सौ. उज्ज्वला केलकर
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ “कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय “। यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।)
डॉ. हंसा दीप
☆ दस्तावेज़ # 15 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 2 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆
हंसा के जीवन का दूसरा पर्व आरंभ होता है, उसके विवाह से । उसके शब्दों में, ‘वहां शुरू में चिंता का सागर था।’ लकड़ियों के चूल्हे पर धुएं की जलन से आंखें मलते हुए भोजन पकाना। वह कहती है, ‘पहले दिन मैंने खाना पकाया, वह भोजन यानी फ्लॉप-फिल्म थी।’ उसे खाना पकाने की बिल्कुल आदत न थी। पढ़ाई, स्पर्धा, अन्य कार्यक्रम, दुकान का हिसाब-किताब। इनसे निबटते उसके पास खाना पकाने के लिए समय कहां था? पर ससुराल में आने के उपरांत उसके छोटे देवर, चंचल ने उसे घर के कामों में खूब सहायता की । साथ ही विवाह में ‘जीवन में सदा साथ निभाने की कसम’ खानेवाले और उसका पालन करने वाले धर्मपाल जी उसे किसी मसीहा तरह लगे। सभी ने उसे प्यार किया। उस कारण नयी चीजें सीखना आसान हो गया और वह कठिन समय बहुत आसानी से कट गया, ऐसा उसे लगता है।
श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’
धर्मपाल जी भी मेघनगर के ही। बचपन से लेकर कॉलेज की शिक्षा तक वे हंसा को देख रहे थे। पहचानते थे। वह उन्हें प्रिय लगती थी। वे भी उसे प्रिय थे। पर प्रत्यक्ष कहने की हिम्मत उन दिनों और उस पिछड़े देहात में कहां से होती? उसने अपनी निगाहों से ही अपनी पसंद को वाणी दी। धर्म जी ने उसके घर आकर अपनी बात रखी। उन दिनों उन्होंने अनेक विरह गीत लिखे और हसा को समर्पित किए ।
विवाह पूर्व दोनों परिवार परस्पर परिचित थे। उस कारण 1977 में उनका विवाह सहजता से सम्पन्न हो गया। उसके उपरांत हंसा छह माह संयुक्त परिवार में रही और एक दिन … धर्मपाल जी का तबादला उज्जैन हो गया।
उज्जैनी समान महानगर में अपनी नयी-नवेली गृहस्थी बसाने पर उसे लगा जैसे स्वर्गीय सुख प्राप्त हो गया। वह कहती है, ‘आगे चलकर इस धरती से इतना आत्मीय संबंध स्थापित हो गया कि आज भी मुंह से ‘मेरी उज्जैनी’ ही निकलता है। उसके बाद बैंक ऑफ इंडिया ने धर्म जी के साथ मध्यप्रदेश के अनेक शहरों की और गांवों की उससे पहचान करा दी।
ऑफिस जाते समय धर्म जी उसे अपना आधा-अधूरा लेखन व्यवस्थित करके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं को प्रेषित करने को कह जाते। उसीसे उसे अपने लेखन की प्रेरणा मिली। एक बार उसने एक कहानी लिखी और आकाशवाणी इंदौर को भेज दी। ‘पहले स्वीकृति-पत्र, फिर रेकॉर्डिंग की तारीख, उसके बाद मानदेय … बड़ा रोमांचक अनुभव था’ -वह कहती है।उसके बाद आकाशवाणी से बार-बार बुलावा आने लगा। उसने आकाशवाणी इंदौर और भोपाल के लिए नाटक भी लिखे। उसके लगभग 30 नाटक आकाशवाणी से प्रसारित हुए।इसी दौरान नई दुनिया, दैनिक भास्कर, स्वदेश, नवभारत , हिन्दी हेराल्ड, सारिका, मनोरमा, योजना, शाश्वतधर्म, अमिता समान अनेक सुप्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियां प्रकाशित होने लगीं ।
हंसा कहती है, ‘समय के साथ तालमेल बिठाते हुए जीवन में आया हर बदलाव नया कुछ सीखने के लिए ही होता है ऐसा मैं महसूस करती हूं। धर्मा जी की नियुक्ति जीरापुर, खुजनेर, राजगढ़, ब्यावरा समान देहातों में हुई तब उससे लाभ ही हुआ। वह समूचा प्रदेश ‘सौंधवाड’ नाम से जाना जाता है। उसके पीएच-डी के गाइड डॉ बसंतीलाल बम ने उसे सौंधवाडी लोकसाहित्य पर काम करने के लिए कहा। एक मालवी भाषा-भाषी का सौंधवाडी बोलीपर काम करना उसे बड़ा रोमांचक लगा। इसी दौरान उसे कन्यारत्न की प्राप्ति हुई। शैला। एक ओर पुत्री की देखभाल और दूसरी ओर सौंधवाड़ी लोकगीत और लोककथा-संग्रह। दोनों काम साथ-साथ होने लगे। लोकगीत और लोककथा जुटाने वह पास-पड़ोस के गांवों में जाया करती। सात साल के अथक प्रयासों के बाद उसे ‘सौंधवाड़ की लोकधरोहर’ इस विषय पर पीएच-डी मिल गयी। लोकगीत और लोककथा प्राप्त करते, उनकी खातिर गांवों में भ्रमण करते उसे अनेक कथानक मिले। मन की माटी में, वे तिजोरी में संग्रहीत खजाने की भांति रखे रहे। उसके बाद समय-समय पर वे अंकुरित हुए। डॉ बम उसके काम से बहुत प्रसन्न हुए।
पीएच-डी प्राप्त होने के पहले ही महाविद्यालय में हिंदी के सहायक प्राध्यापक के रूप में उसकी नियुक्ति हो गयी। उस समय उसे दो छोटी कन्याएं थीं। उन्हें तैयार करके स्कूल पहुंचाने के बाद वह कॉलेज जाती। अपने मारवाड़ी परिवार में नौकरी करने वाली वह पहली ही बहू! सिरपर आंचल लेकर वह कॉलेज जाती। उस कारण ससुरालवालों को शिकायत का कभी मौका नहीं मिला। उसके लिए परम्पराएं अपनी जगह और काम अपनी जगह था। पहले-पहल कुछ छात्र ‘बहन जी’ कहकर उसे चिड़ाते। आगे चलकर सभी को उसकी आदत हो गयी।
आगे चलकर विदिशा, राजगढ (ब्यावरा) और धार महाविद्यालयों में अध्यापन का अनुभव प्राप्त हुआ। इस दौरान अनेक ख्यातनाम कवि, कहानीकार,विद्वानों के साथ काम करने का अवसर मिला। चर्चाएं होती रहीं । ‘उस कारण अनुभव- सम्पन्न होती रही’, ऐसा उनका कहना है।
अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों को दक्षतापूर्वक निभाते, अध्यापन का आनंद लेते, सहयोगियों से वैचारिक आदान-प्रदान करते हंसा का जीवन आनंद में व्यतीत हो रहा था कि धर्मा जी का तबादला न्यूयार्क हो गया। सब कुछ सुचारु के चलते वह सब छोड़कर, विदेश में सिरे से जीवन आरंभ करना था । फिर नयी बिसात बिछानी थी …।
क्रमशः…
डॉ हंसा दीप
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मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर
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भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈