श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

☆ खिचड़ी सरकार और कोप भवन की जरूरत ☆

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।  बतौर सिविल इंजीनियर  कोपभवन के आर्किटेक्ट की परिकल्पना उनका तकनीकी अधिकार है किन्तु एक सधे हुए व्यंग्यकार के तौर पर उन्होने वर्तमान राजनीति में कोपभवन की आवश्यकता का सटीक विश्लेषण किया है। निश्चित ही श्री विवेक जी ने ऐसे रेसोर्ट्स की भी परिकल्पना की होगी  जो कोपभवन के रास्ते में पड़ते  हैं । एक बेहतरीन व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी को बधाई।)

भगवान श्री राम के युग की स्थापत्य कला का अध्ययन करने में एक विशेष तथ्य उद्घाटित होता है, कि तब भवन में रूठने के लिये एक अलग स्थान होता था। इसे कोप भवन कहते थे। गुस्सा आने पर मन ही मन घुनने के बजाय कोप भवन में जाकर अपनी भावनाओं का इजहार करने की परम्परा थी। कैकेयी को श्री राम का राज्याभिषेक पसंद नहीं आया वे कोप भवन में चली गई। राजा दशरथ उन्हें मनाने कोप भवन पहुंचे- राम का वन गमन हुआ। मेरा अनुमान है कि अवश्य ही इस कोप भवन की साज-सज्जा, वहां का संगीत, वातावरण, रंग रोगन, फर्नीचर, इंटीरियर ऐसा रहता रहा होगा, जिससे मनुष्य की क्रोधित भावना शांत हो सके, उसे सुकून मिल सके। यह निश्चित ही हम सिविल इंजीनियर्स के लिये शोध का विषय है। बल्कि मेरा कहना तो यह है कि पुरातत्व शास्त्रि़यों को श्री राम जन्म भूमि प्रकरण सुलझाने के लिये अयोध्या की खुदाई में कोप भवन की विशिष्टता का ध्यान रखना चाहिए।

अटल जी की सरकार, जार्ज साहब के समय  पुन: कोप भवन प्रासंगिक हो गया था ।  खिचड़ी सरकारों के युग में यह सर्वविदित सत्य है कि खिचड़ी में दाल-चावल से ज्यादा महत्व घी, अचार, पापड़, बिजौरा, सलाद, नमक और मसालों तथा दही, प्याज का होता है। सुस्वादु खिचड़ी के लिये इन सब की अपनी-अपनी अहमियत होती है, भले ही ये सभी कम मात्रा में हो, पर प्रत्येक का महत्व निर्विवाद है।

प्री पोल एक्जिट पोल के चक्कर में हो, या कई चरणों के मतदान के चक्कर में, पर हमारे वोटर ने जो `राम भरोसे´ है कई बार ऐसा मेन्डेट दिया कि सरकार ही `राम भरोसे´ बन कर रह गई .  राम भक्तों के द्वारा, राम भरोसे के लिये, राम भरोसे चलने वाली सरकार। आम आदमी इसे खिचड़ी सरकार कहता है। खास लोग इसे `एलायन्स´ वगैरह के उम्दा नामों से पुकारते हैं।

इन सरकारों के नामकरण संस्कार, सरकारों के मकसद वगैरह को लेकर मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं, नेता वगैरह  रूठते ही हैं, जैसे बचपन में मै रूठा करता था, कभी टॉफी के लिये, कभी खिलौनों के लिये, या आजकल मेरी पत्नी रूठती है, कभी गहनों के लिये, कभी साड़ी के लिये, या मेरे बच्चे रूठते हैं, कभी बड़े टी वी के लिये या कभी मूवी के लिये .देश-काल, परिस्थिति व हैसियत के अनुसार रूठने के मुद्दे बदल जाते हैं, पर रूठना एक `कामन´ प्रोग्राम है।

रूठने की इसी प्रक्रिया को देखते हुये `कोप भवन´ की जरूरत प्रासंगिक  है। कोप भवन के अभाव में बडी समस्या होती रही है। ममता रूठ कर सीधे कोलकाता चली जाती थी, तो जय ललिता रूठकर चेन्नई। बेचारे जार्ज साहब कभी इसे मनाने यहां, तो कभी उसे मनाने वहां जाते रहते थे। खैर अब उस युग का पटाक्षेप हो गया है. जार्ज साहब को विनम्र श्रद्धांजली, उनका रूठो को मनाने में एक्सपर्टाईज था.  भगवान उन्हें कम से कम अब चिर विश्राम दे , वरना उस युग में उनके जैसा संयोजक ही था जो सरकार को संयोजित रख सका. पर आज भी केवल किरदार ही तो बदले हैं। कभी अचार की बाटल छिप जाती है, कभी घी की डिब्बी, कभी पापड़ कड़कड़ कर उठता है, तो कभी सलाद के प्याज-टमाटर-ककड़ी बिखरने लगते हैं- खिचड़ी का मजा किरकिरा होने का डर बना रहता है।जार्ज साहब ने रूठो को मनाने की, संयोजन की अपनी कला का चार्ज किसी को नही दिया .

अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधान सभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह एक एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे। इससे सबसे बड़ा लाभ मोर्चा के संयोजको को होगा। विभागो के बंटवारे को लेकर, किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही मांग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा, वह कोप भवन में चला जाएगा। रेड अलर्ट का सायरन बजेगा। संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुंच, रूठे को मना लेगा- फुसला लेगा। लोकतंत्र पर छाया खतरा टल जायेगा।

जनता राहत की सांस लेगी। न्यूज वाले चैनलों की रेटिंग बढ़ जायेगी। वे कोप भवन से लाइव टेलीकास्ट दिखायेंगे। रूठना-मनाना सार्वजनिक पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप, सैद्धांतिक वाग्जाल के तहत पब्लिक हो जायेगा। आने वाली पीढ़ी जब `घर-घर´ खेलेगी तो गुडिया का कोपभवन भी बनाया करेगी बल्कि, मैं तो कल्पना करता हूँ  कि कहीं कोई मल्टीनेशनल कंपनी `कोप-भवन´ के मेरे इस 24 कैरेट विचार का पेटेन्ट न करवा ले, इसलिये मैं जनता जनार्दन के सम्मुख इस परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा हूँ . स्वर्गीय जार्ज साहब को नमन करते हुये .

मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुण्ठित रहने से बेहतर है, कुण्ठा को उजागर कर बिन्दास ढंग से जीना। अब हम अपने राजनेताओं में त्याग, समर्पण, परहित के भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तो उनके स्वार्थ, वैयक्तिक उपलब्धियों की महत्वकांक्षाओं के चलते, खिचड़ी सरकारों में उनका कुपित होना जारी रहेगा, और कोप भवन की आवश्यकता, अनिवार्यता में बदल जायेगी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  “विनम्र”

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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