श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हरा चना (छोड़)…“।)
अभी अभी # 217 ⇒ हरा चना (छोड़)… श्री प्रदीप शर्मा
green chickpeas
हम यहां नाकों चने चबाने की नहीं, हरे चने की बात कर रहे हैं। हरे चने को छोड़ भी कहा जाता है। जिसे किसी ने रोका नहीं, फिर भी जिसे कोई छोड़ने को तैयार नहीं, उसे छोड़ कहते हैं।
मालव धरती तो खैर गहन गंभीर है ही, कभी यहां गेहूं चने की फसल साथ साथ लहराती रहती थी। जिस तरह पैसे पेड़ पर नहीं उगते, चने का भी कोई झाड़ नहीं होता। गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचाए बिना भी हम खेत से गन्ने और छोड़ तोड़ लाते थे। चोरी करना पाप है, लेकिन अगर पकड़े ही नहीं गए, तो काहे की चोरी और कैसा पाप, माई बाप।।
छोड़िए, आप तो छोड़ पर आइए ! गेहूं की तरह चने का भी हरा भरा खेत होता है। हमारे एक अनजान गीतकार के सुपुत्र समीर ने तो चने के खेत पर एक गीत भी लिख डाला है। लेकिन हमें गीत नहीं, खेत में उगने वाले छोड़ पसंद हैं। ज्यादा ऊंचे कद का नहीं होता चने का खेत, आराम से उखाड़िए, और छोड़ के दाने छील छीलकर खाइए। यकीन मानिए, गाने से अधिक नमकीन स्वाद होता है, छोड़ के दानों में।।
मकर संक्रांति के पर्व पर बाजार से ढेर सारे छोड़ लाते थे, छोड़ खुद भी खाते थे और पशुओं को भी खिलाते थे। इंसान वार त्योहार पर माल पकवान बनाता है और बेचारे चौपाये सिर्फ चारा ही खाएं, यह ठीक नहीं। मां छोड़ के दाने नहीं निकालने देती थी, कहती थी, जो गाय के लिए है, उसे हाथ मत लगाओ। तुम्हारे लिए अलग छोड़ रखे हैं। कुछ खा लो, बचे हुओं की छोड़ की सब्जी बना लेंगे।
गेहूं की तरह, चने की भी फसल धूप में पकती है।
सूखने पर, अगर गेहूं की रोटी बनती है, तो चने की भी दाल दलती है। चने की दली हुई दाल बेसन कहलाती है। छोड़िए, अब हम गलती से इंदौर के नमकीन पर आ गए हैं।
जब यही हरे भरे छोड़, हौले हौले से, गर्गागर्म तगारी में, मूंगफली की तरह सेंके जाते हैं, तो होले कहलाते हैं। इनका ऊपर का छिलका गर्म होकर काला हो जाता है, जिसे छीलकर होला खाया जाता है। हाथ भले ही काला, लेकिन मुंह में उस भुने हुए होले का स्वाद आज शायद ही कहीं शहर की सड़कों पर नसीब हो।।
चने हरे हों, या सूखे, ये पौष्टिकता और फाइबर से भरपूर होते हैं। चना वैसे भी, लंबी रेस के घोड़े का प्रिय भोजन है। देसी चने अगर छोटे होते हैं तो बड़े डॉलर चना कहलाते हैं।
छोले भटूरे कौन स्वाद से नहीं खाता। एक अलग ही दुनिया है दलहन की। प्रभु के गुण गाने के लिए तो दाल रोटी ही खाई जाती है, पिज्जा बर्गर और चाउमीन नहीं।
छोड़कर तेरे स्वाद का दामन,
ये बता दे, हम किधर जाएं ;
आप भी छोड़िए मत इस छोड़ को। फिर मत कहना, बताया नहीं।।
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈