डॉ प्रतिभा मुदलियार
☆ संस्मरण ☆ चाय: कोरिया की आत्मा ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार ☆
कहते हैं चाय सिर्फ पेय नहीं, एक भाव है। भारत में यह भाव कई बार अपनत्व और संवाद का प्रतीक बनता है, वहीं दक्षिण कोरिया में चाय एक अनुष्ठान है a tea ceremony संयम, शांति और सौंदर्य की साधना! कोरिया में रहते हुए मुझे यह अनुभव बहुत गहराई से हुआ कि वहाँ चाय केवल स्वाद का नहीं, बल्कि संस्कृति का, इतिहास का और आत्मसंयम का प्रतीक है।
आजकल इंस्टाग्राम पर चाय प्रेमी तरह-तरह के मज़ेदार रील्स बनाते हैं, कोई कप में झाग उठाता है, कोई कहता है “पहले चाय, फिर बात।” उनकी क्रिएटिविटी देखकर मज़ा आ जाता है। इन रील्स को देखते-सुनते मुझे बड़ा मज़ा भी आता है और अजीब भी लगता है। वैसे, मैं खुद बहुत बड़ी चाय-प्रेमी नहीं हूँ…दिन में दो बार अच्छी चाय मेरे लिए काफी है। पर कभी-कभी दिन में सारे काम निपटाकर करीब बारह बजे हल्की सी चाय मन को भाती है। यह भी मेरे युनीवर्सिटी के कलिग्ज की बदौलत! मुझे याद है, युनीवर्सिटी में मेरे कुछ करीबी कलीग्स जब सुबह का एकाध घंटा खाली मिल जाता तो कहते, “चलो चाय पीकर आते हैं।” कैंटीन के पास की छोटी-सी टपरी पर हम चाय लेते थे। मेरे लिए आधा कप भी बहुत होता था। पर चाय प्रेमियों के लिए चाय अमृततुल्य होती है यह मैंने अपने दोस्तों और छात्रों को देखकर ही जाना था… हाँ.. चाय की अपेक्षा आधी कप नेस कॉफी मैं ज्यादा एंजाय करती हूँ… मुझे याद है… एकबार जब मैं एक अधिकारी से मिलने उनके ऑफिस में गयी थी तो भरी दोपहरी में चाय के लिए पूछा और मैंने मना किया… तो उन्होंने कोल्ड ड्रींक के लिए पूछा.. तो मैंने हाँ कह दिया… मेरे साथ आए कुलिग ने उस ऑफिसर के सामने ही कहा था.. बच्ची है अभी… चाय नहीं पीती… मैं झेंप गयी थी… पर मुझे कहाँ पता था कि किसी दिन इसी चाय की एक नयी परिभाषा जाननी थी। दक्षिण कोरिया जाकर मुझे समझ में आया कि चाय पीना और चाय का रसास्वादन करना दो बिल्कुल अलग बातें हैं।
कोरिया में रहते एक दिन फैकल्टी रूम में क्लास खत्म कर बैठी थी कि चेक रिपब्लिक की एक प्रोफेसर मिशेल ने मुस्कराकर कहा “Would you like to have some tea?” मैंने शिष्टाचारवश मना नहीं किया। कप हाथ में आया तो देखा…गरम पानी में कुछ पत्ते उबाले गए थे, शायद जौ या जड़ी-बूटी की तरह। चाय के नाम पर यह कुछ अलग ही था! पीते भी नहीं बन रही थी, उगलते भी नहीं… ठंड के मौसम में ‘काढ़ा’ समझकर किसी तरह पी गई। धीरे-धीरे समझ में आया कि दक्षिण कोरिया में चाय का अर्थ केवल tea leaves से बना पेय नहीं, बल्कि प्रकृति, संयम और ध्यान का अभ्यास भी है।
वहाँ मैंने देखा कि शहर में जगह जगह पर “टी हाउस” होते हैं, जहाँ केवल कोरियाई चाय ही परोसी जाती है। प्रत्येक टी हाउस अपने तरीके से विशेष होता है…कहीं बाँस की चाय, कहीं कमल की जड़ की, कहीं ग्रीन टी के साथ चावल की सुगंध। चाय का तापमान, कप की बनावट, केतली पकडने में नज़ाकत, चाय डालने की गति…हर चीज़ के अपने नियम हैं, जिन्हें वे Tea Etiquette कहते हैं।
इस विधि में चाय परोसने, कप पकडने, पीने और कप रखने तक का हर चरण एक नाट्याभिनय-सा लगता है। वहाँ बैठने का ढंग, हाथों की गति, कप का उठाना और रख देना…सबका एक निश्चित सौंदर्यशास्त्र है। चाय परोसने वाला व्यक्ति पारंपरिक हनबोक में सुसज्जित होता है…उसके वस्त्रों की कोमल तहें और संयत मुद्राएँ वातावरण को गरिमा से भर देती हैं। जब वह केतली उठाता है, तो उसकी हर हलचल में एक सधा हुआ भाव झलकता है…न तेज़, न धीमी, बस संतुलित, जैसे किसी संगीत की लय! उस क्षण में न कोई कोलाहल होता है, न बातचीत…केवल केतली से गिरती गर्म चाय की महीन ध्वनि, जो जैसे कहती हो…“शांति भी स्वाद होती है।”
एक बार हमारे फैकल्टी के वरिष्ठ प्रोफेसर ली जंग-हो ने भारत से पधारे कवि दिविक रमेश जी के सम्मान में एक भोज का आयोजन किया था। वहाँ भोजन तो उत्तम था ही, पर जिसने सबका मन मोह लिया, वह था…चाय परोसने का अंदाज़! चाय परोसने वाला युवक पारंपरिक पोशाक में था। एक लंबी, नलिका-सी सुराही जैसी केतली से वह कपों में चाय डाल रहा था। वह हल्का सा झुकता, एक हाथ पीठे पीछे सधे हुए अंदाज़ में रखता, दूसरे हाथ में सुराही धीरे-धीरे आगे बढ़ाता। उसके चेहरे पर एक गंभीर शालीनता थी…जैसे वह कह रहा हो कि “चाय केवल परोसी नहीं जाती, प्रस्तुत की जाती है।” चाय परोसने की उसकी वह कला देखनेलायक थी। ऐसा तो होता नहीं कि हमने वह क्षण अपने कैमरे में कैद न किया हो। वह क्षण मानो किसी सांस्कृतिक नाट्याभिनय का जीवंत दृश्य बन गया था।
कोरिया में चाय का इतिहास पाँचवीं शताब्दी तक जाता है। बौद्ध भिक्षुओं ने चाय को केवल पेय नहीं, बल्कि ध्यान का माध्यम भी बनाया है। धीरे-धीरे यह परंपरा राजघरानों से लेकर आम जन तक पहुँची। चाय वहाँ ‘कन्फ्यूशियस नैतिकता’ का प्रतीक है…संयम, आदर और सादगी का। कोरियाई भाषा में ‘चा’ शब्द में वही गरिमा है जो शायद भारत में ‘प्रसाद’ शब्द में है.. जो आत्मीय भाव के साथ दी जाती है।
मई 2007 की बात है। कोरियाई कवयित्री और भारत-प्रेमी किम हैंग- शिक ने मुझे और कुछ भारतीयों को दक्षिण कोरिया के जेजू द्वीप पर आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए आमंत्रित किया। जेजू.. कोरिया का वह द्वीप है जहाँ नीला सागर, हरे पहाड़ और हवा में घुली चाय की सौंधी महक, सब मिलकर किसी कविता का रूप ले लेते हैं। जेजु द्वीप Wind, Women और Rocks के लिए प्रसिद्ध है। जेजु द्वीप समुद्र के बीच स्थित होने के कारण तेज़ और निरंतर समुद्री हवाओं के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ लगभग पूरे साल ठंडी और साफ़ हवा चलती रहती है। जेजु द्वीप की एक अनोखी परंपरा है “Haenyeo” (हैन्यो) अर्थात् समुद्री महिलाएँ। ये महिलाएँ बिना किसी उपकरण के गहरे समुद्र में गोता लगाकर सीप, शंख, ऑक्टोपस जैसी समुद्री चीज़ें निकालती हैं। वे दक्षिण कोरिया की साहसी, स्वावलंबी और श्रमशील स्त्रियों का प्रतीक मानी जाती हैं। जेजु एक ज्वालामुखीय द्वीप है। इसलिए यहाँ हर जगह काले लावा पत्थर (basalt rocks) दिखाई देते हैं। इन्हीं पत्थरों से पारंपरिक Dol Hareubang (पत्थर के दादाजी) मूर्तियाँ बनती हैं, जिन्हें सुरक्षा और सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। लेकिन आधुनिक प्रचार और वाइन उद्योग के प्रभाव से कभी-कभी लोग जेजु की पहचान Three W… “Wind, Women, and Wine” से भी करने लगे हैं।
उस सांस्कृतिक कार्यक्रम में हमने ..हमारा एक छोटा सा स्टॉल लगाया… स्टॉल क सामने रंगोली बनायी…..बाक़ायदा भारतीय चाय बनाई…अदरक, इलायची और दूध के साथ। कोरियाई लोगों ने पहले झिझक से चखा, फिर मानो रस की दुनिया में उतर गए। बार-…बार कहते…“More! More Indian Tea!” वे बार-बार कप बढ़ाकर कहते,“माशीसोयो!” (स्वादिष्ट है)। हम हँसते रहे…क्योंकि एक कप से शुरू हुई बात चार कप तक जा पहुँची। चाय के ज़रिए वहाँ भारत और कोरिया जैसे दो दिलों के बीच पुल बन गया।
एक बार मेरे घर एक कोरियाई सज्जन आए। मैंने ससम्मान कहा—“आप चाय लीजिएगा।” उन्होंने आनंद से पी, फिर थोड़ी देर बाद बोले “Can I have one more?” मैंने मुस्कराकर फिर बना दी। कुछ देर में तीसरी बार मांग ली। तब मैंने हँसते हुए कहा—“भारतीय चाय इतनी बार नहीं पी जाती। कोरिया में लोग अपनी चाय बात करते करते दसों बार पी जाते हैं, पर भारतीय चाय…” उन्होंने कहा—“Yes, Indian tea has soul.” उस दिन लगा, शायद हमारी चाय में सिर्फ दूध और पत्ती नहीं, अपनापन भी उबलता है।
दक्षिण कोरिया का बोसेओंग (Boseong) प्रांत अपने ग्रीन टी (हरी चाय) की खेती और प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ हर साल “Boseong Green Tea Festival” बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। यह कोरिया का सबसे प्रसिद्ध चाय उत्सव (Tea Festival) है। सामान्यतः हर साल मई के अंतिम सप्ताह से जून के आरंभ तक यह उत्सव मनाया जाता है जब चाय की पत्तियाँ ताज़ी होती हैं और मौसम सुहावना होता है। लोग खुद चाय की कोमल पत्तियाँ तोड़ने का अनुभव करते हैं…पारंपरिक तरीके से पत्तियों को भूनना, मसलना और सुखाना सीखते हैं। इससे उन्हें कोरियाई चाय की सुगंध और प्रक्रिया का अनुभव मिलता है। यहाँ चाय के अलावा ग्रीन टी से बने आइसक्रीम, साबुन, मिठाई, और कॉस्मेटिक उत्पाद भी लोकप्रिय हैं।
कोरियाई लोग भेंट स्वरूप अच्छी से अच्छी और मंहगी चाय के पैकटे देते हैं हैं। कहते हैं कि कोरियाई चाय को चीनी दरबार में भेंट के रूप में भेजा जाता था, जो इसके उच्च मूल्य और महत्व का प्रतीक था। इस प्रथा ने न केवल कोरियाई चाय की गुणवत्ता और विशिष्टता को दर्शाया, बल्कि कोरिया और चीन के बीच राजनयिक और सांस्कृतिक संबंधों को भी मजबूत किया।
मुझे याद है, कुछ कोरियाई युवा वर्ग..जो मेरे विद्यार्थी नहीं थे पर हिंदी सीखना चाहते थे..रविवार को हम साथ बैठते थे…कभी किसी पारंपरिक रेस्टोरेंट में, तो कभी Starbucks में। वे सब अपने साथ कोरियाई मोकचा (ग्रीन टी) लेकर आते। क्लास शुरू होती, और वे चाय की घूँटों के बीच शब्दों का अभ्यास करते। वे कप को दोनों हाथों से पकड़ते, आँखों में हल्की चमक, और एक शांत ध्यान की मुद्रा। पहले मुझे यह अजीब लगा.. “इतनी गंभीरता से चाय?” पर धीरे-धीरे इसकी लय भी मन में बस गई। चाय का हर घूँट वहाँ किसी संवाद का हिस्सा था, जैसे वे कह रहे हों,“हर शब्द के साथ एक स्वाद भी होता है।”
कोरिया में चाय के कई प्रकार हैं, मोग्वा-चा (क्विंस चाय), योंग्जो-चा (जौ की चाय), ओमिजा-चा (पाँच स्वादों वाली चाय), संगह्वा-चा (औषधीय चाय)। हर चाय का अपना मौसम, अपना अवसर और अपना अर्थ होता है। उदाहरण के लिए, ओमिजा-चा में मिठास, खट्टापन, कड़वाहट, तीखापन और नमकीनपन..पाँचों रस होते हैं; कहते हैं, यह जीवन के पाँच भावों की प्रतीक है। इसलिए वहाँ चाय केवल स्वाद नहीं, जीवन-दर्शन है।
कई बार लगता है कि चाय के एक कप में दो संस्कृतियों की आत्माएँ मिल जाती हैं। भारत की चाय जहाँ अपनत्व और गर्मजोशी से भरी है, वहीं कोरियाई चाय संयम और मौन की भाषा है। पर दोनों का सार एक ही है…मनुष्य को जोड़ना, संवाद बनाना। शायद इसलिए, जब कोरियाई मित्र कहते थे, “Let’s have tea” तो वह आमंत्रण केवल पेय के लिए नहीं, एक सच्चे संवाद के लिए होता था।
आज जब मैं इंस्टाग्राम पर चाय की रील्स देखती हूँ..लोग कप उठाते हैं, बातें करते हैं, मुस्कराते हैं, तो लगता है, दुनिया चाहे जितनी बदल जाए, चाय की आत्मा वही है। वह किसी देश, भाषा या संस्कृति की सीमाओं में नहीं बँधती। वह हर उस क्षण में उपस्थित है, जब कोई व्यक्ति दूसरे से कहता है.. “थोड़ी चाय हो जाए?” तो वह मात्र चाय नहीं है.. वह एक सुसंवाद का माध्यम है। मित्रता का कंफर्ट झोन!!
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© डॉ प्रतिभा मुदलियार
पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, मानसगंगोत्री, मैसूरु-570006
306/40, विमल विला, निसर्ग कॉलोनी, जयनगर, बेलगाम, कर्नाटक
मोबाईल- 09844119370, ईमेल: mudliar_pratibha@yahoo.co.in
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈







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