श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’ जी का एक शोधपरक दस्तावेज़ प्रयागराज – महाकुंभ आध्यात्मिक एवं भौतिक दर्शन का केंद्र बिंदु।) 

☆  दस्तावेज़ # 16 – प्रयागराज – महाकुंभ आध्यात्मिक एवं भौतिक दर्शन का केंद्र बिंदु ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

(ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से महाकुंभ दुर्घटना में दिवंगतों को अश्रुपूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि )

(विगत कुछ दिनों पूर्व मैंने मॉरीशस के हिंदी साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर से इस विषय पर इस शोधपरक विषय पर खूब चर्चा की, उनके साथ हुई चर्चा पर आधारित ही है यह आलेख – श्री राजेश सिंह ‘श्रेयस’)

 मुद मंगलमय संत समाजू l जो जग जंगम तीर्थराजू l

राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा ll

आज मेरी साहित्यिक,आध्यात्मिक और बौद्धिक चर्चा के केंद्र बिंदु में प्रयागराज है ,जिसे कुछ वर्षो पूर्व हम इलाहाबाद कहते थे, उस पर चर्चा करेंगे l

प्रयागराज अपने पौराणिक अस्तित्व को प्राप्त करने के लिए शायद संघर्ष कर रहा था l इसकी प्रथम कड़ी में जब इसको अपना पौराणिक और पुरातन नाम वापस मिला, तो मुझे लगता है कि आम जनमानस ने सहर्ष इसे स्वीकार भी कर लिया l आज स्थिति यह हुई कि सबकी जुबां पर प्रयागराज नाम इस तरह से विचरण कर रहा है कि मानो प्रयाग की एक अलौकिक छवि जनमानस के दिल पर विचरण कर रही हो l

कुंभ क्या है और कुंभ के पीछे की कहानी क्या है? इस विषय में लगभग हर भरत वंशी पूर्ण रूप से भिज्ञ होगा या कमोबेस जानता होगा l आज मैं इस लेख के माध्यम से एक शोध परक विचारणीय एवं तथ्य से भरे हुए आलेख को प्रस्तुत करना चाह रहा हूं l

तो हम लौटते हैं ऋषि युग की तरफ l उस युग की तरफ जब भारतीय भूखंड में आज की अपेक्षा कई गुना कम जनसंख्या हुआ करती होगी l समूचे भूभाग पर बड़ी -बड़ी पर्वत श्रृंखलाएं एवं वन्य क्षेत्र का एक विशाल स्वरूप होगा l

यदि त्रेता युग कालखंड को मानदंड मानकर उदाहरण स्वरूप ले ले तो भगवान राम ने अपने अधिकांश समय जिस चित्रकूट में बितायें तत् समय वह विशाल वन क्षेत्र रहा होगा , जबकि आज की स्थिति में वह एक नगर क्षेत्र है l 14 वर्ष के वनवास काल के अंतिम कुछ वर्षों में भगवान सुदूर दक्षिण लंका की तरफ बढ़ते हैं तो एक विशाल वन क्षेत्र को पार करते हुए उन्हें जाना होता है l मार्ग में पंचवटी एवं किष्किंधा आदि वन्य क्षेत्र की चर्चा पुराणों में होती है l गोदावरी तट पर भी रुकने के प्रमाण मिलता हैं l यानी जो मैं कहना चाह रहा हूं कि तबकी लगभग पूरी यात्रा वन क्षेत्र से होती हुई पूर्ण होती होंगी l भगवान श्री राम के वन गमन के ऊपर लिखे गए अपने दूसरे खंड पुस्तक को मध्य प्रदेश के विद्वान् हिंदी साहित्यकार गोवर्धन यादव जी “दंडकारण्य की ओर” शीर्षक देते हैं l यानी उसे वन क्षेत्र को दंडक बन कहते थे जब भगवान राम दक्षिण दिशा में गमन कर रहे हैं l तब संसाधन कम हुआ करते थे, या यूं कहे तो पदयात्राएं ही होती थी l यानी घनघोर जंगलों के बीच से गुजरना l इसके बीच में मार्ग की तलाश करना l खूंखार वन्य जीव से स्वयं को बचाते हुए यात्रा करना l रात्रि विश्राम के स्थल होते थे इन्हीं ऋषियों के आश्रम और वहां पर निवास करने वाले ऋषियों के प्रिय वनवासी गण l अब कल्पना करें कितने से दूर भीषण जंगलों के बीच में जो ऋषि निवास करते थे l वे आम तो थे नहीं l वे जन सामान्य से कहीं बहुत ज्यादा विद्वान, विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ महर्षि ऋषि औषधिज्ञ यहां तक की युद्ध कौशल के भी बड़े महारथी थे l तभी यह राजा राजकुमार उनके यहां शस्त्र और शास्त्र दोनों की शिक्षा लेने के लिए जाते थे l

लेकिन इतने दुरूह -दुर्गम और एक दूसरे से हजारों मील दूर स्थानों पर रहने वाले ऋषियों का एक दूसरे को भलीभांति जानना एवं मिलना जुलना बदस्तूर जारी था l आखिर इन विशाल वन क्षेत्र में एक-एक ऋषि महर्षि कितनी दूरी पर रहते थे l बड़े बड़े अन्वेषण और शोध करते थे, लेकिन इन विधाओं का आदान-प्रदान इनके बीच कैसे होता होगा? यह प्रश्न मेरे मन में आता है l भगवान अगस्त ऋषि सुदूर दक्षिण में थे l विश्वामित्र,वशिष्ठ, बाल्मीकि,भारद्वाज, श्रृंगी, सदानंद एवं अत्रि आदि आदि मुनि एवं गुरुवृंद हर कोई आस पास तो नहीं रहता था l ये एक दूसरे से 700-800 किलोमीटर दूर रहते थे l तब न तो संपर्क और संवाद के साधन थे, फिर भी एक दूसरे के ज्ञान बुद्धि विवेक और संस्कृति संस्कार से कैसे परिचित थे l यह कैसे संभव होता था l

अब मैं इस वैचारिक विमर्श के केंद्र पर आता हूं l संचार दूरभाष के तमाम संसाधन न होने के बावजूद, राज्य और समाज व्यवस्था कैसे चलेगी, नए अन्वेषणों पर क्या करना है l चिकित्सा,औषधीय ज्ञानवृद्धि की स्थिति क्या करना है तथा खगोलीय स्थिति क्या है l अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ ये ऋषिगण अपनी राय एक दूसरे के समक्ष किसी बड़े कॉन्फ्रेंस में अवश्य ही रखते होंगे, और उसका आदान प्रदान करते होंगे l ठीक उसी तरह से जैसे की भारत में जी 20 के दौरान कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारत आए और उन्होंने यहां पर एक लंबा विमर्श किया, खास निर्णय ऊपर जाने के बाद यह निश्चित हुआ कि अगले अमुक वर्ष में अगला जी -20 अमुक शहर में होगा l यह हुआ आधुनिक काल l

मुझे लगता है कि यह चारों कुंभ के निश्चित समय (तिथि) एवं स्थान इस महा कार्य हेतु पूर्ण रूप से सबकुछ तय कर देते थे कि कब कहां पर सारे लोग जुड़ेंगे l वह भी कम समय के लिए नहीं जुटेंगे बल्कि एक लंबी अवधि के लिए, लंबी चर्चा के लिए जुटेंगे l

प्रयागराज कुंभ की ही बात करें तो…

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥

देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥

माघ मास में कल्पवाश की बात कहीं इसी रूप में जुड़ती है l सबको ज्योतिषी विज्ञान एवं पंचांग के माध्यम से यह पता रहता था कि अगले छः वर्षो पर अर्धकुंभ एवं बारह वर्षो पर महाकुम्भ का मकर संक्रांति स्नान, मौनी अमावस्या स्नान, महाशिवरात्रि स्नान की तिथियां जो निश्चित होती थी l उसके पूर्व सारे विद्वानों का स्थान विशेष पर पहुंचना प्रारंभ हो जाता होगा l और वह भी बिना किसी सूचना के l इसका अर्थ यह कि महर्षियों, विद्वानों देवताओं के मिलन का सबसे उचित और बड़ा माध्यम ये चारों महा कुंभ हुआ करते होंगे l दूसरे शब्दों में कहीं तो इन विद्वानों के महा अधिवेशन का स्थल यह चारों महाकुंभ क्षेत्र ही थे l उपरोक्त इन्हीं तिथियों को ध्यान में रखकर लगभग भारत के हर कोने के सारे ऋषि महर्षि रिसर्चर अपने-अपने मठ मंदिर, कुटिया और आश्रमों से निकलकर एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ते होंगे l

इस कल्पवास की अवधि में भारत के कोने-कोने का संत समाज, अपनी चर्चा के समय और एजेंडा तय करते होंगे l विद्वानों के वक्तव्य होते होंगे l अब इन विषय विशेषज्ञ को वक्ता मान लेते हैं l लेकिन इन विषयों पर जो निष्कर्ष निकलते होंगे वह आम जनमानस में जाए इसके लिए कौन कौन श्रोता थे, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है l

तीर्थराज कुंभ में पावन स्नान करने के उद्देश्य से भारत के कोने-कोने से आम जन समाज,हर वर्ग संप्रदाय के लोग भी इस पुण्य को प्राप्त करने के लिए,इन ऋषियों एवं विद्वानों के दर्शन एवं श्रवण करने के लिए, उनकी सभाओं में लिए गए नीतिगत निर्णय पर अपनी सहमति की मोहर लगाने के लिए इस महा संसद के दर्शक दीर्घा में पधारते होंगे l

प्रत्येक छः या बारह वर्ष पर लगने वाले इस बड़े आध्यात्मिक अधिवेशन में यदि बहुत बड़ा प्रबुद्ध समाज एवं आम जनमानस जुटता होगा तो, राज्य से ऊपर धर्मनीति को मानने वाली समर्पित राज सत्ताएं भी होंगी, जो कि इस व्यवस्था को अपने शक्ति,सामर्थ्य अर्थ, वैभव,से सम्पादित कराती होंगी l

पूरे कल्पवास अवधि के लिए ये चारो स्थान ( प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार एवं नासिक ) विद्वानों के एक बड़े संगम के रूप में अधिवेशन के लिए तैयार होता होगा l इस काल में धर्म संस्कृति ज्ञान,विज्ञान चिकित्सा आदि विषयों पर शैक्षिक बौद्धिक एवं शोध परक सेमिनार चलते होंगे l नवीन अन्वेषण और विचारों का उदय होता होगा l राज सत्ता को अपने शासन की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए क्या करना है l भारतीय संस्कृति को एकीकृत स्वरूप किस प्रकार देना है, इन विषयों पर राजगुरु और राज ऋषियों की राय निकलकर आती होगी और अंत में उसे अंतिम स्वरूप दिया जाता होगा l चूकि जीवन सारे भौतिक संसाधनों, सुख सुविधाओं का का त्याग कर ये महा मानव एक नवीन मार्ग को धारण कर समाज कल्याण के लिए निकल पड़ते थे, इसलिए इन ऋषियों मुनियों की रक्षा एवं इनको आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए जाने की जिम्मेदारी तत्कालिक राज सत्ता को होती होगी l यानी ऐसे महा संसद में, महाराजा हर्षवर्धन जैसे शासन की भी भागीदारी होती रही है, जैसा कि बाद के इतिहास में भी आता है और वर्तमान में भी इसका स्वरूप दिखाई दे रहा है l

कई माह चलने वाली लंबी चर्चा के उपरांत एक निर्णय पर पहुंचने के बाद आगामी 6 या 12 वर्षों में हमें क्या-क्या करना है,और इसके बाद बाद सभी इस अंतिम निर्णय को स्वीकार करते हुए कि अगला महा अधिवेशन 6 या 12 वर्ष बाद दूसरे स्थान यानी दूसरे कुंभ स्थान में होगा l ऐसा कहते हुए यह सभी ऋषि महर्षि महात्मा व विद्वानगण अपने-अपने वन क्षेत्र स्थित आश्रमों, कुटियों और गुरुकुलों में वापस लौट जाते होंगे l

तीर्थराज प्रयाग के स्थान को पौराणिक दृष्टिकोण से देखें तो मातु गंगा,सरस्वती और यमुना के त्रिवेणी के इस पावन संगम क्षेत्र में स्नान करने का महत्व यह भी है कि यहां हर कोई यदि हम अपने भौतिक शरीर को पवित्र कर माँ सुरसरि के चरणों में वंदन करते हैं तो वही इस त्रिवेणी की भूमि पर आयोजित धार्मिक शिविरो में पहुंचकर वहां पर हो रहे भाषणों, सम्भाषणों, व्याख्यानों को सुनकर शिक्षित दीक्षित होने का भी लाभ प्राप्त करते है l

आज काफी दिनों बाद जैसा कि हम सभी देख रहे हैं कि तीर्थराज प्रयाग अपने अतीत को याद करते हुए एक अलग कलेवर के साथ अपने बौद्धिक एवं पौराणिक महत्व को न सिर्फ प्राप्त कर रहा है बल्कि अध्यात्म के चरम की ओर बढ़ रहा है l

आज भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व प्रयागराज और प्रयागराज की महिमा पर शोध एवं चिंतन कर रहा है l

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तीर्थराज प्रयाग के महत्व को किस रूप में देखते हैं, मां गंगा के महत्व को कैसे बखान करते हैं l गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस के अपने दोहे चौपाइयों में बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रित किया है –

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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