श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह कहानी  ‘प्रेम’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । मनुष्य मोह माया के मोहपाश में  बंधा हुआ यह भूल जाता है कि वास्तव में उसके स्वयं के अतिरिक्त और स्वयं से अधिक कोई भी सगा नहीं है।  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 

 कथा-कहानी  – प्रेम 

 

शहर के वयोवृद्ध नेता एवं उद्योगपति उमाकान्त जी का कल देहावसान हो गया। उनकी विशाल कोठी के बरामदे में उनका पार्थिव शरीर अंतिम यात्रा हेतु तैयार रखा था। पूरा परिवार, चारों बेटे-बहुयें, तीनों बेटियां-दामाद एवं नाती पोते मोहल्ले वाले एवं पार्टी के सदस्य एक ओर खडे़ थे। पंडितजी का इशारा मिलने पर ज्यों ही उनको उठाने का प्रयास हुआ, सब का तीव्र क्रंदनयुक्त रुदन चालू हो गया।

पत्नी, बहुऐं दहाड़ें मार कर रोने लगीं, बेटे भी- बाबूजी आप क्यों चले गये अब हम कैसे रहेंगे-ऐसा कह कर फफक पडे, नाती पोते तो दादाजी को मत ले जाओ ऐसा आग्रह करने लगे, बडा पोता तो बाकायदा रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। पार्टी सदस्य भी रुमाल में आंखें ढंक कर रोने जैसा कुछ करने लगे-आप नहीं होंगे तो पार्टी कैसी चलेगी ऐसा कुछ बोलते जा रहे थे। बेटियों ने सामूहिक मांग कर दी कि बाबूजी को खोल दो। मंझली बेटी तो अर्थी पर ही पछाड खाकर गिर पड़ी।

हमारी हिन्दू मान्यता के अनुसार उस समय उमाकान्त जी की आत्मा कंपाउंड के पास पेड पर बैठी यह सीन देख रही थी। उनका दिल भी पिघल आया और उन्होंने यमदूत से कहा- “भाई देख रहे हैं, मेरे बिना ये कैसे हो रहे हैं, मुझे केवल चौबीस घंटे और दे दो।“

यमदूत ने भी पता नहीं किस भावना में कहा- “ठीक है, जाओ एक दिन और रह लो तुम्हारी इस प्यारी दुनिया में।
यह कहते ही उमाकान्त जी ने आंखें खोल दी और कसमसाकर बोले अरे राजन, खोलो मुझे।”

इस अनपेक्षित घटना से पहले तो सब ओर अचानक सन्नाटा छा गया फिर सन्नाटे को तोडती पत्नी की आवाज आई- “इनका तो शुरू से ऐसा ही है, कोई भी काम ढंग से नहीं करते। कल से सबने इतनी मेहनत की, सब बेकार !!! लो अब करो स्वागत इन साहब जी का।”

पीछे-पीछे बड़ी बहू के बोल फूटे – “लो, अब बाबूजी को अदरक की चाय चाहिये होगी, फिर रात का खाना खायेंगे। चलो अपन तो किचन में ही भले।”

बड़े बेटे ने खीजते हुये कहा- “क्या बाबूजी, क्या है ये ? इतना रुपया पैसा समय, तैयारी सब बेकार कर दिया, इससे अच्छा तो मैं दुकान पर ही बैठा होता, आज की ग्राहकी भी गई। हट्.  .  .”

छोटा बेटा अंशुल थोडा व्यावहारिक बुद्धि का था। उसने मन ही मन सोचा अरे, मैं तो श्मशान से लौट कर जैन वकील साहब को बुलाने वाला था, बाबूजी की वसीयत खुलवाते। हाय, कहां गया मेरा नया बिजनेस !! हाय री किस्मत !!!

छोटी बेटी भी अचानक इस बीच होश  में आकर कूद पड़ी – “क्या बाबूजी आप भी, मैंने तो सोचा था कि मेरा हिस्सा मिल जायेगा तो लखनऊ में एक प्लॉट देखा था उसका सौदा फायनल कर देती, पर हाय रे भाग !!”

जो बड़ा पोता मत ले जाओ, मत ले जाओ की रट लगा रहा था – प्रगट में बोला “वाह दादाजी अच्छा हुआ आप आ गये, अब मुझे बाल नहीं कटाना पडेंगे, पर मन ही मन बोला लो ये बूढे बाबा वापस आ गये अब फिर से पढाई करो, फोन पर ज्यादा बात मत करो, सिगरेट मत पियो ये सब ज्ञान सुनना पडेगा। अरे भगवान, यार ये चमत्कार मेरे ही यहां होना था क्या ?”

रस्सियों से बंधे बंधे ही उमाकान्त जी ने अपनी लाडली पोती की ओर देखा जिसका मेकअप रोने के कारण पूरा बह निकला था, वह भी मन में भुनभुना रही थी- “अब ये दादू वही राग अलापेंगे, लडकों से बातें मत करो, स्कर्ट, फटी जींस, शॉर्ट्स  टॉप मत पहनो, खाना बनाओ, देर तक घर से बाहर मत रहो। शिट्, क्या लाइफ है।“

इस चखचख में उनके कान में पार्टी के कार्यकर्ता की दबी आवाज आई- “अबे तिवारी, ये बुढऊ तो लौट आया यार, अब ये फिर से चंदे का हिसाब, बिल वाउचर सब मांगेगा। यार हम कैसे काम करेंगे। बडी मुसीबत है ये बूढा।“

अपने प्रति सबका इतना प्रेम देखकर उमाकान्त जी का दिल जाने कैसा हो आया, उन्होंने उसी पेड पर बैठे यमदूत की ओर इशारा किया और फिर आंखें मूंद लीं –

इस बार हमेशा के लिये .  .  .  .

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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