श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उंगली कटा के शहीद”।)
अभी अभी # 209 ⇒ उंगली कटा के शहीद… श्री प्रदीप शर्मा
मुझे उंगली कटा के शहीद होने का कोई शौक नहीं, लेकिन मेरे हर शुभ अशुभ, अच्छे बुरे, और खरे खोटे काम में, मेरी समस्त उंगलियों का योगदान अवश्य रहता है। स्वावलंबी होने के कारण, मैं अपने समस्त काम अपने हाथों से ही करता हूं, क्योंकि ये हाथ हमारी ताकत ही नहीं, अपना हाथ जगन्नाथ भी है। हाथों की इस मजबूती ही ने गब्बर को यह कहने पर मजबूर कर दिया था, ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर।
और भूलिए मत, ठाकुर ने क्या कहा था, तेरे लिए तो मेरे पांव ही काफी हैं गब्बर ! यानी हाथ पांव हैं, तो हम हैं। क्या हम इन हाथ पाॅंवों की कल्पना पाँचों उंगलियों के बिना भी कर सकते हैं। यहां ना तो हम यह कहना चाहते हैं कि उंगली टेढ़ी किए बिना घी नहीं निकलता अथवा किसी के सामने घुटना टेकने वाले से तो एक स्वाभिमानी अंगूठा छाप ही
भला। फिर भी सच तो यह है कि अंगूठे की असली कीमत तो एक द्रोणाचार्य जैसा गुरु ही जानता है।।
मुझे अपनी पाॅंचों उंगलियों पर गर्व है, इसलिए नहीं कि वे सदा घी में रहती हैं, लेकिन इसलिए, क्योंकि आपस में बराबर नहीं होते हुए भी उनमें गजब की एकता और एकजुटता है।
जब भी कोई काम करना होता है, पांचों उंगलियां मुट्ठी बांध लेती हैं, और काम तमाम करके ही छोड़ती हैं।
क्या आप अपने हाथ से कोई भी काम, बिना उंगलियों की सहायता के कर सकते हैं। कलम हो या हथौड़ा, अगर उंगलियां सहयोग ना करे तो इंसान क्या करे। मुझे खेद है कि इस स्वार्थी संसार ने सारा श्रेय इन हाथों को तो दिया है, लेकिन इन उंगलियों की कभी तारीफ नहीं की।।
लेकिन जहां किसी भी काम में हाथ डालो, बदनाम बेचारी ये उंगलियां ही होती हैं। रहने दो, फालतू में उंगली मत करो। फिर भी, दिल है कि, उंगली किए बिना मानता नहीं। एक सुबह हमने भी एक काम में उंगली डाली, और उंगली कटा बैठे। बस उंगली में थोड़ा सा कटने का अहसास हुआ, और तत्काल खून टपकने लगा।
ऐसा लगा, किसी ने पानी का नल खुला छोड़ दिया है।
यह वक्त उंगली कटा के
शहीद होने का नहीं होता, बहते खून को थामने का होता है। कटी उंगली को मुंह में रखकर अपना ही खून चूसना, एक सात्विक ना सही, लेकिन स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, जिसके पश्चात् ही प्राकृतिक चिकित्सा प्रारंभ होती है।।
हमारी पीढ़ी के चक्कू और ब्लेड से पेंसिल छीलने वाले बच्चे, अक्सर अपनी उंगली कटा लेते थे। वह जमाना कहां शार्पनर और इरेजर
का था, और कौन हर आए दिन उंगली करने पर एंटी टेटनस का इंजेक्शन लगवाता फिरे। बोरोलिन और बोरोप्लस ने आजकल हल्दी का स्थान ले लिया है, जिससे सैप्टिक की संभावना भी क्षीण हो जाती है।
एक कटी उंगली पूरे शरीर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। पूरे शरीर को यह अहसास हो जाता है, कि शरीर का कोई अंग उंगली कटाकर शहीद हुआ है। लेकिन जब यह खबर मस्तिष्क तक पहुंच जाती है, तो वह इसे एक जुमला मानकर खारिज कर देता है। किसी की खातिर भले ही सर कटाएं, लेकिन जरा भी शोर ना हो। महज उंगली काटकर शहीद बनने का नाटक ना करें।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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