डॉ प्रतिभा मुदलियार
☆ संस्मरण ☆ स्कॉटलैंड की वह रात ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆
प्रिय,
कभी-कभी कोई एक रात हमारे भीतर उतर जाती है… इतनी गहराई तक कि वह हमें बदल देती है, हमारे भीतर का स्वरूप नया हो जाता है। ऐसी ही एक रात थी …स्कॉटलैंड की वह रात!
स्कॉटलैंड का मौसम वैसे भी अपने अप्रत्याशित स्वभाव के लिए प्रसिद्ध है। कहते हैं, वहाँ एक ही दिन में चारों ऋतुएँ उतर आती हैं.. सुबह धूप, दोपहर में बादल, शाम को बारिश और रात में धुंध। हवा में एक नमी रहती है, जो कभी सिहरन देती है तो कभी कविता। एडिनबर्ग, जहाँ हम ठहरे थे, वही शहर है जिसने हैरी पॉटर को जन्म दिया। यहीं की पुरानी गलियाँ, पत्थरों की सीढ़ियाँ, और कैफ़े की खिड़कियों से बाहर झरती बारिश ने जे.के. रॉलिंग को प्रेरणा दी थी, जब वे “The Elephant House” नामक कैफ़े में बैठकर हैरी, हॉगवर्ट्स और उस जादुई दुनिया को रच रही थीं। उस रात जब मैं खिड़की से बाहर देख रही थी, तो लगा मानो वही जादुई दुनिया अब भी हवा में तैर रही है ..बस इस बार जादू किसी जादूगर की छड़ी से नहीं, बल्कि जीवन के अनुभवों से बन रहा था।
घमासान बारिश कुछ ज़्यादा ही भयावह लग रही थी..मानो आसमान अपनी सारी अधूरी बातें ज़मीन से कह रहा हो। शहर की सड़कों पर जलकुंड बने थे, रोशनी हर मोड़ पर पानी में बिखरकर झिलमिला रही थी। रात की शांत सड़कों पर बारिश की निरंतर झड़ी भले ही अपना सौंदर्य लिए थी, पर उस सौंदर्य के बीच हमारे भीतर की बेचैनी हर बूँद के साथ और गहरी होती जा रही थी।
हम छह लोग थे। थके हुए, पर भीतर कहीं घर लौटने की राहत लिए हुए। हमारी ट्रिप का वह आख़िरी दिन था। लंदन के सैर और संगोष्ठी के बाद हमारा अंतिम पड़ाव था स्कॉटलैंड। सुबह पाँच की फ़्लाइट थी, और तय था कि दो बजे तक एयरपोर्ट पहुँचना है। हम वापसी के लिए उत्सुक थे और अपने…….अपने कमरों में सामान पैक कर बस जाने के लिए तैयार थे।
डिनर के बाद, जब वह मेसेज आया, “आपकी फ्लाइट केन्सिल हो गयी है”… तो जैसे वक़्त ने एकाएक रुककर हमें देखा और मुस्कुरा दिया, थोड़ी सी विडंबना के साथ। हम सबके चेहरे पर पता नहीं कितने सवाल आए और गए… विदेशों में फ्लाइट का कैंसिल होना अब आम बात है, पर जब तक दूसरी फ्लाइट कन्फर्म नहीं होती, जान हलक में अटकी रहती है।
लॉज की बुकिंग खत्म हो चुकी थी, हमने चेक…….आउट कर लिया था और मैनेजर की कृपा से एक कमरे में यूँ ही बैठे थे। अब कोई ठिकाना नहीं था। बाहर घनघोर बरसात थी, ऐसी कि टैक्सी की हेडलाइट भी धुंध में खो जाए। हम सब चुप थे.. एक…….दूसरे की आँखों में सवाल थे और उत्तर कहीं नहीं।
“चलो एयरपोर्ट चलते हैं,” किसी ने कहा “वहाँ जाकर कुछ न कुछ कर लेंगे।” यह ‘कुछ न कुछ’ शब्द उस रात सबसे बड़ा सहारा बन गया। एक बांग्लादेशी ड्राइवर आया… लंबा, चौड़ा, भरा हुआ आदमी, जिसकी आँखों में नींद और दया दोनों थीं। वह हमारे लिए टैक्सी लेकर खड़ा था, मानो हमारी बेचैनी को वह भी समझ गया हो।
बरसाती अँधेरी रात में हम निकल पड़े। वाइपर लगातार शीशे पर बारिश से जूझ रहा था, पर हर बार हार जा रहा था। कभी…….कभी सड़क की लाइटें बारिश की धारों में टूटकर गिरतीं और फिर लुप्त हो जातीं… बिल्कुल हमारी उम्मीदों की तरह।
एयरपोर्ट पहुँचे तो राहत की साँस ली… कम से कम मंज़िल दिखी। पर भीतर के काउंटर पर कंप्यूटर की स्क्रीन ने वही कहा जो बारिश ने बाहर कहा था..सब धुँधला है, स्पष्ट कुछ नहीं। एयरपोर्ट पर इतनी रात गए कोई नहीं था। कारण कोई फ्लाइट न आनेवाली थी न जानेवाली। धीरे…….धीरे चार बजे के आसपास एक काउंटर खुला, लोग आने लगे।
हमारा ग्रुप लीडर, गायत्री, वाणी और मैं.. लगातार फ़ोन पर थे। किसी न किसी रूप में हमें कोई फ्लाइट मिल जाए… और अचानक एक मेसेज आया.. दो टिकट कन्फर्म हुईं हैं, दिल्ली तक। हम कुल छह लोग थे। बाकी चार वहीं ठहर गए.. जैसे चार आत्माएँ किसी प्रतीक्षालय में अटकी हों।
उस रात हमें समझ नहीं आया कि हँसे, रोएँ या बस इंतज़ार करें। किसी ने मित्र को जगाया, किसी ने रिश्तेदार को, कोई कस्टमर केयर पर चिल्लाया, तो कोई चुपचाप खिड़की से बाहर झाँकता रहा… जहाँ बारिश अब भी वही थी, बस हमारी स्थिति बदल गई थी। हमारे साथी अपने बैग उठाकर चले गए। हमने कहा, “आप जाइए… हम कोई न कोई इंतज़ाम तो कर ही लेंगे।”
समस्या पर समस्या। कोई कहता ..“यूएस होकर जाइए।” कोई कहता.. “दुबई होकर।” पर वीज़ा? हर समाधान एक नई उलझन बन जाता। आख़िर थककर हमने एक कोना ढूँढ़ा और बैठ गए.. बिना किसी से कोई सवाल किए। गायत्री लगातार अपने पति के संपर्क में थी..उम्मीद थी, कुछ तो हो।
हाँ, बाहर बारिश लगातार हो रही थी। हम जहाँ बैठे थे वहाँ बारिश की आवाज़ और भी गहरी थी, जो भीतर के अवसाद को और गाढ़ा करती जा रही थी। पता नहीं कितनी फ्लाइटें आयीं…….गईं, कितने लोग आए…….गए, और हम वहीं थे… बस एक ही मन में “टिकट कन्फर्म हो जाए…”..फ्लाईट मिल जाए
घंटों बाद, मेसेज आया — गायत्री का एक टिकट बुक हुआ, वाया यूएस। पर उसके साथ उसका बेटा था — वह अकेली कैसे जा सकती थी! फिर से सब रद्द। सुबह के दस बज चुके थे, पर बाहर लग नहीं रहा था कि सुबह है। हम लगातार कोशिश कर रहे थे कि किसी भी तरह कोई बुकिंग मिल जाए, भले ही डायरेक्ट न हो।
पाँच घंटे बीत गए.. कुछ नहीं हुआ। एयरपोर्ट अथॉरिटी ने अब हमें वहाँ ज़्यादा रुकने की अनुमति नहीं दी। कोई सुविधा भी नहीं। उन्होंने कहा, “लंदन वापस जाइए, वहीं से फ्लाइट लीजिए।” हमने सोचा.. चलो, यहाँ से निकलते हैं, वहीं कोई ठिकाना ढूँढ़ते हैं कि तभी तीनों को मेसेज मिला , “फ्लाइट कन्फर्म्ड फॉर टुमॉरो!” सुबह की एक फ्लाइट मिली ..बैंगलोर तक। एक साँस में जैसे हम सबने जीवन को पकड़ लिया। अब प्रश्न था.. रात कहाँ काटें?
वीणा ने अपने संपर्कों से किसी एअर बिन का इंतज़ाम किया। हमने कैब बुक की। फोन बार…….बार सिग्नल खो रहा था। आखिर किसी तरह एअर बिन.. हमारे उस दिन के गंतव्य तक पहुँचे। मकान बड़ा सुंदर था, दीवारों पर हल्की नमी, लकड़ी की खुशबू, और डिजिटल ताले का ठंडा स्वागत। फोन पर कोड आया.. दरवाज़ा खुला। लगा, यह शहर कह रहा है ..“यहाँ इंसान नहीं, सिस्टम रहते हैं।” दिन के बारह बज चुके थे। थकान इतनी कि कुर्सियाँ भी तकिए लगने लगीं। वहाँ के प्रबंधक .. शायद वही एक वास्तविक व्यक्ति हमारी दशा देखकर मुस्कुराए, “थोड़ी चाय…….टोस्ट लीजिए।” वह चाय सिर्फ गर्म नहीं थी, वह एक सांत्वना थी। टोस्ट हमारे भीतर के डर पर मरहम की तरह था। चाय के बाद नींद आँखों में उतरने लगी। लॉबी में, सूटकेस के सहारे, हम सब अनजान शहर में सो गए ..किसी अजनबी की छत के नीचे, किसी डिजिटल ताले की सुरक्षा में। जब जागे तो एक शाम हो गई थी। बारिश थम गई थी। हमने एक…….दूसरे को देखा.. थके थे पर अब राहत थी। नहा…….धोकर बाहर निकले… भीगे शहर को देखने, अपने डर को पीछे छोड़ने। सड़कें साफ़ थीं, हवा में गीली मिट्टी की खुशबू थी। लाइटें अब झिलमिला नहीं रही थीं.. स्थिर थीं, जैसे कह रही हों… “अब सब ठीक है।” हम पैदल ही चले… हँसते, बातें करते, कभी तस्वीरें लेते, कभी पेड़ों से टपकती बूँदें देखते। शहर की नमी अब अपनी लगने लगी थी।
एक मॉल में पहुँचे। कुछ खाया नहीं, पर थोड़ी खरीदारी की.. शायद सामान्यता को फिर से महसूस करने के लिए। फिर एक छोटे…….से चायनीज़ रेस्टोरेंट में गए। नूडल्स का स्वाद उस रात की भूख से कहीं गहरा था। हर बाइट में थकान का संतुलन था, हर घूँट में राहत का स्वाद। रात लौटे तो शरीर बिस्तर पर था, पर मन अब भी उड़ान में। आँखें बंद कीं, पर नींद नहीं आई। सबसे बड़ी थी मैं — जिम्मेदारी की परछाइयाँ मन पर घूमती रहीं। क्या सब ठीक होगा? क्या अगली सुबह कुछ नयी समस्या तो नहीं आएगी? रात के दो बजे फिर वही सिलसिला शुरू हुआ — टैक्सी बुक करना, सिस्टम से कोड लेना, सामान बाँधना, बच्चे को जगाना।
पर इस बार हम डर से नहीं, अनुभव से निकल रहे थे।
एडिनबर्ग एयरपोर्ट रोशनी में नहाया हुआ था, पर उस चमक में एक ठंडी दूरी थी।
लॉबी में तरह…….तरह के लोग थे — अपने देश लौटने वाले, पहली बार विदेश जा रहे, और कुछ बस यात्राओं के बीच ठहरने वाले। ऑफिसर्स के चेहरों पर आत्मविश्वास था , कहीं-कहीं वह आत्मविश्वास एंठ में बदल जाता। वे अपनी साफ…….सुथरी अंग्रेज़ी में बात करते, और जब किसी देसी यात्री की टूटी…….फूटी अंग्रेज़ी सुनते, तो उनके चेहरे पर हल्की…….सी मुस्कान फैल जाती और कभी कभी ये मुस्कान, जो तिरस्कार की सीमा तक चली जाती थी। वहीं, कुछ लोग ऐसे भी थे जिनकी आँखों में करुणा थी। एक बुज़ुर्ग महिला का पासपोर्ट गिर गया था, और एक अजनबी युवक ने बिना कुछ कहे उसे उठा लिया। एक विदेशी महिला को अपने बैग का वजन कम करना था, तो बगल में बैठी भारतीय युवती ने मुस्कराते हुए कुछ चीज़ें अपने बैग में रख लीं। इन छोटे-छोटे क्षणों में लगा…मानवीयता अब भी ज़िंदा है, बस भीड़ में दब जाती है।
वहीं कुछ प्रवासी भारतीय अपने बच्चों से फोन पर बात कर रहे थे…हिंदी, मराठी, कन्नड़, तमिल, पंजाबी अलग-अलग भाषाएँ एक साथ घुलमिल रही थीं। ऑफिसर वर्ग के कुछ चेहरे हुए ऐसे लगे, मानो अपने ही देश के लोगों को किसी अलग श्रेणी में रख दिया हो। मुझे लगा शायद “विकास” और “विदेश” के बीच कहीं संवेदना छूट जाती है।
अनाउंसमेंट हुआ, “Flight to Mumbai now boarding…” हमने अपनी चीज़ें समेटीं। पीछे मुड़कर देखा तो वह एयरपोर्ट रोशनी, आवाज़ें, चेहरों का सागर सब एक मूक प्रतीक बन चुका था। बोर्डिंग पास हाथ में लेकर हम फ्लाइट में आ बैठे। फिर बातें..बातें और बातें.. हँसना, खाना और तस्वीरें लेना…
मुंबई पहुँचे। वहाँ फ्लाइट बदलनी थी। गायत्री अपने बेटे के साथ मुंबई में उतर गई। मैं और वाणी बैंगलोर के लिए निकल पड़े। सुबह चार बजे दोसा खाया, वह दोसा जैसे कह रहा था, “सब गुज़र गया, अब बस घर बाकी है।” बैंगलोर पहुँचे। पहली बार लगा, हवा में अपनापन है। थकान उतरी, और भीतर एक अजीब सी कृतज्ञता भर गई। उस रात ने मुझे सिखाया कि सुरक्षा कोई बाहरी वस्तु नहीं, वह भीतर से उगती है। हमारा भय तब तक बड़ा होता है, जब तक हम उसे छूने की हिम्मत नहीं करते। एक बार जब हम उससे होकर गुजरते हैं, तो वह बस एक अनुभव बन जाता है.. जो हमें और जीवित बना देता है।
कभी कभी नियति हमें परदेश की बारिश में फेंक देती है ताकि हम जान सकें कि घर सिर्फ एक जगह नहीं होता, वह हमारी आत्मा की शांति में बसता है। उस रात मैंने यह सीखा कि हर अनिश्चितता के भीतर एक अदृश्य हाथ होता है, जो हमें संभालता रहता है, भले ही हम उसे देख न पाएं। अब जब भी कोई स्थिति मेरे नियंत्रण से बाहर जाती है, तो मुझे स्कॉटलैंड की वह रात याद आती है … बारिश की आवाज़, भीगी सड़कों की चमक, और वह अजनबी टैक्सी ड्राइवर, जो जाने…….अनजाने मेरी कहानी का हिस्सा बन गया। कभी लगता है वह रात एक परिचय थी…अपने भीतर के साहस से, अपने भीतर के विश्वास से।
प्रिय, यदि कभी जीवन तुम्हें किसी बरसाती अंधेरे में छोड़ दे, तो याद रखना.. हर बारिश के पार एक सुबह होती है, और हर खोए हुए सफ़र के बाद घर की हवा और भी परिचित लगती है। मैं यह सब तुम्हें इसलिए लिख रही हूँ, क्योंकि कुछ बातें सिर्फ आत्मा को ही कही जा सकती हैं .. शब्दों में नहीं, अनुभवों में। तुम वह आत्मा हो, जिससे बात करना, अपने आप से बात करना है। स्कॉटलैंड की वह रात अब बीत चुकी है, पर उसकी बूंदें आज भी भीतर गीली हैं कभी याद की तरह, कभी सीख की तरह, और कभी बस एक मुस्कान की तरह।
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© डॉ प्रतिभा मुदलियार
पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006
306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक
मोबाईल- 09844119370, ईमेल: mudliar_pratibha@yahoo.co.in
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈





रोचक संस्मरण। साधुवाद!
बहुत ही रोचक संस्मरण, विदेश में रहते हुए अपनी धरती की याद, अपनेपन का महत्व, बहुत अच्छे से यात्रा का विवरण दिया, बधाई मैम।