सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ इब्नबतूता पहन के जूता ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

इससे क्या फर्क पड़ता है कि जूता नाइकी, रीबोक, बाटा या अडीडास का है। मकसद सिर्फ एक है पाँवों की रक्षा करना। झाड़ झंखाड़ , काँटे, तपती रेत कीचड़,आदि से अलिप्त रखना।फिर वह मखमली, हीरेमोती जड़ित, चमड़े प्लास्टिक या कैनवास का साधारण कारीगर द्वारा बनाया गया भी हो सकता है।  रूप रंग और कीमत में भेद हो सकता है।ये अलग बात है कि कुछ लोग रंगों से उलझते हैं , कुछ रूप में तो कुछ कीमत के अहंकार में।

जूता अपने निर्माता की मंशा जानता है।जूते का दर्द , मुकुट किरीट या ताज नहीं अनुभव कर सकता क्योंकि वह सिर पर सवार होकर हुकूमत का नशा महसूस करवाता है। जो संसार के हर नशे में अव्वल है।ये भी उतना ही सच है कि हर मुकुटधारी का काम जूते के बिना नहीं चल सकता।पाँव उसके भी होते हैं।तलुए उसके भी चोटिल हो सकते हैं।ये और बात है कि वह मखमली कालीन पर चलते हुए भी चुभन महसूस कर सकता है।तब भी उसे लाखों के जूते चाहिए।

जूता केवल वस्तु नहीं है।उसका भी दिल है।वह बेहद खुश था जब जैदी ने उसे जाॅर्ज बुश पर उछाला था।इराक में मचाए गये महानाश का प्रतिशोध फिर भी कम था।जूता तब बेहद गर्वित अनुभव कर रहा था,इराकी मजलूमों की आवाज़ बनकर।फेंकनेवाले की नीयत का पता था उसे।पहली बार  खुद के बेशकीमती होने का एहसास हुआ था उसे।अपने निर्माता को मन ही मन धन्यवाद किया था उसने।

पर अब—-जूता उदास है, दुःखी है कि वह न्याय की आसंदी पर उछाला गया है।उसकी सिसकी हवाओं में घुल गयी है।इस गुजारिश के साथ कि कारीगरों ,शिल्पियों, शोषितों की आखिरी उम्मीद को  सूली पर मत चढ़ाओ।

अजीब बात है।थोड़ा वक्त ही बीता है न्याय की देवी को आँखों पर चढ़ाई गयी काली पट्टी को हटाए हुये।उसके दिव्य ही नहीं चर्म चक्षु भी खुल गये हैं।हैरानी है , फिर भी वह पहले से बेहतर नहीं देख पा रही है।वह देखना नहीं चाहती या देखकर भी अनदेखा कर रही है।वैसे भी प्रतिमाओं में न दिल होता है, न धड़कन।

सर्वत्र फैले तमस ने दृष्टि को बाधा पहुँचाई है।ऐसे में आँखों का क्या कसूर ?दिन में चिरागों की जरूरत पड़ रही है।बचपन में पढ़ी हुई पंक्तियां बेसाख्ता याद आ रही हैं—मोरक्को के–

“इब्नबतूता पहन के जूता

निकल पड़े तूफान में।

थोड़ी हवा नाक में घुस गयी

थोड़ी घुस गई कान में।।”

इसमें तूफान शब्द सांय सांय कर रहा है।हड़कंप मचा रहा है।

तूफान और जूते के संबंध और आदतों के बारे में कुछ भी छिपा हुआ तो नहीं है।तूफान शान्तिदूत बनकर तो आते नहीं।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

नागपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments