श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो)

☆ संस्मरण # 112 – पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो – 5 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

गुलाबवती बैगा एक ऐसी लड़की की कहानी है जो बिना खिले ही मुरझा जाती अगर दो प्रेरक व्यक्तित्व उचित समय पर हस्तक्षेप न करते। यह दो व्यक्तित्व हैं उसकी अनपढ़ नानी, हर्राटोला निवासिनी भुलरिया बाई बैगा और दूसरे व्यक्ति हैं कलकत्ता से घूमते फिरते अमरकंटक पहुंचे डाक्टर प्रवीर सरकार जो पेशे से होम्योपैथिक चिकित्सक हैं, स्वभाव से साधू हैं और मन विवेकानन्द के भक्त। डाक्टर सरकार जब  1995में अमरकंटक आए और यहां के बैगा आदिवासियों की व्यथा, विपन्नता देखी तो फिर यहीं बस गए। पहले लालपुर और फिर पोडकी में उन्होंने एक कच्चे मिट्टी और घांस-फूस के मकान में चिकित्सालय और बैगा बच्चियों के लिए 1996में स्कूल खोला और उसमें भर्ती होने को, अपनी नानी के साथ सबसे पहले आई गुलाबवती बैगा, जिसकी मां का बचपन तो बगल के गांव हर्राटोला में बीता पर ब्याह हुआ सलवाझोरी में जो आजकल छत्तीसगढ में है। यह बच्ची जब 2001में पांचवीं कक्षा पास करने के बाद जब अपने पितृगृह गई तो पिता ने फरमान जारी किया कि बहुत पढ़ लिया चलो सरपंच के पास तुम्हें कोई नौकरी दिलवाएंगे और तुम्हारा ब्याह करेंगे। बैगा आदिवासियों की बिरादरी में सरपंच या मुखिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और अपने टोले या मोहल्ले के निवासियों के जीवन-यापन संबंधित फैसले वहीं करता है। अबोध बालिका मन ही मन घुटती, पिता से विरोध में कुछ कह न पाती और मां से अपना दुःख व्यक्त करती पर पिता कहां सुनता वह तो अपने समाज की मर्यादाओं से बंधा था। ईश्वर ने शायद बालिका की आर्त पुकार सुन ली और उसकी नानी अचानक ही वहां पहुंच गई। मां बेटी ने मिलकर नानी को सब हाल सुनाया और नानी भी अड़ गई कि गुलाब आगे पढेगी। पिता के तमाम तर्क की ज्यादा पढ़ लिख जाएगी तो कुलक्षणी हो जाएगी, घर के काम-काज कब सीखेगी, इससे बियाह कौन करेगा, नानी को झुका न सके। नानी भी जिद्द कर बैठी की गुलाब को वह पढ़ाएगी। पिता कहते पढ़ाने लिखाने रुपैया कहां से आएगा, नानी और नातिन कहते बाबूजी यानि डाक्टर सरकार देंगे। लेकिन पुरुष शक्ति के आगे कभी नारी का अड़ना सफल हुआ है? शायद नहीं। पर इस बार हो गया, पिता नहाने गए और बैगाओं को नहाने के लिए तीन चार किलोमीटर दूर किसी जंगली झरने पर ही पानी नसीब होता है तो नानी ने मौका देखा, नातिन से कहा चल गुलाब मेरे साथ तुझे मैं आगे पढ़ाऊंगी। पितृगृह से आई बालिका उसके बाद डाक्टर सरकार के संरक्षण में रही। उन्होंने भी गुलाब के पिता और गांव के सरपंच को समझाया थोड़ी दम भी दी कि बाल विवाह यानी पुलिस कोर्ट कचहरी आदि की झंझट। खैर सब गुस्से में पांव पटकते चले गए और गुलाब भर्ती हो गई पोडकी स्थित शासकीय माध्यमिक विद्यालय में।  जहां से वह 2004में आठवीं कक्षा उत्तीर्ण हुई। फिर नौवीं और दसवीं की पढ़ाई उसने समीपस्थ ग्राम भेजरी से उत्तीर्ण की और हायर सेकंडरी स्कूल अमरकंटक से बारहवीं 2008में उत्तीर्ण हो गई। डाक्टर सरकार उसके अभिभावक बने रहे। कपड़े भोजन और पुस्तकों की व्यवस्था डाक्टर सरकार द्वारा संचालित श्रीरामकृष्ण विवेकानन्द सेवाश्रम पोडकी करता, गुलाब का काम सिर्फ पढ़ना था। बारहवीं होते होते अबोध बालिका से किशोरी बन चुकी गुलाब के सपने तो ऊंची उड़ान भरने लगे। वह  इस क्षेत्र में स्थापित हो रहे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के निर्माण कार्यों को देखती और वहां पढ़ाते प्राध्यापकों को कभी अमरकंटक में तो सेवाश्रम में डाक्टर सरकार से चर्चा करते देखती। इच्छा हुई मैं भी ग्रेजुएट बनूंगी। और हिम्मतवाले कभी हारते नहीं है। डाक्टर सरकार कन्याहट के आगे फिर नतमस्तक हुए और उसे विश्वविद्यालय ले गए बीए में दाखिला कराने। इस विश्वविद्यालय से गुलाबवती बैगा, नानी के गांव वालों की गुलबिया जब 2011में स्नातक की उपाधि धारण कर बाहर निकली तो वह अमरकंटक क्षेत्र की पहली बैगा महिला बनी बीए पास । सरकार ने उसके प्रयासों का सम्मान किया और प्राथमिक शाला धमगढ में उसे शिक्षिका बना दिया। और अभी 20जनवरी 2021को मुख्यमंत्री ने भी सम्मानित किया।गुलाबवती बैगा के पुरुषार्थ की कहानी और उसके भविष्य निर्माण में नानी के योगदान की बात जब इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय के कुलपति डाक्टर श्री प्रकाश मणि त्रिपाठी ने सुनी तो उन्होंने सपत्नीक गुलाबवती बैगा व उसकी नानी वे मां के साथ फोटो खिंचवाई और मदनलाल शारदा फैमिली फाउंडेशन पुणे ने भी उसे पुरस्कृत करते हुए सम्मानित किया।

नौकरी पश्चात 2012में गुलाबवती का जब विवाह हुआ तो उसे मनचाहा वर मिला जो उसी के समान स्नातक है। अब दो बच्चों की मां, 2013में राजवीर व 2017में अर्नव बैगा की जननी, जब स्कूटी पर सवार होकर, करीने से तैयार होकर  साफ सुथरे कपड़े पहनकर स्कूल पढ़ाने जाती है तो बहुत सी आदिवासी बालिकाएं उसे घेर लेती हैं और उसकी राम कहानी उत्साह से सुनती हैं। उसकी कहानी उन बच्चियों को प्रेरणा देती है क्योंकि गुलाबवती न तो राजकुमारी है और न तो कोई परी  वह तो उनके समुदाय से बाहर निकली एक बहादुर स्वयंसिद्धा है।

मैंने उससे पूछा तुम तो पढ़ गई पर बाकी लोगों को क्या सिखाती हो तो वह थोड़ा झिझकते हुए बोलती हैकि दादा मैं तो बाबूजी की सीख सबको देती हूं कि पढ़ो लिखो, सोच बदलो और परिवर्तन करो। वह कहती है कि बैगा आदिवासियों में खान पान को लेकर कई बुराइयां हैं वे चूहा तक मारकर खा जाते हैं, मद्यपान बहुत करते हैं और पौष्टिक आहार नहीं लेते, शौच वगैरह भी नहीं करते, नहाना धोना तो बहुत कम करते हैं, महिलाओं का पहनावा भी पुरातनपंथी है। यह सब बदलना चाहिए और वह अपने लोगों इन परिवर्तनों को स्वीकार करने को कहती है । मैंने कहा फिर तो उनका बैगापन ही खत्म हो जाएगा तो उसका जवाब है कि बैगापन तो हमारे भोलेपन में है वह तो गोदने की तरह हमारे तन-मन में व्याप्त है। बैगानी संस्कृति को हमें बचाना है पर उन भावनाओं और परम्पराओं को तो त्यागना ही होगा जो हमें डरपोक बनाती है। वह कहती हैं आज भी बैगा मोटरसाइकिल पर अंजान व्यक्ति को देखकर जंगल भाग जाते हैं। बीमार पड़ते हैं तो दवाई नहीं करवाते वरन टोना टोटका करते फिरते हैं। बैगा लड़के लड़कियां पढ़ेंगे लिखेंगे तो डर खत्म होगा और वे अपनी बात खुलकर कह पाएंगे, स्वच्छता से रहना सीखेंगे तो बीमार नहीं पड़ेंगे। डाक्टर सरकार के लिए उसके मन में अगाध श्रद्धा है, वह कहती है कि बाबूजी ने उसे बस जन्म भर नहीं दिया बाकी उसके मां-बाप तो वहीं हैं। वह बताती है कि हमारे पिता की जो आमदनी थी उससे तो बस गुजर बसर लायक व्यवस्था बनती थी, नानी भी मेहनत मजदूरी कर बस अपना पेट भरने लायक कमाती थी। ऐसी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में मेरा पढ़ पाना तो नामुमकिन ही था। लेकिन बाबूजी ने बहुत सहारा दिया। उन्होंने मुझे इसी सेवाश्रम के छात्रावास में रखा  और भोजन, कपड़ों और किताबों की व्यवस्था की। जब कभी गाँव के लोग ताने देते मेरे पढने स्कूल जाने का मजाक उड़ाते तो बाबूजी उन्हें डांटते और मुझे समझाते मेरा मनोबल बढाते।आज अगर मैं सुखी जीवन बिता रही हूँ तो यह सब कुछ बाबूजी के कारण ही संभव हो सका। अगर वे इस क्षेत्र में न आते तो मेरे जैसी अनेक बैगा लडकियाँ परिपाटी और परम्पराओं की बलि चढ़ गई होती।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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