श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए दैनिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गं ज हा …“।)
अभी अभी # ८०३ ⇒ आलेख – गं ज हा
श्री प्रदीप शर्मा
यह शब्द पहली बार मैंने राग दरबारी में पढ़ा। चूंकि राग दरबारी शिवपाल गंज की दास्तान है, गंजहा शब्द यकीनन गंज से ही बना है। गंज कहां नहीं। गांव, कस्बा तो ठीक, आपको नगर नगर में कितने ही गंज मिल जाएंगे। लेकिन गंजहों की बात निराली ही है।
कुछ शब्द किताबों से निकलकर बोलचाल में प्रवेश कर जाते हैं तो कुछ बोलचाल के शब्द किताबों में प्रवेश कर जाते हैं। शब्द, शब्दकोश में जन्म नहीं लेते, बोलचाल की भाषा से, शब्दकोश में प्रवेश कर जाते हैं। धांसू, टेपा, टपोरी, फीटम फाट, झकास, झन्नाट और बिंदास कुछ ऐसे ही शब्द हैं, जिन्होंने केवल लोकप्रियता के आधार पर शब्दकोश की बिनाका गीत माला में स्थान पाया है लेकिन खेद है, गंजहा शब्द अभी तक अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच पाया है।।
मेरे महानगर में, जो कभी होलकरों की स्टेट था, मल्हारगंज, तुकोगंज, उषागंज, सियागंज, मल्हारगंज, स्नेहलता गंज और गोकुलगंज भी मिल जाएंगे। गंजी, घास को भी कहते हैं, जानवरों के लिए उगाई घास को जहां रखा जाता था, उसे भी गंजी कंपाउंड कहते थे। घोड़े पालना सिर्फ अंग्रेजों का ही शौक नहीं था, हर राजा घोड़े पर सवारी करता था तथा ऐसी कोई फिल्म नहीं जिसमें राजकुमारी को किसी साधारण से नायक ने घुड़सवारी सिखाई न हो, अथवा उसके बिगड़ैल घोड़े से, बिगड़ैल राजकुमारी की जान बचाई न हो।
जो भाग्यशाली और मालदार होते हैं, उनके सर पर बालों के स्थान पर एक खाली मैदान होता है, जिसे गंजी कम्पाउन्ड भी कह सकते हैं। भगवान गंजे को वैसे ही नाखून नहीं देता और अगर देता भी है, तो बाबा रामदेव के कहने पर अलादीन के चिराग की तरह वह नाखून घिसा करता है, घिसा करता है लेकिन बंजर ज़मीन पर भी कभी खेती हुई है।।
केवल शिवपालगंज ही क्यों, हमारे देश में क्या कम गंज हैं। हमारे मध्यप्रदेश के भोपाल के आसपास ही बिलकिसगंज, बेगमगंज और नसरुल्लागंज हैं। उधर झारखंड में डाल्टनगंज भी है। पूरे यू पी बिहार में, गंज ही गंज भरे पड़े हैं कासगंज, गौरीगंज और महाराजगंज अगर उत्तर प्रदेश में है तो बिहार में गोपालगंज और किशनगंज दोनों हैं, लेकिन यहां कहीं भी गंजहों का नामोनिशान तक नहीं है।
एक प्रश्न बार बार मन में कौंधता है, कहीं श्रीलाल शुक्ल ने गंवार के लिए गंजहे शब्द का प्रयोग तो नहीं किया। क्या किसी गंजहे के व्यक्तित्व में गंजापन और गमछा भी शामिल है क्योंकि इन दोनों के बिना बद्री पहलवान का व्यक्तित्व निखर नहीं पाता।।
अगर रंगनाथ रिसर्च के नाम पर शिवपाल गंज में घास छील सकता है तो शिवपाल गंज के गंजहों पर भी रिसर्च की जा सकती है और हर गंज में गंजहों के अस्तित्व से भी इंकार नहीं किया जा सकता। हर शब्द अनमोल होता है। अगर वह प्रयोग से बाहर हो जाता है तो उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। कहीं गंजहे शब्द की उपेक्षा से हम गंजहा संस्कृति से ही हाथ ना धो बैठें। शब्दों को बचाएं। गंजहा संस्कृति को बचाएं। जिन विद्वानों ने राग दरबारी पर शोध किया है, वे भी गंजहों पर तनिक प्रकाश डालें तो गंजहे धन्य हो जाएं ..!!!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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