श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। अब आप प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – सगरमाथा से समुन्दर)

? यात्रा संस्मरण – सगरमाथा से समुन्दर – भाग-९ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

19 जून 2022 की सुबह होटल के कॉम्प्लिमेंटरी ब्रेकफ़ास्ट का शुरुआती अनुभव अच्छा नहीं रहा। मेन्यू देखकर सोचा आधा पराठा चना सब्ज़ी से और दो ब्राउन ब्रेड अण्डा के साथ लेंगे। बासा पराठा तेल में तलकर रखा था। एक टुकड़ा खाकर रख दिया। ब्रेड की तरफ़ रुख़ किया। ब्रेड-ऑम्लेट से काम हो गया। शाकाहारी मेहमान चिड़चिड़ाहट से भरे शिकायत अधिक कर रहे थे, खा कम रहे थे। उन्होंने मैनेजर को बुला कर ताज़ा पराठा बनवाया। फिर किचन से बुलाई ताजी चाय से हिसाब बराबर किया। भारतीय होटल में जो पेशेवराना अन्दाज़ होता है वह नेपाल में नदारत है। जो स्थिति भारत के होटलों में 1980 के दशक में होती थी, लगभग वही स्थिति नेपाल में अभी है। होटल मैनज्मेंट की पढ़ाई वहाँ नहीं होती और बेरोज़गारी अधिक होने से सस्ता अकुशल श्रम उपलब्ध है। इसलिए कर्मचारियों में पेशेवराना कौशल की उम्मीद बेमानी है। 

सारंगकोट

जवाहर जी ने सौदेबाज़ी कुशलता से सारंगकोट जाने के लिए एक आल्टो कार टैक्सी किराये पर ली। जिसका ड्राइवर दीपक बातूनी है। फेवा झील की कहानी सुनाने लगा। हमने बातों को बदलने के हिसाब से उसकी आल्टो का ज़िक्र छेड़ दिया। भारत में महंगाई का रोना रोने वालों को एक ख़ुशख़बरी है। जो आल्टो भारत में पाँच लाख में ख़रीदी जा सकती है वह नेपाल में पच्चीस लाख में मिलती है। क्या कहा? हिसाब बताएँ ! भारत में पाँच लाख में कार ख़रीदी, नेपाली मुद्रा में (5×1.60) आठ लाख में पड़ी, उस पर नेपाल की तीन सौ प्रतिशत कस्टम ड्यूटी लगी, हो गई न चौबीस लाख, उसे नेपाल में लाने का खर्च, बीमा, रोड टैक्स एक लाख। इस तरह पच्चीस लाख की कार 180.00 रुपए प्रति लीटर पेट्रोल पर चलाएँगे तो टैक्सी के किराए के पशुपतिनाथ मलिक हैं। सारंगकोट सबसे खूबसूरत स्पॉट है। यह एक बहुत ऊँची पहाड़ी पर स्थित है जहाँ से चारों तरफ़ हिमालय के अन्नपूर्णा रेंज के पहाड़ दिखते हैं। जिनके बीच में फेवा झील भी झिलमिलाती है। आजकल झील से सारंगकोट केबल कार चलने लगी है। जिसमें बैठकर आप हवा से बातें कर सकते हैं। डर लगे तो गाना भी शुरू कर देते हैं। अधिक डर से पेट में गुड़गुड़ाहट होने लगे तो ऊपर पहुँचने तक इंतज़ार करना होगा। वहाँ सब व्यवस्था है।

हमने चढ़ना शुरू किया। सीढ़ियों पर मुर्गी के चूज़े सामने आ गये। जिनकी मासूमियत देखकर लगा कि इन कठिन पहाड़ों में इनको भी चढ़ने में मुश्किल होती होगी। हम तो दस कदम चढ़कर हाँफने लगे लेकिन वे चूज़े दो-दो सीढ़ी उचक कर हमें चिढ़ाते हुए ऊपर पहुँच कर मुस्कुरा रहे थे। लौटते में इन चूज़ों के मलिक विनोद मिल गये। उन्होंने अन्नपूर्णा शिखर के दर्शन भी कराए और ठंडा पानी भी पिलाया। उन्होंने बताया बाज़ार में एक देशी मुर्ग़ की क़ीमत 3,000/- रुपए है। जो विदेशियों की पहली माँग होने से कमाई का मुफ़ीद साधन है। गाँव में लगभग हर घर देशी मुर्ग़ और बकरे पालता है। हिंदुओं के शाक्त सम्प्रदाय होने के कारण अधिकांश नेपाली माँसाहारी हैं। भोजन में मांस सेवन रोज़ की बात है।  

अन्नपूर्णा पर्वत श्रृंख्ला हिमालय ट्रैक का सबसे मशहूर स्थान है जो ट्रैकर व पर्वतारोहियों का मुख्य केंद्र है। पर्वत की ऊँचाई छूने के एक अनोखा-सा अनुभव होता है। उसी अनुभव को पर्यटक यहाँ जीने आते है। कठिन चढ़ाई आपको उस जगह पहुँचा देगी जहाँ से आप पूरे शहर व उसके आस-पास के संपूर्ण दृश्यों को अपनी आँखों में भर सकते हैं। अपने साथ कैमरा या अच्छा मोबाईल लेकर जाए ताकि अधिक-से-अधिक तस्वीरों को बटोरकर अपने साथ ले जा सकें।

सारंगकोट पर्वत पर अद्भुत दृश्यों के लिए प्रसिद्ध है। यह समुद्र तल से 1600 मीटर की ऊँचाई पर बसा एक हरियाली युक्त स्थान है। पैराग्लाइडिंग का मुख्य केंद्र भी है। यहाँ से ऊगते और ढलते सूरज को देखना मतलब एक यादगार दृश्य को आँखों में समाना। यहाँ से अन्नपूर्णा, धौलागिरी, मनस्लू व पोखरा की घाटी का मनोरम दृश्य दिखता है। अलग-अलग ऐंगल से आप तस्वीरें खींच सकते हैं। आप यहाँ शाम को टहल सकते है। चहलक़दमी के दौरान चिड़ियों की चहचहाट आपका हृदय जीत लेगी।

गोरखा म्यूज़ियम

पहाड़ से नीचे उतरकर एक जगह लंच लिया। उसके बाद पोखरा के महेंद्र पुल पर स्थित गोरखा म्यूज़ियम देखने गये। पोखरा दर्शनीय स्थल के इस हिस्से में आकर आप गौरवान्वित महसूस करेंगे। यह संग्राहलय गोरखा सिपाहियों को समर्पित है जिन्होंने अपने अदम्य साहस से देशवासियों को हमेशा गर्व महसूस करवाया है। मौका आने पर इन्होंने देश को अपनी सेवा से कृतज्ञ किया है। यहाँ आकर आप गोरखा सिपाहियों के जीवन के बारे में जान सकेंगे कि कैसे उन्होंने मुश्किल से मुश्किल परिस्थिति से देश को दुश्मनों से बचाया है? आप यहाँ आकर बखूबी समझ पाऐंगे। तस्वीरों के ज़रिए आप इनके जीवन की तह तक पहुँच पाऐंगे। इससे अच्छा मौका आपको और कहीं नहीं मिलेगा कि आप उनके जीवन शौर्य से कुछ पल के लिए जुड़ें।

मिथक के अनुसार गोरखनाथ नाम के एक संत पहली बार नेपाल में प्रकट हुए थे। उनके ‘पदचिह्न’ और एक मूर्ति के साथ एक गुफा बनी हुई है जिस स्थान पर ऋषि गोरखनाथ प्रकट हुए थे, उस स्थान पर नगर की स्थापना होने के कारण स्थान का नाम गोरखा पड़ा। 

महाराजा पृथ्वी नारायण शाह ने खंडित नेपाल के राज्यों को एकसूत्र में पिरोने के लिए 1744 में पहली गोरखा सेना का गठन किया था। गोरखा युद्ध के दौरान गोरखाओं द्वारा प्रदर्शित यौद्धा गुणों से प्रभावित होकर, सर डेविड ओक्टरलोनी ने ब्रिटिश भारतीय सेना में गोरखाओं को अनियमित बलों के रूप में लेना शुरू किया। 24 अप्रैल 1815 को, गोरखा रेजिमेंट की पहली बटालियन को नासिरी रेजिमेंट के रूप में स्थापित किया गया था। यह रेजिमेंट बाद में किंग जॉर्ज की पहली शाही गोरखा राइफल्स बन गई।

गोरखा पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार में सहायक रहे। गोरखाओं ने गोरखा-सिख युद्ध, प्रथम और द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध, अफगान युद्ध और 1857 के भारतीय विद्रोह को दबाने में साहसिक प्रदर्शन किया था। इन वर्षों के दौरान, अंग्रेजों ने गोरखाओं की भर्ती जारी रखकर गोरखाओं की संख्या में वृद्धि की। गोरखा रेजीमेंटों ने दोनों विश्व युद्धों के दौरान राष्ट्रमंडल सेनाओं के हिस्से के रूप में एक प्रमुख भूमिका निभाई, और व्यापक युद्ध सम्मान अर्जित किया। नेपाली खुकरी चलाने वाले गोरखाओं को सम्मान दिया। 

भारत की स्वतंत्रता के बाद, भारत, नेपाल और ग्रेट ब्रिटेन ने गोरखा सैनिकों के बँटवारे हेतु ब्रिटेन-भारत-नेपाल त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए।  ब्रिटिश भारतीय सेना में 10 गोरखा रेजिमेंटों में से छह को भारतीय सेना में स्थानांतरित करने के लिए रखने लिए प्रावधान किया गया था। चार नेपाल ने रखीं थीं। 2020 तक, भारत में 7 गोरखा रेजिमेंटों में सेवा देने वाली 39 गोरखा बटालियन हैं। भारतीय फ़ौज में जनरल मानेकशॉ इसी रेजिमेंट के चीफ़ थे। जिन्होंने एक पत्रकार के प्रश्न, कि क्या फ़ौजी को मौत से डर नहीं लगता है, के जवाब में कहा था कि “यदि फ़ौजी को मौत से डर नहीं लग रहा तो या तो वह गोरखा है या फ़ौजी झूठ बोल रहा है।”

बौद्ध पेगोडा

हमारी टैक्सी अनाडू पर्वत पर एक खाजा घर के सामने रुकी। उसकी मलाकिन हुमक कर आई और बोली- पहले इधर आइए-फिर ऊपर जाइए। हमने कहा- पहले ऊपर जाएँगे-फिर लौट कर खायेंगे। फिर न उसने बुलाया और ना हम गये।  

एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित बौद्ध पेगोडा को शांति स्तूप या पीस पगोड़ा के नाम से भी जाना जाता है। यह अनाडू पर्वत पर काफ़ी ऊँचाई पर स्थित है।  लेकिन हिम्मत करके चढ़ गये। क़रीब पाँच सौ सीढ़ियाँ चढ़कर आधा घंटे में ऊपर पहुँचे। जहाँ से फेवा झील को देख प्रफुल्लित हुए। इस पर्वत से चारों तरफ़ पोखरा की बसावट नज़र आती है। हर तरफ पहाड़-ही-पहाड़ के बीच बसा यह स्तूप अपने नाम के अनुकूल शांति का एहसास करवाता है। पेगोडा परिसर में आर्य मौन व्रत का पालन करवाया जाता है। बात करने पर पेगोडा सेवक चुप रहने की मौन हिदायत देते रहते हैं। हमने सोचा, विपसना ध्यान के लिए इससे उत्तम स्थान नहीं मिलेगा। जवाहर जी और हमने बीस मिनट का ध्यान किया। उसके बाद नीचे उतरे। पोखरा दर्शनीय स्थल में यह बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ आकर इस शोभित स्थान को छोड़ देना आपकी बहुत बड़ी भूल होगी।

मांउनटेन म्यूज़ियम

पेगोड़ा से उतरकर इंटरनेशनल मांउनटेन म्यूज़ियम देखने पहुँचे जो नेपाल के पुरातत्व विभाग की  देखरेख में संचालित है। यह संग्रहालय मुख्य रूप से पर्वतारोहण के क्षेत्र में हासिल की कई उपलब्धियों को प्रदर्शित करने के लिए बनाया गया है।  

वहाँ पहुँचने पर पता चला कि संग्रहालय का उद्घाटन 5 फरवरी 2004 को हुआ था। हर साल 100,000 से अधिक घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक इंटरनेशनल माउंटेन म्यूजियम (IMM) देखने आते हैं। IMM दुनिया भर में पहाड़ और पर्वतारोहण से संबंधित महत्वपूर्ण रिकॉर्ड, दस्तावेज और प्रदर्शित करता है। कोविड-19 महामारी के कारण, संग्रहालय मार्च 2020  में बंद हो गया था। नवंबर 2020 में फिर से खुला है। संग्रहालय में तीन मुख्य प्रदर्शनी हॉल हैं। हॉल ऑफ ग्रेट हिमालय, हॉल ऑफ फेम और हॉल ऑफ वर्ल्ड माउंटेन। नेपाली लोगों की पारंपरिक संस्कृति और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती पर्वतीय लोगों की संस्कृति और जीवन शैली, प्रसिद्ध चोटियों, प्रसिद्ध पर्वतारोहियों के वर्णन, भूविज्ञान सहित वनस्पतियों  और जीवों की प्रदर्शनी हैं। यति के बारे में भी एक प्रदर्शनी है, जो नेपाल की जनजातियों को समर्पित है। माउंट मानसलू की 31 फुट की प्रतिकृति भी दर्शनीय है।

संग्रहालय में अनोखी कलाकृतियों, वास्तविक उपकरण, पर्वतों से जुड़ी अनसुनी कहानियाँ व तस्वीरें और कुछ ऐसे यात्रियों की तस्वीरें जो सबसे ऊँची पर्वत श्रृंख्ला तक पहुँच चुके हैं, सबकुछ शामिल है। संग्राहलय आपको हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के साथ 14 सबसे मशहूर व ऊँची चोटियों से परिचित करवाता है।

डेविस फॉल

संग्रहालय से निकल कर डेविस फॉल झरने की तरफ़ रुख़ किया, जिसकी खास बात यह है कि ये ज़मीन के नीचे 500 मीटर लंबी सुरंग में है। इसके आस-पास का इलाका घने वृक्षों से घिरा हुआ है। यह अन्य सभी वॉटरफॉल से अलग है। पोखरा आकर प्राकृतिक नज़ारों से लबालब यह जगह देखना बेहद अलहदा अनुभव है। पोखरा में पर्यटन स्थल की कमी नहीं है पर इस जगह जाना मतलब प्रकृति को खुद में समा लेना। यह झील गुप्तेश्वर महादेव नामक गुफा से होकर गुज़रती है।  

अगर आप अपने रोमांच को चरम-सीमा पर पहुँचाना चाहते हैं, तो यह जगह खास आपके लिए है। जैसा कि आप नाम से समझ गए होंगे कि यह एक ऐसी गुफा है जहाँ आपको हज़ारों की तादाद में चमगादड़ दिखेंगे। अँधेरी गुफा में हर तरफ उल्टे लटके चमगादड़, सोचिए कितना रोमांचक होगा! पतली गुफाओं से होकर गुज़रते हुए आप इस गुफा को अपनी पोखरा यात्रा का हिस्सा बना सकते है।

नज़दीक में उन हज़ारों तिब्बती लोगों के लिए शरणार्थी शिविर बनाए गए थे जो 1959 में तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा होने के बाद नेपाल भाग आए थे। यहाँ तिब्बती लोग हाथ से बने गहनें, हल्की वस्तुऐं, कारपेट, कलाकृति बेचते है। तिब्बत की पारंपरिकता इन वस्तुओं में साफ दिखाई पड़ती है। यही वस्तुएँ यहाँ का मुख्य आकर्षण है जिन्हें पर्यटक स्मृति के तौर पर अपने साथ ले जाते है। 

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20 जून 2022 को पहले पोखरा से लुम्बिनी के लिए बस या टैक्सी से जाना तय था लेकिन रास्ते में भूश्रखलन होने से बुद्धा एयरवेज से पोखरा से भैरहवा के लिए हवाई जहाज़ टिकट बुक करानी पड़ीं। अब बस में धक्के खाने की जगह हवाई जहाज़ से उड़कर लुम्बिनी पहुँचना होगा। एक फ़ायदा यह होगा कि समय बचेगा, और नुक़सान यह होगा कि रास्ते के हिमालय सौंदर्य का रसपान नहीं कर पायेंगे। हिमालय का वह हिस्सा हमारी आँखों से औझल रह गया।  

सुबह नाश्ते में ब्रेड-दूध और ग्रीन विजिटेबल का सेवन किया। होटल ने हवाई अड्डा के लिए टैक्सी उपलब्ध कराई। समय पर विमानतल पहुँच गए। वहाँ बीस-पच्चीस लोगों के बैठने हेतु कुर्सियाँ थीं। सभी भरी थीं। बाहर आकर ज़मीन पर बैठ इंतज़ार करने लगे। हवाई अड्डा इतना छोटा है कि उस जैसे बीस हवाई अड्डा मिलकर भी नई दिल्ली स्टेशन के बराबर नहीं हो सकते हैं। हवाई अड्डा का हाल 80 फुट लम्बा और 60 फुट चौड़ा है, यानि निवासी कालोनियों के 2400 वर्ग फुट के दो प्लॉट के बराबर। प्रस्थान क्षेत्र ज़रूर थोड़ा बड़ा है। किसी सफ़ाई की आशा करना बेकार है। आगमन-प्रस्थान व्यवस्था चाकचौबंद नहीं अपितु राम भरोसे है। हैंड बैगेज की सुरक्षा जाँच ठीक से नहीं होती। प्रहरी और कर्मचारी सभी लापरवाह हैं। इसीलिए शायद आतंकवादियों ने 2001 में काठमांडू-दिल्ली फ़्लाइट को अगवा करके अमृतसर होते हुए कंधार ले गए थे। विमान 64 सीट वाला छोटा सा था। उसमें एक भी सीट रिक्त नहीं थी। एयरकंडिशन में जान नहीं थी। विमान में बैठे नीचे के इलाक़ों के बारे में सोचते रहे।

नेपाल-भारतीय सीमा पर पूर्व से पश्चिम गोरखपुर, बस्ती, गोंडा, बरेली और लखनऊ ज़िलों की सीमा लगती है। नेपाल से घाघरा नदी उतर कर फ़ैज़ाबाद होते हुए छपरा के पास गंगा में मिलती है। बिहार के बेतिया, मोतिहारी, दरभंगा और पूर्णिया ज़िले नेपाल सीमा पर हैं। नेपाल तरफ़ जनकपुर और मिथिला हैं। जनकपुर सीता जी का मायका और रामचंद्र जी की ससुराल है। गंडक नदी हाजीपुर के नज़दीक गंगा में मिलती है। विराटनगर से कोशी नदी बिहार में प्रवेश करती है। वह गंगा से मिलने के पूर्व पूर्णिया ज़िला में मानसूनी बाढ़ का तांडव मचाती है। गर्मागरम वातावरण में बीस मिनट में भैरहवा पहुँच गये। टैक्सी से होटल आलोक में पहुँच आराम किया। लंच लेकर लुम्बिनी घूमना तय किया।

लुम्बिनी

नेपाल में लुम्बिनी प्रांत के रूपन्देही जिले में लुम्बिनी बौद्ध तीर्थ स्थल है। बौद्ध परंपरा के अनुसार, यह वह स्थान है जहां रानी महामायादेवी ने 563 ईसा पूर्व सिद्धार्थ गौतम को जन्म दिया था। लुम्बिनी में मायादेवी मंदिर सहित कई पुराने मंदिर हैं। विभिन्न देशों के बौद्ध संगठनों द्वारा विभिन्न नए मंदिर निर्मित किए गये हैं या अभी भी निर्माणाधीन हैं। कई स्मारक, मठ, एक संग्रहालय और लुंबिनी अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान भी पवित्र स्थल हैं। इसके अलावा पुष्करिणी सरोवर है, जहाँ महामायादेवी ने प्रसव पूर्व स्नान किया था। लुम्बिनी को 1997 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया।  

लुम्बिनी एक बड़े मठ क्षेत्र 4.8 किमी (3 मील) और चौड़ाई 1.6 किमी (1.0 मील) से घिरा है जिसमें केवल मठ बनाए जा सकते हैं, कोई दुकान, होटल या रेस्तरां नहीं बनाए जा सकते। यह पूर्वी और पश्चिमी क्षेत्र में विभाजित है। पूर्व क्षेत्र में थेरवा वादी मठ हैं जबकि पश्चिमी क्षेत्र में महायान और वज्रयान मठ हैं। पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों को अलग करने वाली एक लंबी नहर पानी से भरी है, जिसकी लंबाई के साथ दोनों क्षेत्रों को जोड़ने वाले ईंट मेहराब पुलों की एक श्रृंखला है। नहर के उत्तरी छोर पर मोटर नौकाओं द्वारा पर्यटकों को नौकायन सेवा प्रदान की जाती है। महामाया मंदिर दर्शन के बाद हमने भी नौकायन का आनंद लिया। लुंबिनी के पवित्र स्थल में प्राचीन मठों के खंडहर, एक पवित्र बोधि वृक्ष, एक प्राचीन स्नान तालाब, अशोक स्तंभ और मायादेवी मंदिर है, जिसे पारंपरिक रूप से बुद्ध की जन्मभूमि माना जाता है। बुद्ध की जन्मभूमि होने से विभिन्न देशों के तीर्थयात्री सुबह से लेकर शाम तक इस स्थल पर नामजप और ध्यान करते हैं।

लुम्बिनी में 200 से अधिक दर्शनीय स्थल दस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बिखरे हैं। हम आलोक-इन होटल में रुके। हम सोच रहे थे कि घूमने के लिए टैक्सी कर ली जाए। मैनेजर से पता चला कि टैक्सी की बजाय इलेक्ट्रिक ऑटो बेहतर रहेगा। वह हमें सभी धार्मिक स्थलों के नज़दीक तक ले जायेगा। जवाहर जी ने पंद्रह सौ रुपए बताने वाले एक इलेक्ट्रिक ऑटो वाले को नौ सौ नेपाली रुपयों में तय कर लिया। बैठने के बाद पता चला कि ऑटो वाला थोड़ा अक्खड़ मिज़ाज है। इसलिए थोड़ा सा हमें भी सख़्त होना पड़ा। सबसे पहले सिद्धार्थ जन्म स्थली महामाया मंदिर देखने पहुँचे। यह एक पुरातात्विक खोज है। भला हो जेम्ज़ प्रिंसेप का जिन्होंने यह जगह खोज निकाली जहाँ सम्राट अशोक का शिलालेख गड़ा था। जो हमें बताता है कि सम्राट अशोक ने उस स्थान को सिद्धार्थ की जन्म स्थली के रूप में खोज कर प्रस्तर शिलालेख स्थापित करवाया था।   घूमने के दौरान पता चला कि लुम्बिनी परिसर को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: पवित्र उद्यान, मठ क्षेत्र, सांस्कृतिक केंद्र और न्यू लुम्बिनी गांव।

  • पवित्र उद्यान लुम्बिनी क्षेत्र में बुद्ध का जन्मस्थान और पुरातात्विक आध्यात्मिक महत्व के अन्य स्मारक जैसे मायादेवी मंदिर, अशोक स्तंभ, मार्कर स्टोन, जन्म मूर्तिकला, पुष्करिणी पवित्र तालाब और अन्य संरचनात्मक खंडहर शामिल हैं।
  • बौद्ध स्तूप और विहार क्षेत्र को दो क्षेत्रों में विभाजित किया गया है: पूर्वी मठ क्षेत्र जो बौद्ध धर्म के थेरवाद स्कूल का प्रतिनिधित्व करता है और पश्चिमी मठ क्षेत्र जो बौद्ध धर्म के महायान और वज्रयान स्कूल का प्रतिनिधित्व करता है, दोनों तरफ उनके संबंधित मठ हैं। एक लंबा पैदल मार्ग और नहर है जिसके दोनों तरफ़ बौद्ध मठ हैं। कई देशों ने अपने अद्वितीय ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि में बौद्ध स्तूप और मठ स्थापित किए हैं।
  • सांस्कृतिक केंद्र और न्यू लुम्बिनी गांव में लुम्बिनी संग्रहालय, लुम्बिनी अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान, विश्व शांति स्तूप शामिल हैं। जापान का शिवालय, लुम्बिनी क्रेन अभयारण्य और अन्य प्रशासनिक कार्यालय हैं।

बौद्ध के जन्म के समय पहुँच जाएँ तो कहानी आसान लगने लगेगी। ईसा से 600 वर्ष पूर्व तक कृषि, लघु उद्योग और व्यापार स्थापित होकर उन्नति करने लगे थे। स्वामित्व संस्था का विकास होने के फलस्वरूप मालिकाना हक़ की सुरक्षा हेतु एक राजसत्ता की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। जिसे पूरा करने के लिए समाज के प्रमुख गणों ने जनपद नामक संस्था गठित करना शुरू किया। भारत में तराई के इलाक़े और मालवा-गुजरात के अलावा पंजाब के इलाक़े बहुत उर्वरक होने से ज़मीन सोना उगलने लगी। कारोबार फलने-फूलने लगा। देश-दुनिया का सोना मुद्रा रूप में हाथोंहाथ इन महाजनपदों तरफ़ बह चला। उसी काल में इन इलाक़ों में सोलह जनपदों का विकास हुआ।   

आरंभिक बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में निम्न लिखित सोलह महाजनपदों का नाम मिलता है। अंग, अश्मक, अवंति, चेदि, गांधार, काशी, काम्बोज, कोसल, कुरु, मगध, मल्ल, मत्स्य पांचाल, सुरसेन, वज्जि, वत्स। ईसापूर्व छठी सदी में जिन चार महत्वपूर्ण राज्यों ने प्रसिद्धि प्राप्त की उनके नाम हैं, मगध के हर्यंक, कोसल के इक्ष्वाकु, वत्स के पौरव और अवंति के प्रद्योत। जनपदों में घोर हिंसक संघर्ष के दौर में महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध का अवतरण हुआ। जनता भी घातक खूनी संघर्षों से परेशान थी। उसने जैन और बौद्ध दर्शनों को अंगीकार किया। पहले बिंबिसार जैन हुए फिर अशोक बौद्ध हो गए थे।  

शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु थी। लुम्बिनी कपिलवस्तु के पूर्व में देवदाह नामक एक कुलीन गणराज्य में स्थित था। बौद्ध परंपरा के अनुसार, यहीं पर बुद्ध का जन्म हुआ था। माना जाता है कि 1896 में रूपन्देही में खोजा गया एक स्तंभ अशोक की लुम्बिनी यात्रा के स्थान को चिह्नित करता है। स्तंभ की खोज से पहले स्थल को लुम्बिनी के नाम से नहीं जाना जाता था। शिलालेख में लेख है: “जब राजा देवनामप्रिय प्रियदर्शिन का अभिषेक हुए बीस वर्ष हो गया था, तो उन्होंने स्वयं इस स्थान पर आकर पूजा की क्योंकि बुद्ध शाक्यमुनि का जन्म यहीं हुआ था। एक पत्थर का खंभा स्थापित किया, कि धन्य यहाँ पैदा हुआ थे। (उसने) लुमिनि के गाँव को उस साल करों से मुक्त कर दिया, और बाद में (केवल) उत्पादन के आठवें हिस्से का भुगतान लिया।” पार्क को पहले रूपन्देही के नाम से जाना जाता था, जो भगवानपुरा के उत्तर में 2 मील दूर स्थित है।

हम सभी साथी महामाया मंदिर में पहुँचे। एक पुरातात्विक खंडहर के बीच में महामाया देवी अशोक वृक्ष की शाखा पकड़े प्रसवलीन हैं। हमें स्मरण हुआ- सुत्त निकाय में कहा गया है कि बुद्ध का जन्म लुम्बिनेय जनपद में शाक्यों के एक गाँव में हुआ था। बौद्ध परंपरा में बुद्ध के जन्म के तुरंत बाद महामाया की मृत्यु हो गई, जिसे आमतौर पर सात दिन बाद कहा जाता है। इस प्रकार महामाया ने अपने बेटे की परवरिश नहीं की, शिशु का पालन-पोषण उनकी मौसी महाप्रजापति गोतमी ने किया था।

महामाया (माया) का अर्थ संस्कृत में “भ्रम” है। माया को महामाया और मायादेवी (मायादेवी, “रानी माया”) भी कहा जाता है। चीनी में, उसे मोये-फ़ेरेन, “लेडी माया”) के रूप में जाना जाता है, तिब्बती में उसे ग्युट्रुल्मा के नाम से, जापानी में उसे माया-बुनिन के नाम से, सिंहली में उन्हें महामाया देवी के रूप में जाना जाता है।

वहाँ उनके जीवन के अन्य दृश्यों को दिखाया गया है, जैसे कि गौतम बुद्ध के साथ उनकी गर्भावस्था की भविष्यवाणी करने का सपना देखना या उनके पति राजा शुद्धोदन के द्वारा बेटे के जीवन के बारे में भविष्यवाणियां करना, उनके जन्म के तुरंत बाद, उन्हें अक्सर गौतम को जन्म देते समय चित्रित किया जाता है, एक घटना जिसे आम तौर पर आधुनिक तराई में लुंबिनी में हुआ माना जाता है। माया को आमतौर पर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर जन्म देते हुए और सहारे हेतु एक शाखा को पकड़े ऊपर की ओर पहुंचते हुए दिखाया गया है। बौद्ध विद्वान मिरांडा शॉ, कहते हैं कि जन्म के दृश्य में रानी माया का चित्रण यक्षिणी के रूप में जानी जाने वाली वृक्ष आत्माओं के पहले बौद्ध चित्रणों में स्थापित एक पैटर्न का अनुसरण करता है।

माया का विवाह कपिलवस्तु के शाक्य वंश के शासक राजा शुद्दोधन से हुआ था। वह राजा शुद्दोधन के चाचा की बेटी थी इस प्रकार शुद्दोधन की चचेरी बहन थी; उसके पिता देवदह के गण प्रमुख थे। माया और राजा शुद्धोधन की शादी में बीस साल तक कोई संतान नहीं हुई। किंवदंती के अनुसार एक पूर्णिमा की रात रानी को एक सपना दिखा। उसने महसूस किया कि वह चार देवों द्वारा हिमालय में अनोट्टा झील में ले जाया जा रहा है। उसे सरोवर में स्नान कराने के बाद देवताओं ने स्वर्गिक वस्त्र पहनाए, इत्र से अभिषेक किया और दिव्य फूलों से सजाया। इसके तुरंत बाद एक सफेद हाथी, अपनी सूंड में एक सफेद कमल का फूल लिए प्रकट हुआ और तीन बार उसकी परिक्रमा की, उसके दाहिनी ओर से उसके गर्भ में प्रवेश कर गया। अंत में हाथी गायब हो गया और यह जानते हुए कि हाथी महानता का प्रतीक है, उसे एक महत्वपूर्ण संदेश दिया गया है, रानी जाग गई।  

बौद्ध परंपरा के अनुसार जन्मना बुद्ध तुइता स्वर्ग में एक बोधिसत्व के रूप में निवास कर रहे थे। उन्होंने आखिरी बार पृथ्वी पर पुनर्जन्म लेने के लिए एक सफेद हाथी का आकार लेने का फैसला किया। माया ने सिद्धार्थ को 563 ईसा पूर्व जन्म दिया  गर्भावस्था दस चंद्र महीनों तक चली। प्रथा का पालन करते हुए, रानी जन्म के लिए अपने घर लौट रही थी। बीच राह में वह साल के पेड़ (शोरिया रोबस्टा) के नीचे टहलने के लिए अपनी पालकी से नीचे उतर गई। नेपाल के खूबसूरत फूलों के बगीचे में माया देवी पार्क से प्रसन्न हुई और एक साल पेड़ के नीचे खड़े होकर जन्म दिया। किंवदंती है कि राजकुमार सिद्धार्थ उसके दाहिने तरफ से निकले थे।

विद्वान आम तौर पर इस बात से सहमत हैं कि अधिकांश बौद्ध साहित्य यह मानते हैं कि बुद्ध के जन्म के सात दिन बाद माया की मृत्यु हो गई, और फिर तुसीता स्वर्ग में उनका पुनर्जन्म हुआ। बुद्ध के ज्ञानोदय के सात साल बाद, वह तवतीमसा स्वर्ग की यात्रा करने के लिए नीचे आईं, जहां बाद में बुद्ध ने उन्हें अभिधर्म का उपदेश दिया। उसकी बहन प्रजापति बच्चे की पालक माँ बनी। सिद्धार्थ  आत्मज्ञान प्राप्त करके बुद्ध बनने के बाद, माता को सम्मान देने और धम्म की शिक्षा देने के लिए तीन महीने स्वर्ग में अपनी माँ के साथ रहे।

ललितविस्तार एक संस्कृत महायान बौद्ध सूत्र है जो गौतम बुद्ध की कहानी को तुशिता से उनके वंश के समय से लेकर वाराणसी के पास हिरण पार्क में उनके पहले उपदेश तक बताता है। ललितविस्तार शब्द का अनुवाद “द प्ले इन फुल” या “एक्सटेंसिव प्ले” किया गया है, जो महायान के दृष्टिकोण का जिक्र करता है कि बुद्ध का अंतिम अवतार इस दुनिया में प्राणियों के लाभ के लिए था। देवदाह की यात्रा के दौरान बुद्ध लुम्बिनि वन में रहे और वहां देवदाह सुत्त का प्रचार किया।

1896 में, जनरल खड्गा समशेर राणा और एलोइस एंटोन फ्यूहरर ने 7वीं शताब्दी ईस्वी में प्राचीन चीनी भिक्षु-तीर्थयात्री जुआनज़ांग द्वारा और एक अन्य प्राचीन चीनी भिक्षु-तीर्थयात्री फैक्सियन द्वारा सृजित महत्वपूर्ण ऐतिहासिक अभिलेखों में उल्लेख है कि रूपन्देही में एक महान पत्थर के स्तंभ की खोज की। स्तंभ पर ब्राह्मी शिलालेख इस बात का प्रमाण देता है कि सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इस स्थान का दौरा किया था और इसे बुद्ध के जन्म स्थान के रूप में पहचाना था। शिलालेख का अनुवाद परनवितन ने किया था।

रॉबिन कॉनिंघम के अनुसार लुंबिनी में मायादेवी मंदिर में अशोक युग के दौरान मौजूदा ईंट संरचनाओं के नीचे खुदाई बौद्ध मंदिर की दीवारों के नीचे एक पुरानी लकड़ी की संरचना के प्रमाण प्रदान करती है। अशोक मंदिर का लेआउट उस काल की लकड़ी की संरचना का बारीकी से अनुसरण करता है, जो साइट पर पूजा की निरंतरता की तरफ़ इंगित करता है। मौर्य पूर्व की लकड़ी की संरचना एक प्राचीन वृक्ष मंदिर प्रतीत होती है। लकड़ी के पोस्टहोल से लकड़ी का कोयला की रेडियोकार्बन डेटिंग और मिट्टी में तत्वों की वैकल्पिक रूप से उत्तेजित ल्यूमिनेसिसेंस डेटिंग से पता चलता है कि मानव गतिविधि लगभग 1000 ईसा पूर्व लुंबिनी में शुरू हुई थी। कॉनिंघम बताते है, साइट 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व से एक बौद्ध स्मारक हो सकता है।

हमने बुद्ध की जन्मस्थली पर वह चीज पता करने की कोशिश की जिसे “ज्ञान” कहते हैं। जिसका उपदेश उन्होंने दुनिया को दिया। इसका सारांश क्या है। वह जैसा हमें समझ आया, वह इस तरह है।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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