पुस्तक – स्त्री-पुरुष

लेखक – श्री सुरेश पटवा

प्रकाशक – नोशन प्रेस, चेन्नई

मूल्य – रु.२६०/-

☆ पुस्तक चर्चा – स्त्री-पुरुष – लेखक श्री सुरेश पटवा – समीक्षक – श्री गोकुल सोनी 

श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष’ को पढ़ते हुए वैचारिक धरातल पर जो अनुभव हुए, वैसे प्राय: अन्य कृतियों को पढ़ते समय नहीं होते. रिश्तों के दैहिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, गूढ़ रहस्यों को धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, संरचनात्मक, परिप्रेक्ष्य में अनावृत्त कर विवेचन करती यह पुस्तक समूचे विश्व के मत-मतान्तरों को समेटते हुए सचमुच एक श्रमसाध्य अन्वेषण है. जहां श्री पटवा जी स्त्री- पुरुष के अंतर्संबंधों की गहराई में उतरते हुए कभी एक मनोवैज्ञानिक नजर आते हैं, तो कहीं इतिहासवेत्ता, कहीं भूगोलवेत्ता, तो कहीं समाजशास्त्री. पुस्तक को पढ़ते हुए लेखक की प्रतिभा के विभिन्न आयाम सामने आते हैं.

suresh patwa-साठीचा प्रतिमा निकालभारतवर्ष की पुरातन संस्कृति और धर्म तथा आध्यात्म का आधार वेद-पुराण, उपनिषद और अन्य धार्मिक ग्रन्थ हैं. जहाँ हमारे ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ अभीष्ट बताये हैं, जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं. इनमे ‘काम’ अर्थात सेक्स को एक सम्मानजनक स्थान दिया गया है. वहीँ सुखी मानवीय जीवन हेतु त्याज्य बुराइयों में काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह जैसे तत्वों या प्रवृत्तियों में ‘काम’ को पहला स्थान दिया गया है. काम दोनों जगह है.

प्रश्न उठता है, ऐसा क्यों? उत्तर स्पष्ट है- यदि काम का नैसर्गिक और मर्यादित रूप जीवन में हो तो समूचा जीवन संगीत बन जाता है, परन्तु काम को विकृति के रूप में अपनाने पर यह व्यक्ति के मन और मष्तिष्क पर अपना अधिकार करके उसे रसातल में पहुंचा देता है. निर्भया के अपराधियों के कृत्य और उनको फांसी, इसके जीवंत उदाहरण हैं.

काम सृष्टि का नियामक तत्व है और जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में पाया जाता है. यह केवल मनुष्यों में ही नहीं, पशु-पक्षियों या मनुष्येतर प्राणियों में भी आचरण और स्वभाव का मूल कारक होता है. यह एक ऐसा विषय है जिसने बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों देवी-देवताओं, दैत्यों, विद्वानों के चिंतन को उद्वेलित किया है. धार्मिक ग्रंथों को लें तो ‘नारद मोह’ इंद्र-अहिल्या, और राजा ययाति की कथा इसके जीवंत उदाहरण हैं, वहीँ यह राजा भर्तहरी को भोग लिप्सा के वशीभूत श्रंगार शतक लिखवाता है. फिर चिंतन की गहराई में धकेलते हुए वैराग्य शतक लिखवाता है.

स्त्री-पुरुष अन्तर्संबंधों में काम तत्व इतना जटिल रूप में दृष्टिगोचर होता है कि जिसको मात्र आध्यात्मिक चिंतन से विद्वान लोग हल नहीं कर पाए. यही वजह है कि धर्म ध्वजा फहराने निकले आदि गुरु शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ में मिथिला विद्वान मंडन मिश्र को तो हरा दिया परंतु उनकी विदुषी पत्नी भारती के काम कला संबंधी सवालों का जवाब ब्रहमचारी सन्यासी आदि शंकराचार्य नहीं दे पाए. क्योंकि एक स्त्री से हारना उनको अपमानजनक लगा अतः उन्होंने एक राजा की देह में परकाया प्रवेश कर काम कला का ज्ञान प्राप्त किया, तब जाकर भारती को हराकर उसे शिष्या बनाया. इस विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि काम एक गूढ़ विषय है.

आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व ऋषि वात्सायन ने समग्र चिंतन-मनन के पश्चात काम सूत्र की रचना की. यही नहीं आधुनिक लेखकों ने नर-नारी पृष्ठभूमि पर प्रोफ़ेसर यशपाल के उपन्यास “क्यों फँसे” और “बारह घंटे” लिखा जिसमें उन्मुक्त यौनाचार, नर नारी संबंधों का विश्लेषण है, साथ में बारह घंटे में प्रेम-विवाह की नैतिकता को केंद्र में रखकर इसके स्वरुप पर विचार किया है. काम की महत्ता मात्र वैदिक धर्म में ही नहीं, वरन अन्य धर्मों में भी देखने में आती है. यदि मुस्लिम धर्म का उदाहरण देखें तो पाएंगे कि उन्हें भी प्रलोभन दिया गया है, कि यदि अल्लाह के बताए मार्ग पर चलेंगे, तो जन्नत में बहत्तर हूरें मिलेंगी. वहीँ ईसाई धर्म में तो प्रभु यीशु का कुंवारी मां के गर्भ से जन्म लेना काम का प्रभावी रूप दर्शाता है.

लेखक ने जहां भारतीय धर्म दर्शन वा साहित्य यथा- कामसूत्र, शिव पुराण, और अन्य धार्मिक ग्रंथों को पढ़ा है वहीँ कबीर, गांधी, ओशो, के साथ ही पाश्चात्य दर्शन-साहित्य जैसे फ्राइड, काल मार्क्स, अरस्तू, प्लेटो, लिविजिन व लाक, विल्हेम, वुंट, टिनेचर, फेक्नर, हेल्मोलेत्स, हैरिंग, जी ई म्युलर डेकार्ट, लायब, नीत्से, ह्यूम,हार्टले, रीड, कांडीलेक, जेम्स मिल, स्टुअर्ट मिल, बेन, कांट, हरबर्ट, बेवर, हेल्मो, डार्विन, फ्रेंचेस्को, पेट्रार्क, बर्ट्रेण्ड रसेल, जैसे कई विदेशी वैज्ञानिकों, मनोवैज्ञानिकों, समाज शास्त्रियों के सिद्धांतों का अध्ययन कर, उनके जीवन-दर्शन, चिंतन को इस पुस्तक में समाहित किया है.

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पग पग नर्मदा दर्शन के सहयात्री श्री सुरेश पटवा जी से पहली बार इस यात्रा में ही परिचय हुआ। वे मुझसे 5 साल बड़े हैं। स्टेट बैंक के सहायक महाप्रबंधक पद से रिटायर हुए हैं। हमारी पैदल नर्मदा यात्रा के सूत्र धार वे ही हैं। आपको लिखने पढ़ने का शौक है, इतिहास की सिलसिलेवार तारीख के साथ जानकारी उन्हें कंठस्थ है।वे लेखक भी हैं उनकी पहली पुस्तक “गुलामी की कहानी” में इतिहास के अनछुए किस्सों को रोचक ढंग से लिखा गया है। आपकी दूसरी पुस्तक “पचमढ़ी की खोज” जेम्स फार्सायथ का रोमांचक अभियान है, आपने तीसरी पुस्तक ” स्त्री पुरुष की उलझनें “ पति पत्नी और प्रेमियों के रिश्तों की देहिक, भावात्मक,और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर केन्द्रित है। श्री पटवा जी ने नर्मदा घाटी के इतिहास और यात्रा अनुभव को अपनी पुस्तक “नर्मदा” सौंदर्य, समृद्धि,और वैराग्य की नदी में लिखा है।

– श्री अविनाश दवे, सेवानिवृत सेंट्रल बैंक

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लेखक ने अपना एक सिद्धांत प्रतिपादित किया है, कि ईश्वर ने मंगल ग्रह के पत्थरों और कड़क मिट्टी को लेकर मजबूत हड्डियों और पुष्ट मांसपेशियों से आदमी बनाया, उसके बाद उसका दिमाग बनाकर उसमें ताकत, क्षमता, उपलब्धि और सफलता प्राप्त करने के बीज रोपित कर दिए. उसे ऐसी योग्यता का एहसास दिया, कि कठिन से कठिन परिस्थिति का हल ढूंढ सकता है. उसे इस भाव से भर दिया, कि मुश्किलों से निकलने के लिए मंगल ग्रह के जीव के अलावा किसी अन्य जीव का सहयोग वांछित नहीं और दिमाग में अजीब सी रासायनिक चीज डाली कि जवान औरत को देखकर उसे पाने हेतु उसमें तीव्र इच्छा जागृत हो. जिसे मात्रा अनुसार क्रमशः प्रेम, कामुकता, और वासना कहा गया. क्योंकि उसे सृष्टि का सृजनचक्र अनवरत जारी रखना था, इसीलिए यह सृष्टि कायम रखने के लिए उसने शुक्र ग्रह की हल्के, मुलायम, पत्थर और नरम मिट्टी से सुंदर स्त्री बनाकर उसके दिमाग में प्रेम-भावना, कमनीयता, अनुभूति, समस्या आने पर दूसरों से साझा कर, सुलझाने की प्रवृत्ति और आदमी से आठ गुना अधिक काम का अंश, दिमाग में रसायन देकर सुंदर शरीर-सौष्ठव, कामुक अंग, मन की चंचलता, परंतु ममता की भावनाओं से भर दिया. सजने-सँवरने द्वारा काम उद्दीपन और पसंद के आदमी से सृजन हेतु चयन का रुझान दिया. इतना ही नहीं, पशु पक्षियों में काम अंश की स्थापना की, ताकि सृष्टि का क्रम निर्वाध गति से चलता रहे. क्योंकि दोनों की वाह्य संरचना और आंतरिक सोच में पर्याप्त अंतर है, इसलिए आपस में समस्याएं भी उत्पन्न होती है. दोनों एक दूसरे को अपने जैसा समझ लेते हैं. अंतर भूल जाते हैं. तब एक दूसरे पर भावनात्मक शासन की प्रवृत्ति जागृत होती है. जब आपसी समस्या उत्पन्न होती है, तो आदमी चिंतन की आंतरिक गुफा में प्रवेश कर जाता है. वह अपनी समस्या को बगैर किसी से बाटें, स्वयं सुलझाना चाहता है और औरत के बार बार टोकने पर क्रोधित हो जाता है. वहीँ औरत जब समस्या अनुभव करती है, तो वह साझा करना चाहती है. वह चाहती है, कि आदमी धैर्य पूर्वक उसकी बात सुन भर ले, समस्या तो वह स्वयं हल कर लेगी. ऐसा नहीं होता, तो वह तनाव ग्रस्त होकर ऊपर से भले संयत दिखे, पर दुखी होकर अपना अस्तित्व खोने लगती है. यदि दोनों परस्पर एक दूसरे की मानसिक संरचना और शरीर में स्रावित रसों से उत्पन्न भावना चक्रों को ध्यान में रखते हुए परस्पर व्यवहार करें, तो जीवन की सारी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जाती है.

लेखक यह भी मानता है, कि पूरे जीवन के प्रत्येक कार्य के मूल में काम होता है, जिसे उसने वात्सायन, फ्राइड, रजनीश आदि के सिद्धांत द्वारा स्पष्ट करते हुए रजनीश के उपन्यास “संभोग से समाधि की ओर” का विश्लेषण कर समझाने की चेष्टा की है. पुस्तक में औरत एवं आदमी की वाह्य अंगों की संरचना एवं आंतरिक स्वभाव की दृष्टि से कई वर्गीकरण भी किए गये हैं, तो जीवन में आने वाली विभिन्न समस्याओं और उनके समाधान के तरीके भी सुझाए गये हैं.

प्रेम के दैहिक वा मनोवैज्ञानिक रहस्य को समझने हेतु विभिन्न उदाहरण, और अंत तीन प्रेम कहानियां भी दी गई हैं, जो पुस्तक को सरल और बोधगम्य बनाती हैं. पृष्ठ ४७ से ५४ तक मनोविज्ञान के विकास का विस्तृत इतिहास पढ़ते हुए लगता है, कि लेखक जैसे अपने मूल विषय से भटक कर विषयांतर होकर उन मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों का विश्लेषण करने लगा हो जो पूर्णत: स्त्री-पुरुष अंतर्संबंधों के आवश्यक कारक नहीं है तथापि पृष्ठ 62 से 66 पठनीय है जिसमें भारतीय संस्कृति और हिंदू दर्शन के बीज निहित हैं.

हमारे प्राचीन दर्शन में काम संबंधी वर्जनाएँ नहीं थी. आज के युग में काम विकृति का कारण ही यही है, कि उसे निंदनीय, गंदा, नियम विरुद्ध, त्याज्य बताकर ही बचपन से विचारों में ढाला जाता है, अतः जब नियम टूटता है तो व्यक्ति को ग्लानि भाव होने लगता है. लेखक के अनुसार यह नैसर्गिक प्रवृत्ति है और इसे सहजता पूर्वक अपनाकर मर्यादित रुप से आनंद लेने में कोई बुराई नहीं है. अंदर से प्रत्येक स्त्री-पुरुष इसे चाहते हुए ऊपर से परंपराओं के वशीभूत हो, इसकी आलोचना करते हैं, परंतु लेखक की दृष्टि में यह तथ्य भी मैं लाना चाहता हूँ कि जब कोई आदत या प्रवृत्ति बहुत सामान्य हो जाएगी तब वह निश्चित ही अपना आकर्षण खो देगी. लंबे अंतराल के पश्चात जो मिलन होता है वह कई गुना आनंद देता है. दूसरे अनावृत्त के प्रति अधिक आकर्षण होता है, पाने की चाह और आनंद होता है, अतः आंशिक वर्जनाओं का अपना अलग महत्त्व है. उसी से समाज का स्वरुप बना रहता है. यदि पुस्तक में राजा ययाति के चरित्र का चित्रण किया जाता तो विषय की व्यापकता में वृद्धि होती और यह सोने पर सोहागा सिद्ध होता। पुस्तक को पाठ्यपुस्तक की तरह लिखा गया है. वास्तव में यह पुस्तक ग्रेजुएशन के कोर्स में पढाये जाने लायक है, पुस्तक का शीर्षक एकदम सपाट “स्त्री पुरुष” है. लेखक विद्वान हैं अत: अच्छा होता कि इसका शीर्षक कलात्मक, यथा- जीवन और प्रेम, सुखद दांपत्य का रहस्य, सुखद अंतर्संबंधों का रहस्य, या सृष्टि-सृजन में प्रेम की भूमिका जैसा कलात्मक शीर्षक होता तो अधिक अच्छा लगता.

कुल मिलाकर यह पुस्तक चिंतन को नया आयाम देकर काम की विज्ञान और मनोविज्ञान सम्मत परिभाषा देते हुए स्त्री-पुरुष के बीच सौहार्द्र स्थापित करने की कुंजी है जो सुखद दाम्पत्य जीवन की नींव है. टीनेजर से लेकर सभी आयु वर्ग के पाठकों के  पढ़ने योग्य है यह पुस्तक. श्री सुरेश पटवा जी को इस सुंदर सार्थक साहित्य-सृजन हेतु बधाई एवं उन्नत लेखकीय भविष्य हेतु हार्दिक मंगलकामनाएं.

 

समीक्षक .. श्री गोकुल सोनी (कवि, कथाकार, व्यंग्यकार)

ए-४, पैलेस आर्चर्ड, फेस-१,  कोलार रोड, भोपाल. मो- ७०००८५५४०९

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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