श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण : मनाली : महाप्रलय के बाद प्राकृतिक सौंदर्य में बेजोड़ ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

अचानक विजय के संदेश वट्स अप पर आने लगे कि मनाली में लेखक मिलन शिविर लगायेंगे सितम्बर में। आपको चलना है। दो बातें बहुत अच्छी थीं कि मनाली कभी गया नहीं था। दूसरे देश भर से लेखकों का साथ रहेगा तो मनाली यात्रा तो स्मरणीय हो जायेगी। वैसे भी हिमाचल या कहिए पर्वतों व वादियों में घूमना और प्राकृतिक सौदर्य में खो जाना, यह मुझे बहुत प्रिय है। धर्मशाला, शिमला इसी वर्ष गया हू। कई बार गया हूं लेकिन मनाली कभी नहीं। कुल्लू के लम्बे चलने वाले दशहरे के बारे में बचपन से सुनता आया हूं पर देखा कभी नहीं। मन ललचाता रहता है। मैंने झट से हां कह दी। एक और बात भी रही मन में कि अपनी पुस्तक यादों की धरोहर आने वाली है तो क्यों न वहीं लेखक शिविर में इसका लोकार्पण भी कर दूं? फिर छोटी मोटी तैयारियों में जुट गये परिवारजन।

आखिरकार यात्रा का दिन आ गया। मैंने वाया जालंधर जाने का निश्चय किया क्योंकि पुस्तक वहीं से ले जानी थी। वहीं रात जालंधर प्रेस क्लब में रुके। पत्रकार व परिचितों से मिलना हुआ जो इस यात्रा का बोनस रहा मेरे लिए। प्रेस क्लब बहुत अच्छा बना है औय नौ कमरे यात्रियों के लिए उपलब्ध हैं। अच्छी व्यवस्था। पत्रकारिता के अतिरिक्त अन्य सामाजिक व साहित्यिक आयोजनों का केंद्र बन चुका है यह क्लब।

दूसरी सुबह सिर्फ चाय पीकर चार बजे ही यात्रा शुरू की। पहले होशियारपुर आया। मेरा ननिहाल। मेरी जन्मभूमि पर मुंह अंधेरे में घर तो नहीं जा सकता था। अतः जन्मभूमि को प्रणाम करता हुआ आगे बढ़ गया। वैसे यहां आर्य समाज का बहुत बड़ा केंद्र है बजवाड़ा में। यहीं से विश्व ज्योति पत्रिका वर्षों से निकल रही है। कभी मैं संपादक से मिलने जाता था और मेरी अनेक रचनाएं इसके विशेषांकों में स्थान पाती रहीं। कह सकता हूं कि लेखन मेरी जन्मभूमि से घुट्टी में ही मिला होगा। थोड़ी दूरी के बाद ही पहाड़ शुरू हो गये जैसे कि होशियारपुर तो एक छोटी सी सीमा मात्र हो पहाड़ों और मैदान के बीच।

कहीं छोटा सा शहर आया। तब तक चाय और नाश्ते की जरूरत महसूस होने लगी थी। पहाड़ी सौदर्य के बीच हमने नाश्ते का आनंद लिया और निकल पड़े मनाली की मंजिल की ओर। जल्दी थी और पुस्तक के लोकार्पण का मन में चाव भी। कुल्लू तक ड्राइवर गाड़ी भगाता रहा और हम पर्वतीय सौंदर्य का रसपान करते रहे। सेबों के बाग देखने का बड़ा चाव था बेटी रश्मि को तो राह भर न केवल सेब ही सेब के बाजार बल्कि बागों के दर्शन भी होते रहे क्योंकि सीजन चरम पर था। दशहरा,  दीपावली त्योहार आने वाले थे। कुल्लू के बाजार में फिर होटल ढूंढा और दोपहर का भोजन किया। बहुत परिचित साहित्यकार हैं यहां लेकिन दिल ही दिल में याद किया। मंडी मैं तब आया था जब दैनिक ट्रिब्यून ज्वाइन किया था। तब नरेश पंडित और दीनू कश्यप से मिलना हुआ इनके एक कार्यक्रम में जो किसान भवन में रात्रि ग्यारह बजे तक चलता रहा था। साहित्य के आयोजन जरूरी हैं। नहीं तो इंटरनेट ने साहित्य का काफी स्वरूप बदल दिया है। इस तरह भागमभाग करते आखिर निर्धारित समय से थोड़ी देर से मनाल्सू पर्यटन होटल में पहुंच ही गये। रत्नचंद निर्झर और सैन्नी अशेष इंतज़ार और स्वागत् में खड़े थे। इस देरी के चलते पुस्तक किसी सुंदर आवरण में ढंक भी नहीं पाया और अनावरण का लोकार्पण कर दिया – कहानी लेखन महाविद्यालय के लेखक शिविर में श्रीमती उर्मि कृष्ण ने। इसके बाद छोटा सा कार्यक्रम और जलपान के बाद कमरों में आराम। रात के खाने के बाद जमी गाने सुनाने की महफिल। कुछ हंसी मज़ाक। कुछ अपने अपने साहित्यिक कद को भुला कर सबसे घुलमिल जाने की कोशिश। यही उद्देश्य है कि कभी सब नये थे लेखन में निरंतर अभ्यास व निखार के बाद स्थान बनता है।

दूसरी सुबह वनस्थल का कार्यक्रम रखा गया। नाश्ते के बाद मिन्नी बस में सवार मनाल्सू के किनारे वनस्थल है। खूब देवदार के लम्बे ऊंचे घने छायादार पेड़ों के नीचे धूप तो पहुंच ही नहीं पाती। नदी का प्यारा सा, खूबसूरत सा नज़ारा। थोड़ा नदी के पानी का संगीत। आत्मा गद्गद्। कैसे न कोई संन्यास ले ले यहां आकर। ओशो भी यहां आते रहे और स्टार विनोद खन्ना भी मानसिक शांति के लिए उनके पीछे पीछे मनाली आकर ओशो के लिए बर्तन मांजने तक के छोटे मोटे काम खुशी खुशी करते रहे। ये फोटोज तब अखबारों की सुर्खियां बने थे। नदी की कलकल ने सब भुला दिया। हिसार से चले राह भर की थकान को मुस्कान में बदल दिया। सब मिल गया। नयी ऊर्जा, नया उत्साह। नये मित्र। नये परिचय। कुल तीस लेखक पहुंचे थे देश भर में। सब फोटोज। सब सेल्फीज में जुट गये। एक घंटे बाद फिर मनाल्सू में भोजन। और बाद में छोटी सी साहित्यिक गोष्ठी। इंदु पटयाल और हिमसेतु की टीम व संपादक कृष्ण श्रीमान् से परिचय। चर्चा महिला पत्रकारिता पर की इंदु पटयाल ने । हमारा परिवार हिडिम्बा मंदिर की ओर चला। वैसे तो मनाल्सू होटल से थोड़ा ही ऊपर चढ़ाई चढ़ कर है लेकिन हमने अपनी गाड़ी से जाना ही ठीक समझा ताकि जो ताजगी पाई वह फिर पैदल चल कर खो न दें।

हमारे साथ कुल्लू से आये लेखक मित्र शेर सिंह भी थे। वे सारी बात और जानकारी देते रहे। लकड़ी का बना हिडिम्बा मंदिर और इसकी मान्यता लगता है कि यही संदेश देता है कि जन्म से हम चाहे किसी भी वंश के हों लेकिन अपने कर्मों से हम कुछ भी बन सकते हैं। अच्छे संस्कार से हम राक्षस वंश के बावजूद देवी बन सकते हैं। यही हिडिम्बा मंदिर का संदेश गूंजा मेरे मन में। खूब चहल पहल। देशी विदेशी पर्यटक। फोटोज की धूमधाम कि सब कैमरे में कैद कर लें। कुछ देर मंदिर के प्रांगण में बैठ मनाल्सू लौटे और रात के खाने के बाद फिर वही महफिल ए लेखक। गाना बजाना और हंसी मजाक। देर रात अपने अपने कमरों में। नींद ने कब अपनी आगोश में ले लिया। पता तक नहीं चला।

तीसरी और अंतिम सुबह। नाश्ता और वनविहार की ओर कूच मिन्नी बस से। यहां भी बड़े बड़े देवदार और नौकाविहार का आनंद भी। चहल पहल। हर पर्यटन केंद्र के आसपास पहाडी ड्रेस का प्रबंध कि आप एक बार पूरे पहाड़ी बन कर फोटो करवा लें। बेटी रश्मि इसी जन्म में पहाड़िन बन गयी और सौ रुपये के फोटो प्रमाण सहित लेकर फूली न समाई। सभी परिवार सचमुच पहाड़ी हो गये। सबका जन्म सफल हो गया और उन लोगों को मिला  रोज़गार। खरगोश भी साथ गोद में  लिए बैठी थीं। फोटोज के लिए जीवंत खरगोश। यहां थोड़ा दुख हुआ कि एक प्राणी कैसे सारा दिन गोद में फंसा रहता है। मन की कुलांचें नहीं भर सकता। मानव ने कैद कर रखा है। थोड़ा उदास मन से वन विहार से बाहर आया। मैं ऐसे शीर्षक से बहुत पहले लघुकथा लिख चुका हूं : मैं महात्मा बुद्ध नहीं हूं। सच हम महात्मा बुद्ध नहीं बन सकते पर प्राणियों और जीव जंतुओं की रक्षा का संदेश तो दे सकते हैं।

शाम के समय मनु मंदिर की ओर बढ़ चले। ऑटो रिक्शा आराम से मिल जाते हैं। सैन्नी अशेष तो एक गाइड से भी ज्यादा हैं मनाली में। इसीलिए वे कहते हैं कि मेरा नाम लेकर गाइड पूछना सब बता देंगे। वे हमें ऑटो में बिठाकर चौक तक खुद पैदल निकल लिए। हमसे पहले मौजूद क्योंकि छोटे रास्ते ढूंढ रखे हैं। मनु मंदिर के नाम से ही मनाली गांव बसा हुआ है। असली मनाली गांव और पर्यटकों की पहली पसंद के चलते मनाली बहुत बढ़ता गया। अब मनाली मंदिर के दर्शन के साथ ही असली मनाली के दर्शन हो रहे थे लेकिन रास्ते में देशी विदेशी सामान की दुकानें बड़ी संख्या में थीं। महाप्रलय के बाद मनु इसी जगह अकेले पूजा में जुटे थे। तभी श्रद्धा आईं और इस तरह जीवन फिर शुरू हुआ। जयशंकर प्रसाद की कामायनी का संदेश याद आया- अधिक सुख की तलाश में दुख मिलना स्वाभाविक है। यही तो हो रहा है मनुष्य के साथ। प्राकृतिक सौंदर्य का दोहन और पर्यावरण संकट। पराली से पराली तक धुआं ही धुआं। यह मनुष्य ने ही संकट पैदा किया है। प्रकृति का दोहन ही दोहन।

सैन्नी अशेष का घर पास ही था। वे हमारी टोली को अपने घर ले चले। पगडंडियां, खेत खलिहान और संध्या बेला में पशुओं का चारा पीठ पर लादे खेतों से लौट रहीं पहाड़ी महिलाएं। कहीं मक्की, कहीं सेब तो कहीं राजमाह की बेलें। सही मनाली। सैन्नी ने घर में एक बाल्टी में पानी भर कर सेब रखे थे उसमें ताकि हमें ठंडे सेब खाने को मिलें। सैन्नी ने अपनी व चर्चित स्नोवा बार्नो की किताबें भी दीं उपहार में। वहां से पैदल ही लौटे मनाल्सू होटल। थकान हो गयी पर सुखद। रात का भोजन। कुछ महफिल लेकिन ज्यादा उदासी। दूसरी सुबह बिछुड़ना जो था। सारी खुशी और बिछुड़ने का दुख। दूसरी सुबह हम मुंह अंधेरे बिना नाश्ते के ही निकल पड़े। सेब निशानी के तौर पर राह में खरीदे। कुल्लू में रुके शालिनी पत्रकार और शेर सिंह लेखक के साथ काॅफी की प्याली। शालिनी ने कहा- सर दशहरे तक रुक जाओ। फिर सही कह कर निकले क्योंकि मणिकर्ण गुरुद्वारे जाना था। 

मणिकर्ण की कथा भी बड़ी विचित्र। गुरु नानक देव यहां यात्रा करते बाला मर्दाना के साथ पहुंचे। रोटी कैसे बने। नदी थी। गुरु जी को बताया कि चावल उबाल लो। कैसे? शिष्यों ने पूछा तो गुरु नानक देव ने एक पत्थर हटाया और वहां गर्म पानी का चश्मा फूट गया। वह गर्म पानी आज भी मौजूद है और बहुत से रोग इसमें स्नान से दूर हो जाते हैं। दूसरी कथा शिव पार्वती से जुड़ी है। वे यहां तपस्या करते थे। पार्वती की मणि खो गयी। शिव ने ध्यान लगाया शेषनाग के पास थी। शिव के प्रभाव से एक मणि ही नहीं बल्कि रोज़ एक मणि अर्पण करने लगा। शिव ने पार्वती को कहा कि अपनी मणि ले लो और बाकी मणियों को पत्थर बना दिया ताकि इन्हें लेकर आपस में वैर न बढ़  जायें। यह बहुत बड़ा संदेश कि मणियों के लिए मणिकर्ण न आएं बल्कि सच्चे भाव से यहां आएं। इसीलिए गुरुद्वारे में शिव पार्वती की फोटो भी लगी है।

एक रात चंडीगढ़ यूटी गेस्ट हाउस और फिर अगली सुबह फिर मुंह अंधेरे का सफर ताकि बेटी यूनिवर्सिटी में समय पर अपने ऑफिस पहुंच सके। मनाली की यादें और सौंदर्य।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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