श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ला – परवाह…“।)
अभी अभी # 218 ⇒ ला – परवाह… श्री प्रदीप शर्मा
बड़ी विचित्र है यह दुनिया। जिसे खुद की परवाह नहीं, जिसे अपने हित अहित की चिंता नहीं, उससे हम यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वह कहीं से परवाह लेकर आए। बस कह दिया लापरवाह ! पर वह जाए तो कहां जाए परवाह ढूंढने, तलाशने।
भाषा कोई भी हो, एक ही शब्द के थोड़े फेर बदल से न केवल उसका अर्थ बदल जाता है, कभी कभी बड़ी विचित्र स्थिति भी पैदा हो जाती है। अब जवाब को ही ले लीजिए ! किसी से जब कोई प्रश्न पूछा जाता है, तो जवाब तलब किया जाता है। अगर उसने जवाब नहीं दिया तो हम नहीं कहते लाजवाब। यही कहते हैं, क्यों क्या हुआ ! मुंह में क्या दही जमा हुआ है ? और अगर कोई सेर को सवा सेर मिल गया, तो वाह जनाब ? अब कहकर देखिए लाजवाब।।
ऐसी कोई बीमारी नहीं, जिसका इलाज संभव नहीं, लेकिन संजीवनी बूटी लाना भी सबके बस की बात नहीं, इसलिए कुछ बीमारियों को हम लाइलाज मान बैठते हैं। कोई इलाज ला नहीं सकता, बीमारी ठीक नहीं हो सकती, इसलिए वह लाइलाज हो गई। बड़ी से बड़ी बीमारी का इलाज संभव है लेकिन किसी के स्वभाव अथवा फितरत का कोई क्या करे। वह लाइलाज है।
जवाब से ही जवाबदार शब्द बना है जिसे अंग्रेज़ी में रिस्पांसिबल कहते हैं। जो काम जिसके जिम्मे, वह उसके लिए जिम्मेदार। अगर काम नहीं किया तो वह
इरेस्पोंसीबल हो गया। बोले तो गैर ज़िम्मेदार। वैसे गैर का मतलब दूसरा होता है। तो जिसके लिए वह जिम्मेदार है, उसके लिए कोई गैर कैसे जिम्मेदार हो गया।।
भाषा और व्याकरण में बहस नहीं होती। Put पुट होता है और but बट। जिस तरह knife में k साइलेंट होता है और psychology में पी साइलेंट होता है, उसी तरह जो अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाता, उसके लिए वह ही जिम्मेदार होता है, कोई दूसरा गैर नहीं। और यह गैर जिम्मेदार इंसान भी वह खुद ही होता है, कोई ऐरा गैरा नहीं।
परवाह कहीं से लाई नहीं जाती, उसे भी जिम्मेदारी की तरह महसूस किया जाता है। हमें अपनी ही नहीं, अपने वालों की भी परवाह हो, अपने परिवेश और पर्यावरण के प्रति हम जागरुक रहें, परिवार, समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्य और जिम्मेदारियों को समझें। सभी समस्याओं और बीमारियों का निदान संभव भी नहीं होता। प्रयत्नरत रहते हुए जीवन के सच को स्वीकारना भी पड़ता है।।
दो विपरीत दर्शन हैं जीवन के ! मेहनत करे इंसान तो क्या काम है मुश्किल। निकालने वाले पत्थरों और पहाड़ों में से भी रास्ता निकाल लेते हैं तो कहीं कभी कभी जीवन में रास्ता ही नजर नहीं आता। किसी रोशनी की, मददगार की, रहबर की जरूरत महसूस होती है।
जिसका कोई हल नहीं, कोई निदान नहीं, कभी कभी उसके साथ साथ भी चलना ही पड़ता है। What cannot be cured, must be endured. हमारी सहन शक्ति और इच्छा शक्ति की वास्तविक परीक्षा संकट के समय ही होती है। यही वह पल होता है जब हमें अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता है, हमें अच्छे बुरे की पहचान होती है। अपनों की परवाह होती है। और लापरवाही दूर खड़े तमाशा देख रही होती है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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