श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आओ चिंता पालें”।)

?अभी अभी # 182 ⇒ आओ चिंता पालें? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सबकी अपनी पसंद होती है, अपने अपने शौक होते हैं। कोई कबूतर पालता है तो कोई गैया, कोई तोता पाले तो कोई पाले गवैया, कोई संगीत का शौकीन तो कोई करे ता ता थैया। क्या करें उन लोगों का, जो मुफ्त में किसी से दुश्मनी भी पालें और आस्तीन में सांप भी।

इस पापी पेट को पालना इतना आसान भी नहीं। कोई आया बच्चों की देखभाल कर अपना पेट पालती है तो कोई किसान खेती बाड़ी के साथ साथ जानवरों को भी पालता है। बेचारे बैल खेत को जोतते हैं तो गाय भैंस के दूध से किसान की आमदनी भी हो जाती है। मुर्गी पालन और कुक्कुट पालन के साथ ही साथ मधुमक्खी पालन भी कई लोगों का व्यवसाय रहता चला आया है।।

अगर इंसान के सर पर परिवार का बोझ और जिम्मेदारी है तो उसे उसकी चिंता तो पालनी ही पड़ती है। बहुत पुरानी कहावत है ;

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:।

न हि सुप्तस्य सिंहस्य

प्रविशन्ति मुखे मृगा:।।

माना कि चिंता चिता है, चिंता से कुछ हासिल नहीं होता, लेकिन रोजमर्रा की कठिनाई और परेशानियों के बीच निश्चिंत और गैर जिम्मेदार भी तो नहीं रहा जा सकता। बड़े अरमान थे, उत्साह उत्साह में परिवार बड़ा होता चला गया, हमें तो हम दो हमारे दो में ही पसीने आ गए, जिनके हम दो हमारे नौ होंगे वे बाल बच्चों के साथ साथ कितनी चिंता और पालते होंगे।

फिर भी पालक तो पालक होता है, चाहे दो बच्चों का परिवार हो या दस बारह का। जितने बच्चे उतनी उनकी पढ़ाई लिखाई, खानपीन और बाद में शादी की चिंता। बीमारी और गरीबी में आटा अगर होता भी था, तो गीला ही होता था। आज की तरह कहां बेचारों को मुफ्त राशन नसीब होता था। आज सरकार चिंता पाल रही है, कल तक तो परेशानियों का मारा, आम इंसान ही सब चिंता पालता था ना।

तब कोई मामा न तो लाडली बहना के लिए इस तरह आकर खड़ा होता था, और ना ही वृद्धों को कोई परिवारिक पेंशन सुविधा की गारंटी थी। कितना कर्जा कर करके बेटियों की शादी की। कर्ज के मारे रात रात भर नींद अलग नहीं आती थी, और ऊपर से यह चिंता, कहीं हमारी बेटी दुखी तो नहीं।।

वास्तविक पालनहारा तो वह निर्गुण और न्यारा ही है, लेकिन चिंता की शर शैय्या पर पड़ा, काम और कर्जे का मारा एक आदमी, कोई भीष्म पितामह नहीं, जो इच्छा मृत्यु के लिए भी अपने आराध्य का इंतजार करता फिरे। चिंता ने मारे जवानी में बूढ़े जवां कैसे, गरीबी और मजबूरी खा गई, इंसां कैसे कैसे।

कहना बहुत आसान है ;

किस किसको याद कीजिए

किस किसको रोइये।

आराम बड़ी चीज है,

मुंह ढंक कर सोइये।।

कल की तुलना में आज छोटे परिवार के अलावा भी बहुत कुछ है पालने को। सुबह बच्चों के स्कूल और टिफिन की चिंता, चार रोज काम वाली बाई नहीं आएंगी उसकी चिंता। बच्चों का होमवर्क, कोचिंग, परसेंटेज और अच्छे भविष्य की चिंता, नौकरी में बॉस और दुकानदारी में नफा नुकसान की चिंता। उम्र की चिंता के साथ, बी पी, शुगर, कोलोस्ट्राल और ओव्हरवेट की चिंता।

सुबह जल्दी उठकर स्ट्रेस मैनेजमेंट के लिए योग और ध्यान के अलावा मॉर्निंग वॉक की चिंता भी हम पाल ही रहे हैं। उधर एक युद्ध से निपटे तो इधर दूसरे में गले पड़ गए। वे कहां हमारी छाती पर चढ़ रहे हैं, लेकिन एक हम जो हैं न, चिंता को न्यौता देते फिर रहे हैं। मनवा ! रात भर जाग, तबीयत से फिर देश की चिंता पाल।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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