श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। 

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं।

इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है।

इस श्रृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है… एक रोचक और विचारणीय दस्तावेज – 🍀पल्पगंधा का आमंत्रण🌺

☆  दस्तावेज़ # ४९ – 🍀पल्पगंधा का आमंत्रण🌺☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

लगभग तीस साल पहले, मुझे एक पेपर मिल को नज़दीक से देखने का मौका मिला। बैंक ने मेरी पोस्टिंग एक ऐसे टाउनशिप में की जो एशिया की सबसे बड़ी पेपर मिल के इर्दगिर्द बसा हुआ था।

मैं उन्हीं लोगों के बीच रहा। तीन साल तक वहां की गतिविधियां ध्यानपूर्वक देखीं और इस बीच वहां के लोगों से घुलमिल गया।

युक्लिप्टस और बांस से पल्प बनाया जाता है। पल्प से पेपर बनता है। पल्प की एक अलग ही गंध होती है।

महाभारत में आपने मत्स्यगंधा की कहानी सुनी होगी।

यह पल्पगंधा की कहानी है।

दरअसल, यह पेपर मिल की आत्मकथा है। मैंने इसकी रचना वहां की टाउनशिप में रहते हुए की थी।

उन दिनों, हम लोग गर्मियों में देहरादून जाते थे। वहां सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी से भेंट अवश्य होती थी।

मुझे अच्छी तरह से याद है कि यह रचना पढ़कर, उन्होंने कहा था – “तुम्हारी ‘पल्पगंधा’ व्यंग्य-कथा मुझे बहुत अच्छी लगी। इसे मैं हिंदी साहित्य की एक उत्कृष्ट रचना मानता हूं। जो जगत सिंह बिष्ट पल्पगंधा लिख सकता है, वह ऐसी और रचनाएं क्यों नहीं लिखता?”

आपके लिए यह रचना प्रस्तुत है:

🍀पल्पगंधा का आमंत्रण🌺

मेरी उम्र अब ढलने लगी है लेकिन मेरा जादू आज भी अपने पूरे उरूज़ पर है। न जाने क्यों मेरा आकर्षण घटने की बजाय दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। निरंतर विस्तार पाती समृद्धि ने मुझे आत्मविश्वास और गरिमा प्रदान की है। आखेट-प्रियता के कारण मेरी छवि एक संपन्न विलासिनी की बन गयी है।

यौवन के प्रारंभिक काल में, मेरे रूप की असीम संभावनाओं ने योग्यतम, सुढृढ़तम और साहसी युवकों को इस घोर अरण्य में मेरी ओर खींचा। मैंने अपनी चुंबकीय शक्ति से उन्हें ऐसा लुभाया कि वे आज तक मुझसे उसी तरह बंधे हुए हैं। उनके लिए सर्वोपरि मैं हूं। उनकी अपनी रूपवती ब्याहता स्त्रियों का सम्मोहन भी बाद में आता है। आधी रात को भी, मेरे एक इशारे पर, उन्हें छोड़कर वे मेरी ओर भागे चले आते हैं।

शुष्क किस्म के लोग मुझे मात्र एक कागज़ निर्माणी मानते हैं। बेचारे! वे नहीं जानते कि मैं कितनी उन्मुक्त और उदार हूँ। वे यंत्र की तरह अपना काम करते हैं और यंत्र की तरह अपना जीवन-यापन करते हैं। उन सबकी शक्लें भी एक-जैसी यंत्रवत लगती हैं। जब तक वे स्वयं अपना नाम और नंबर न बताएं, आप उन्हें नहीं पहचान सकते।

ऐसे शुष्क यंत्रों के नसीब में मेरी भरपूर मांसल देह का जलवा कहाँ ! वे तो स्वयं को ‘टेक्निकल’ और ‘ऑपरेशन्स’ का महत्वपूर्ण पुर्जा मानकर अपना जीवन व्यर्थ गँवा देते हैं। मेरा सुख पाने के लिए आपको थोड़ा ‘कमर्शियल’ होना पड़ेगा।

जिन्होंने थोड़ा साहस और पहल कर, आगे बढ़कर मुझे भोगा है, वे भलीभांति जानते हैं कि मैं अपना सबकुछ लुटाने के लिए हरदम तैयार बैठी हूँ, कोई हिम्मत वाला लुटेरा आये तो सामने !

मैं नहीं पूछती कि तुम्हारा नाम टाटा है या बिड़ला, डालमिया, सिंघानिया, या जैन, या फिर अडानी या अम्बानी। मैं अपने धन और लावण्य को सात पर्दों में छिपाकर रखने वाली नहीं हूँ, मैं चाहती हूँ उसका ‘ग्लोबल’ विस्तार। मैं सम्पूर्ण विश्व में छा जाना चाहती हूँ। इसके लिए मैं हर तरह के समझौतों और आत्म-समर्पण के लिए प्रस्तुत हूँ।

मैं नहीं देखती कि यह बाबू है या साहब, निरीक्षक है या नौकरशाह, मैं नहीं जानती कि यह छुटभैया नेता है या मंत्री, मैं नहीं समझना चाहती कि यह पात्र है, सुपात्र है अथवा कुपात्र। जो मेरा वरण करने को आतुर है, मैं उसकी अंकशायिनी बनने में कतई कोई संकोच नहीं करती।

मैं जानती हूँ कि जितना मैं खेलती-खाती हूँ, उतना ही फलती-फूलती जाती हूँ। मेरी क्षुधा और चमक निरंतर बढ़ती ही जाती है और मेरा मायावी स्वरुप और अनबूझ, अधिक लुभावना होता जाता है।

शायद आपको लगे कि मैं महाविलासिनी हूँ और अनंत मायावी विस्तार की आकांक्षा-मात्र रखती हूँ। यह अर्ध-सत्य है।  मैं एक शुद्ध-हृदय रमणी हूँ। स्वच्छंद, उन्मुक्त रमण के लिए सबको सदैव उपलब्ध।

मैं पाने और चाहने वालों में वर्ग और वर्ण का भेद नहीं करती। यह संघर्ष तो आपका आपसी है। मुझे इससे क्या लेना-देना !

अक्सर ऐसा हुआ है कि जिन पर मैंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, वे प्रेमी ही मेरे दलाल बन गए। इसमें अनहोनी बात भी क्या है? रक्षक तो सदा से भक्षक होते आए !

इन विकृतियों के लिए दोषी मैं नहीं। बिचौलिये फलें-फूलें और सर्जक शोषित हों, तो मैं क्या करूँ? इसे मैं संबंधित पुरुषों के पुरुषार्थ का परिणाम मानती हूँ।

कर्मठ और वीर ही वसुंधरा में सुख-सुविधा का आनंद पाते हैं। यदि आपको भोग-विलास की कामना है, तो श्रम के साथ चातुर्य और दुष्टता का  भी उचित सम्मिश्रण करना होगा। जैसे भय  बिन प्रीत नहीं होती, वैसे ही छल-कपट बिन धन-दौलत इकठ्ठा नहीं होती।

मैं देखती हूँ उन बेचारों को जो चुपचाप सुबह से शाम तक, हर मौसम में, मेरे लिए कठोर परिश्रम करते हैं। वो इतने में ही संतुष्ट हैं कि उन्हें छत की छाया मिली है, बच्चे पल-बढ़ रहे हैं, और पत्नी यदाकदा शारीरिक सुविधा प्रदान करती है।

उन्होंने कभी मुझसे प्रणय-निवेदन किया ही नहीं, मैं भला क्यों लुटाऊँ उन पर अपना प्यार? मैं इतनी बेहया भी नहीं कि बिना निवेदन के ही समर्पण कर दूँ। थोड़े नखरे मेरे भी हैं, मुझे रिझाने के लिए भी थोड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। इतना आसान नहीं है मुझे पा लेना !

ये मुझे पाने के लिए उद्यम करने की बजाय, लाल झंडे वालों की बातों पर विश्वास करते हैं, जो इन्हें गुमराह करते हैं कि मैं छलिनी ‘पूँजी’ हूँ और कामगारों का शोषण करती हूँ। अरे, मैं शोषण कहाँ करती हूँ, मैं तो तुम्हारा पोषण करती हूँ।

इनका जब थोड़ा-बहुत पेट भर जाता है, तो ये साधु-संतों की शरण में जाने लगते हैं, जो इन्हें समझते हैं कि मैं महाठगिनी माया हूँ और अपने मोहिनी रूप से अनेक प्रपंच रचती हूँ। 

अरे, अपनी मीठी वाणी से इन निकम्मे साधु-संतों ने युगों-युगों से पाखण्ड ही रचा है।  मैं तो थोड़े से श्रम और याचना पर अपना सर्वस्व अर्पण करने को तत्पर बैठी हूँ। जो रस-गंध-उन्माद मुझमें पाओगे, वो अन्यत्र कहाँ !

पहले यहां वन ही वन था। घनघोर अरण्य। मान्यता है कि राम यहाँ वनवास के लिए आए थे।  वे बेर और कंद-मूल फल खाकर चले गए। मुझे यहां की अपार सम्पदा ने रोक लिया। वे मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं और मैं हूँ मर्यादा की ठीक विलोम !

कालान्तर में, इस नदी के पानी के साथ मेरे प्रणय और पाप की अनगिनत कहानियां बह चुकी हैं। आसपास के गावों  के नासमझ लोग मुझे जादूगरनी कहते हैं और मानते हैं कि मैं पवित्र नदी में विष घोलती हूँ।

उनका भय निर्मूल भी नहीं है।  मैंने उनके घर के घर उजाड़ दिए। पूरे के पूरे गांव ही विस्थापित हो गए।  मैंने उन्हें प्रलोभन भी कम नहीं दिए। आसपास के असंख्य बांके नौजवान यहां आये और शनैः शनैः निस्तेज होते गए। अपने गाँव के लोगों के लिए तो वे लुप्तप्राय से हो गए।

मैंने मेधा पाटकर जैसों के अनेक वंशजों का विरोध नाकाम किया है। अपने धन-धान्य और रसूख के बूते पर, जितने वृक्ष चाहे कटवाए और जितना विषैला धुआं उगलना चाहा उतना उगला। पर्यावरणविद् मुझे विनाशिनी कहते हैं और प्रतिदिन हजारों टन यूक्लिप्टस और बाँस डकारने का आरोप लगते हैं। 

उन्हें आदिवासियों के चूल्हे से उठता हुआ धुआं तो प्यारा लगता है लेकिन मेरी चिमनियों से उठता धुआं ज़हर लगता है। वे नहीं जानते कि मैं हज़ारों परिवारों का पालन-पोषण करती हूँ। मुझे दुआ देने वालों की कमी नहीं है। अनेकानेक कामगार ऐसे हैं जो मन ही मन मुझे मां-समान मानते हैं। उन पर मैं भरपूर स्नेह और वात्सल्य की वर्षा करती हूँ।

मेरी दृष्टि सबके प्रति एक जैसी है। मैं किसी को मायूस नहीं करती। सबका खुली बाहों से स्वागत करती हूँ।  एक ओर लोभी, घाघ और खूसट ठेकेदार, नौकरशाह और नेता, मेरी नज़र-ए-इनायत के आकांक्षी हैं  दूसरी ओर ऊर्जावान एम बी ए नवयुवक मुझ पर अपना सबकुछ वारने को लालायित हैं।

मेरी त्वचा से मेरी उम्र का पता ही नहीं चलता ! मैं वैसी की वैसी हूँ बरसों से। ऐश्वर्या और सुष्मिता की चमक साल-भर में फीकी पड़ गयी। अब वे भी नीचे उतर कर, सामान्य तारिकाओं की तरह, हर संभव-असंभव कोणों से अपने नितांत निजी और गोपनीय अंगों को लटके-झटके देकर, आपको लुभाने का प्रयास करती हैं लेकिन उनमें अब वो आकर्षण कहाँ रहा !

मेरी चमक कभी घटती नहीं, मेरे चाहने वाले मुझसे कभी विमुख होते नहीं। 

फिर भी, कभी-कभी मैं स्वयं को हताश और असहाय पाती हूँ। मुझे लगता है कि जितने दुष्ट-कमीने मुझे घेरे हुए हैं, उनका मैं कुछ बिगाड़ नहीं सकती, उनके समक्ष मैं विवश हूँ। उन्होंने मुझे काबू में कर रक्खा है, जकड़ लिया है और मैं उनकी दासी-समान हूँ।

लगने लगता है कि मैं अपनी कमजोरियों और विलासिता का अंजाम भुगत रही हूँ। मेरा प्रतिशोध  जाग्रत हो उठता है। मैं बेचैन होने लगती हूँ। जब-जब मेरा दांव लगता है, मैं उनकी नींद हराम कर देती हूँ। तब नई से नई बाला और पुरानी  से पुरानी हाला भी उन्हें सुकून नहीं दे पाती। ‘वेलियम’ और ‘काम्पोज़’ के डबल डोज़ भी उन्हें सुला नहीं पाते।

मैं उनकी रखैल सही, परन्तु उनके घर-परिवारों में मेरा ही एकछत्र राज चलता है। मैं अपनी उन्मुक्तता, विलासिता और स्वच्छंदता, उनकी बहु-बेटियों को अंतरित कर देती हूँ, और किनारे बैठ तमाशा देखती हूँ। अय्याशी के जो शर्मनाक नज़ारे, मैंने इन घरों में, अपनी नज़रों से देखे हैं, उनकी आप कल्पना तक नहीं कर सकते !

मुझमें आज भी वो ताकत है कि जिसे चाहूँ आबाद कर दूँ और जिसे न चाहूँ उसे बर्बाद कर दूँ। जिसे चाहूँ उसे अपने माथे का मुकुट बना लूँ और जिसे न चाहूँ उसे ठोकर मार दूँ। जिन्हें मेरे खसम और संरक्षक होने का भ्रम है, उनके होश ठिकाने लगाना भी मुझे आता है।

अति-विलास से थकी-टूटी देहों के कबाड़ तुमने देखे होंगे। मैं देखती हूँ हर दिन बंदरबाँट के खेल और मुँह फेर लेती हूँ। मैं देखती हूँ हर शाम धन-बल के भय से आतंकित, सफ़ेद पड़ गए चेहरे लेकिन खामोश रहती हूँ। मुझे इन तमाशों से क्या मतलब? इन्हें तुम सुलझाओ।

तुम जो पाना चाहते हो, मुझे साफ बतलाओ। मैं खुलकर और खोलकर बात करने में यकीन करती हूँ। खुसर-पुसर मुझे पसंद नहीं।

दूर से ही मेरे बारे में निर्णय लेकर ग़लतफहमी में मत पड़ जाना।  मेरे करीब आओ ! और करीब !

मैं सिर्फ युक्लिप्टस और बांस को ताप और रासायनिक पदार्थों से गलाकर बना गंदला, गंधाता पल्प नहीं  हूँ।

मेरे नज़दीक आओ, मेरे अंतरंग बनो। ऐसी भीनी गंध, ऐसा मोहक रूप, और बरसते रस तुम्हें अन्यत्र नहीं मिलेंगे। इसके लिए तुम्हें ऋषि पाराशर होने की आवश्यकता नहीं।

मेरी कोख से न जाने कितने व्यास उत्पन्न हो चुके हैं जिन्होंने घृणित नियोग विधि से असंख्य वर्णसंकर पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर पैदा  कर दिए हैं। तुम इन वर्णसंकरों के दास क्यों बनते हो?

उठो, आओ मेरे पास ! मैं तुम्हें निहाल कर दूंगी। यह मामूली आमंत्रण नहीं है, यह पल्पगंधा का आमंत्रण है ! इसे स्वीकार करो।

तुम्हारा उद्धार मेरे झक्क सफ़ेद कागज़ पर, व्यास की तरह कलम चलने से नहीं होने वाला। तुम्हें तृप्ति मेरी गंदली काया से ही मिलेगी। मैं ही अम्बिका हूँ, मैं ही अम्बालिका, और मैं ही वो दासी ! मैं किसी ऋषि के विकृत मस्तिष्क की फंतासी नहीं हूँ।

मैं यथार्थ हूँ। घोर, घनघोर, क्रूर यथार्थ। मुझे तुम बातों से नहीं जीत पाओगे। मैं तुम्हें टेढ़े नाच नचाऊँगी।

अगर नाचने को तैयार हो, तो आओ। आज नहीं तो कल तुम्हें अवश्य कृतार्थ करुँगी।

निर्णय तुम्हें करना है। मैं तो बाहें फैलाए हरदम तैयार बैठी हूँ !

♦️

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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