श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अहसान और स्वाभिमान…“।)
अभी अभी # 637 ⇒ अहसान और स्वाभिमान
श्री प्रदीप शर्मा
हम जब से पैदा हुए हैं, हम पर कितनों के अहसान हैं, हम नहीं जानते ! अगर गिनना चाहें, तो गिनती भूल जाएं ! लेकिन बड़े होते होते, हम इन अहसानों को भूलते चले जाते हैं। हम इतने खुदगर्ज होते चले जाते हैं, कि अपने अभिमान और दर्प को ही स्वाभिमान मान बैठते हैं। मैंने कभी किसी का अहसान नहीं लिया। मैं अपने पाँव पर खड़ा हुआ, आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया हूँ।
स्वाभिमानी खुदगर्ज नहीं होता ! वह किये हुए अहसानों के प्रति कृतज्ञ होता है, कृतघ्न नहीं ! हम पर किसके कितने अहसान हैं, उसका लेखा-जोखा रखना संभव नहीं। जब हमारा जन्म ही ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा है, मेहरबानी है, तो मात-पिता, भाई बंधु, मित्र-परिवार समाज, देश और गुरुजन के अहसान की तो बात ही क्या है।।
प्रकृति हमारी सबसे बड़ी पालनकर्ता है। सर्दी, गर्मी, बरसात के मौसम हमें वर्ष भर स्वस्थ रहने में सहयोग करते हैं। मौसम अनुसार फल, सब्ज़ी, तरकारी हमारे शरीर को पुष्ट बनाये रखते हैं। खेतों में अनाज, नदियों में पानी, निरंतर बहती पवन और सूर्य देव की रोशनी अगर न हो, तो हमारा तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। किस किस के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन किया जाए। हमने कब प्रकृति की स्तुति की।
हम प्रतिदिन आपस में सुप्रभात, good morning और राम राम करते हैं, हमें जीवन देने वाले सूर्य को क्या हमें रोज नमस्कार नहीं करना चाहिए? अग्निदेव हमारा भोजन पकाते हैं, ठंड में नहाने के लिए गर्म पानी की व्यवस्था करते हैं। शाम होते ही, केवल स्विच दबाते ही घर में रोशनी हो जाती है। हम किस किसके अहसान मंद हैं, हम ही नहीं जानते। फिर भी हम अभिमानी नहीं, स्वाभिमानी हैं।।
बिना गैस के हमारी रसोई नहीं बनती। बिना पेट्रोल के हमारी गाड़ी नहीं चलती। बिना तनख्वाह के हमारा घर नहीं चलता। बिना चार्जर के हमारा मोबाइल नहीं चलता। कितने आत्म-निर्भर हैं हम। फिर भी कितने खुद्दार हैं।
मैं अपने पाँवों पर खड़ा हूँ ! मैंने जीवन में कितना संघर्ष किया है, मैं ही जानता हूँ। मैं न होता तो इतने बड़े परिवार को कौन सँभालता। आज समाज में मेरी इतनी प्रतिष्ठा है, मान है, सब मेरा ही पुरुषार्थ है। मान मेरा अहसान, अरे नादान। फिर भी कभी नहीं किया अभिमान। और न कभी खोया अपना स्वाभिमान।
जब हम बीमार पड़ते हैं, शरीर वृद्ध हो जाता है, इन्द्रियाँ काम नहीं करती, घुटने काम नहीं करते, आँखों से कम दिखाई देता है, कानों से कम सुनाई देता है, हमें किसी के सहारे की सतत आवश्यकता होती है। गर्म खून ठंडा हो जाता है। फिर भी क्रोध पर काबू नहीं रहता। जो आपकी सेवा करता है, उसके प्रति तक कृतज्ञता का भाव तक नहीं रहता। क्या कहें इसे खुदगर्ज़ी, अभिमान या स्वाभिमान।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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