं आता। आप तो अपने प्लेयर को मारने पर तुली हुई हैं।” ऐसी हिंसक मैं कभी सपने में भी नहीं होती, लेकिन खेलते हुए कैसे हो जाती हूँ यह आज तक समझ ही नहीं पायी!
“ये निगोड़े गैम में क्यों मरना-मारना लेकर आते हैं!” कहते हुए मैं अपना सिर ठोक लेती हूँ। मनु को कोई जवाब न देकर बुरी तरह हार जाती हूँ। अपने से पचपन साल छोटे बच्चे से हारकर मैं बहुत बेवकूफ महसूस करती हूँ। ऐसा नहीं कि यह हारने का अफसोस हो, सिर्फ हारती तो कोई बात नहीं थी, मगर उसके मन में जो अपनी मूर्खता वाली भावना अनजाने ही छोड़ देती हूँ, उसकी कसक बनी रहती है। मैं बड़ी हूँ, मुझे सब कुछ आना चाहिए। अपने समय में कभी नानी के लिये ऐसा कुछ सोचने की, कुछ कहने की जुर्रत नहीं की। ऐसा कोई मौका मिला भी नहीं। तब तो आदेश होते थे व हम पालन करते थे। बच्चे भी तो एक, दो नहीं थे, पूरे के पूरे दस, या तो इससे एक-दो कम, या एक-दो ज्यादा।
रोज-रोज के इन नये खेलों को सीखना मेरे बस की बात नहीं रही इसलिये मैंने भी तय कर लिया कि उसके बचपन और मेरे बचपने को मिलाकर एक नया रास्ता बना लेती हूँ। धीरे-धीरे दोनों का तालमेल अच्छा होने लग गया है। ऐसा करके जीना मुझे भाने लगा है। फिर भी एक टीस तो है, मैं बदलाव को स्वीकार तो कर रही हूँ, पर मैंने दुनिया में आने की इतनी जल्दी क्यों दिखाई, कुछ साल और रुक जाती।
© डॉ. हंसा दीप
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बहुत अच्छा संस्मरण