श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। अब आप प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – सगरमाथा से समुन्दर)

? यात्रा संस्मरण – सगरमाथा से समुन्दर – भाग-१० ☆ श्री सुरेश पटवा ?

बुद्ध दर्शन

जिस समय एकेश्वरवाद धर्मों के स्वयंभू पुजारी धर्म के “ध” की बारहखड़ी सीख कर रहे थे उस समय तक भारतीय दर्शन ईश्वर को चुनौती देकर मानव समाज के लिए आवश्यक “सहिष्णु-व्यक्तित्व” के गठन हेतु स्वयं को संयमित और व्यवस्थित करके दूसरों लोगों ही नहीं जीव जगत और प्रकृति के साथ अन्योन्याश्रित सम्बंधों के गणित का कठिन प्रश्न हल कर रहे थे। भारतीय चिंतकों ने मनुष्य के भाग्य को भगवान भरोसे छोड़ने की बजाय खुद ज़िम्मेदार होने की ज़िम्मेदारी लेना सिखाना शुरू कर दिया था।

गौतम बुद्ध जिन्हें बौद्ध दर्शन का प्रवर्तक माना जाता है, उनके लिए संसार दुखों का घर है। संसार में आने वाला हर प्राणी दुखों का पुंज लेकर धरती पर आता है। संसार में कोई आए और दुखों से उसका सम्बन्ध न हो, यह असम्भव है। समस्त बौद्ध विचार “चत्वारि आर्य सत्यानि” में समाहित है। चार आर्य सत्यों की यात्रा निर्वाण की यात्रा है। जिसकी शुरुआत दुख से होती है। किसी को पिता के मरने का दुख, किसी को पत्नी के मरने का, किसी को विवाह न होने का दुख तो किसी को रोगी होने का और किसी को अभीप्सित की पूर्ति न होने का दुख। संसार में दुख ही दुख हैं और संसार दुखों का घर है। चार आर्यसत्य, पंचशील, अष्टांगिक मार्ग आदि के रूप में बुद्ध को प्राप्त ज्ञान और उनकी शिक्षाएँ समझी जा सकतीं हैं।

चार आर्य सत्य

तथागत बुद्ध का पहला धर्मोपदेश, जो उन्होने अपने साथ के कुछ साधुओं को दिया था, इन चार आर्य सत्यों के बारे में था। बुद्ध ने चार आर्य सत्य बताये हैं।

 1.दुख

  • इस दुनिया में दुःख है। जन्म में, बूढे होने में, बीमारी में, मौत में, प्रियतम से दूर होने में, नापसंद चीज़ों के साथ में, चाहत को न पाने में, सब में दुख है। गौतम बुद्ध दु:ख से संसार की यात्रा की शुरुआत मानते हैं किन्तु उनका लक्ष्य दुखों को स्थापित करना नहीं था। दु:ख की चर्चा दुख को जानने के लिए करते हैं, उसके कारणों को ढूंढऩे के लिए करते हैं।

2.दुख का कारण

  • दुख है तो उसका कारण भी है, जैसे डॉक्टर रोग के निदान के लिए रोग के कारणों को ढूंढते हैं तो रोग का सटीक निदान होता है, वैसे ही दुख है तो दुख का कारण है और जब कारण का पता चल जाता है तो उसका निवारण हो जाता है।
  • तृष्णा, या चाहत, दुख का कारण है और वह फ़िर से सशरीर धारण करके संसार को जारी रखती है। हर जन्म से तृष्णा और भी गहन होती जाती है।
  • भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में तृष्णा का अर्थ ‘प्यास, इच्छा या आकांक्षा’ से है। तृष्णां, तृ मतलब तीन, इष्णा मतलब लालच। तीन लालच, पहला धन का लालच, दूसरा पुत्र (वंश) का लालच, तीसरा सम्मान का लालच।

3.दुख निरोध

  • तृष्णा के निराकरण से दुख निरोध सम्भव है। किसी वस्तु की तृष्णा से उसे ग्रहण करने की जो प्रवृत्ति होती है, उसे उपादान कहते हैं। उपादान से ही प्राणी के जीवन की सारी भागदोड़ होती है, जिसे भव कहते हैं। तृष्णा के न होने से उपादान भी नहीं होता और उपादान के निरोध से भव का निरोध हो जाता है। यही निर्वाण के लाभ की दिशा है। हम उपादान और प्रतीत्यसमुत्पादन की चर्चा आगे करेंगे।
  • प्रतीत्यसमुत्पादन की दूसरी कड़ी ‘तण्हापच्चया उपादानं’ – इसी का प्रतिपादन करती है।
  • दुःख-निरोध के आठ साधन बताये गये हैं जिन्हें ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया है। तृष्णा से मुक्ति पाई जा सकती है। बुद्ध दु:खों के निदान के लिए ही दुख का उल्लेख करते हैं। इसे वे दुख निरोध कहते हैं।

4.दुख निरोध का मार्ग

  • तृष्णा से मुक्ति अष्टांगिक मार्ग के अनुसार जीने से पाई जा सकती है। दुख निरोध के लिए दु:ख निरोध मार्ग भी बताते हैं। अत: उनका लक्ष्य दुख निरोध मार्ग से दुख दूर कर निर्वाण को प्राप्त करना है।

जन्म दुख है, ज़रा दुख है, व्याधि दुख है, मरण दुख है, प्रिय से बिछुड़ना दुख है, अप्रिय से मिलना दुख है। जीवन के दो छोर जन्म और मृत्यु दुख से भरे हैं। सुख-दुख एक सिक्के के दो पहलू हैं। सुख लेना छोड़ दें तो दुख स्वमेव छूटना तय है।

अष्टांगिक मार्ग

बौद्ध धर्म के अनुसार, चौथा आर्य सत्य अष्टांग मार्ग है दुःख निरोध पाने का रास्ता। गौतम बुद्ध कहते थे कि चार आर्य सत्य की सत्यता का निश्चय करके इस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए :

प्रज्ञा

  • सम्यक् दृष्टि- वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि है। कामना प्रकट होती है नष्ट हो जाती है। सुख स्थायी नहीं है।
  • सम्यक् संकल्प- आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना ही सम्यक् संकल्प है। कामना से अनासक्त होना संकल्प है।

शील

  • सम्यक् वाक्- सदा सत्य तथा मृदु वाणी का प्रयोग करना ही सम्यक् वाक् है। वही वाणी अनासक्त है।
  • सम्यक् कर्मान्त- इसका आशय अच्छे कर्मों में संलग्न होने तथा बुरे कर्मों के परित्याग से है।
  • सम्यक् आजीव- विशुद्ध रूप से सदाचरण से जीवन-यापन करना ही सम्यक् आजीव है।

समाधि

  • सम्यक् व्यायाम- अकुशल धर्मों (अति) का त्याग तथा कुशल धर्मों (मध्यम) का अनुसरण ही सम्यक् व्यायाम है।
  • सम्यक् स्मृति- इसका आशय वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप (उत्पत्ति-भव) के संबंध में सदैव जागरूक रहना है।
  • सम्यक् समाधि – चित्त की समुचित एकाग्रता ही सम्यक् समाधि है। अविचलित चित्त समाधि की पूर्व शर्त है।

सत्य और अहिंसा आंतरिक सफ़ाई तथा ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह बाहरी बुहारियाँ हैं। सम्पूर्ण सफ़ाई से ही निर्वाण सम्भव है। अष्टांगिक मार्ग अनुसरण पूर्व पंचशील समझना अनिवार्य बताया है।

पंचशील

भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायिओं को पांच शीलों का पालन करने की शिक्षा दी है।

1.अहिंसा

  • पालि में – पाणातिपाता वेरमनी सीक्खापदम् सम्मादीयामी !
  • अर्थ – मैं प्राणि-हिंसा से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।

2.अस्तेय

  • पालि में – आदिन्नादाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
  • अर्थ – मैं चोरी से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।

3.अपरिग्रह

  • पालि में – कामेसूमीच्छाचारा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
  • अर्थ – मैं संग्रह व व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।

4.सत्य

  • पालि नें – मुसावादा वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी
  • अर्थ – मैं झूठ बोलने से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।

5.सभी नशा से विरत

  • पालि में – सुरामेरय मज्जपमादठटाना वेरमणाी सिक्खापदम् समादियामी।
  • अर्थ – मैं पक्की शराब (सुरा) कच्ची शराब (मेरय), नशीली चीजों (मज्जपमादठटाना) के सेवन से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ।

इन आचरण शील पर स्थिर होने के बाद आष्टांगिक मार्ग अनुसरण होता है।

निर्वाण है तो उसके प्राप्ति का मार्ग भी है। बौद्ध दर्शन में इसे अष्टांग मार्ग कहा गया है। सम्यक् दृष्टि अर्थात जैसी वस्तु है वैसा ज्ञान है। सम्यक् संकल्प अर्थात दृढ़ इच्छा शक्ति है। दृढ़ इच्छा को वाणी में उतरना सम्यक् वाक् है। केवल वाणी में ही उतरना नहीं अपितु व्यवहार में उतारना सम्यक् कर्म है। सम्यक् आजीव, व्यायाम, सम्यक् स्मृति के अभ्यास के लिए बुद्ध ने विस्तृत उपदेश दिया है।

कुछ लोग आर्य अष्टांग मार्ग को पथ की तरह समझते है, जिसमें आगे बढ़ने के लिए, पिछले के स्तर को पाना आवश्यक है। और कुछ लोगों को लगता है कि इस मार्ग पर सब साथ-साथ चलते जाते हैं। अष्टांग मार्ग को तीन हिस्सों में वर्गीकृत किया जाता है : प्रज्ञा, शील और समाधि।

बौद्ध दर्शन में प्रज्ञा, शील और समाधि के अन्तर्गत अष्टांग मार्ग को समाहित किया गया है। प्रज्ञा के अन्तर्गत सम्यक् दृष्टि व सम्यक् संकल्प आते हैं। प्रज्ञा से व्यक्ति की दृष्टि और संकल्प सधते हैं। शील में सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव एवं सम्यक् व्यायाम समाहित है। शील में वाणी, कर्म स्वत: आ जाते है। पेशा या व्यवसाय भी शील के ही अंग है। अच्छा करने और बुरा रोकने का अभ्यास शील है। प्रज्ञा और शील की सुखद यात्रा के बाद समाधि तक पहुंचा जाता है। समाधि के पूर्व स्मृति भी समाधि में स्वत: समाहित है। अष्टांगमार्ग को प्रज्ञा, शील और समाधि जैसे त्रिरत्न के अंतर्गत रखा गया है जो जैन त्रिरत्नज्ञान, दर्शन और चारित्र से पृथक है। पूर्ण प्रज्ञा, पूर्ण शील और पूर्ण समाधि से निर्वाण संभव है।

प्रतीत्य समुत्पाद

बौद्ध दर्शन में  “कर्म और फल का सिद्धांत” एक मौलिक और महत्वपूर्ण सिद्धांत है। जिसे पाली भाषा में पटिच्चसमुप्पाद, संस्कृत में ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ और इंग्लिश में dependent coercing कहा जाता है। हिंदी में इसे कार्य-कारण, कारण-परिणाम या फिर कर्म और विपाक (विपाक अर्थात कर्म का फल) का सिद्धांत भी कहा जाता है. प्रतीत्य समुत्पाद को ‘भवचक्र’ भी कहा जाता है क्यूंकि ये हमारे भव या becoming का विश्लेषण है। प्रतीत्य समुत्पाद को  ‘द्वादशनिदान’ भी कहा जाता है। इसमें बारह बिंदु हैं और इन बिन्दुओं में पूरे जीवन का निदान या diagnosis है। प्रतीत्य समुत्पाद तृष्णा तिरोहिति व्रत है।

प्रतीत्य समुत्पाद में प्रतीत्य शब्द का अर्थ है घटना घटित हो जाने पर या घटना के बीत जाने पर और समुत्प्पाद का अर्थ है नई घटना या कुछ नया उत्पन्न होना। सरल शब्दों में इसका अर्थ हुआ कि “एक घटना घटित हो जाने के परिणाम स्वरुप कोई और घटना घट जाती है और यह सिलसिला जारी रहता है।” यह क्रम सीधा और सरल ना होकर एक जटिल जाल की तरह है। जल, थल और नभ में हर क्षण कुछ न कुछ घटित होता रहता है और इन घटनाओं के मिलेजुले परिणाम होते रहते हैं। जो दूसरी घटनाओं को उत्पन्न करते रहते हैं। इन सब घटनाओं का एक प्रवाह चलता रहता है। अर्थात संसार परिवर्तनशील है। ये घटनाएं भौतिक हों या अभौतिक, चेतन हों या अचेतन, विचार हों या वस्तु किसी ना किसी कारण से होती हैं बिना कारण के नहीं। इसका कोई अपवाद नहीं है।

प्राणी समाज के लिए घटनाएं कर्म पर आधारित हैं और उनके परिणाम (विपाक) के अनुसार फिर कर्म का चक्र आगे चलता रहता है। क्योंकि संसार का चक्र परिवर्तनशील है इसलिए दुखदायी है। दूसरे शब्दों में कारण के होने पर ही कार्य होता है और कारण ना होने पर कार्य नहीं होता जिसका अर्थ है की हम दुःख को समझ लें, कारण ढूँढ लें तो दुःख को रोक पाएंगे।

गौतम बुद्ध ने प्रतीत्य समुत्पाद के माध्यम से जटिल जीवन चक्र को बड़ी सरलता से समझाया है। संयुक्त निकाय के बुद्ध वर्ग के विपस्सी सुत्त में गौतम बुद्ध कहते हैं कि-

“भिक्खुओ बौद्ध होने से पहले जब मैं विपश्यना (मैडिटेशन) कर रहा था तो मन में सवाल थे – यह लोक दुखों से घिरा हुआ है। मानव पैदा होता है, बूढ़ा होता है, मर जाता है, और फिर जन्म  लेता है। इस दुःख भरे चक्र से छुटकारा कैसे पाया जा सकता है? मैं इस जरा-मरण के दुःख से छुटकारा जान पाया?” यह प्रतीत्य समुत्पाद चक्र है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति फँसा है।”

प्रतीत्य समुत्पाद चक्र के द्वादश बिंदुओं को सरल ढंग से भी समझा जा सकता है।

  1. जरा-मरण क्या है?

किसी भी जीव का ढल जाना, दांत गिरना, झुर्रियां पड़ना, बाल सफ़ेद हो जाना, इन्द्रियों का शिथिल पड़ जाना, बूढ़ा होना इत्यादि ‘जरा’ या जर्जर होना (ageing) कहलाता है। पांच स्कंधों (विवरण आगे दिया गया है) का छिन्न भिन्न हो जाना, चोला त्याग देना, सांस का न आना मरण कहलाता है। यही जरा-मरण है।

भिक्खुओ मन में चिंतन किया, किसके होने से जरा-मरण होता है? जरा-मरण का कारण क्या है? भली प्रकार चिंतन मनन से ज्ञात हुआ कि जन्म के होने से जरा-मरण होता है। जाति/जन्म ही जरा-मरण का हेतु है।

  1. जाति / जन्म क्या है?

जीव का प्रकट होना, पैदा हो जाना, पांच स्कंधों का मिलना, इन्द्रियों का जुड़ कर काम करने लग जाना यही जाति या जन्म (birth)  है।

चिंतन मनन का अगला सवाल था – किसके होने से जाति या जन्म होता है? जन्म का हेतु क्या है? विचारने पर ज्ञात हुआ कि भव के होने से जाति होती है। भव ही जन्म का हेतु है।

  1. भव क्या है?

भव तीन प्रकार के हैं- 1. काम लोक में बने रहने की इच्छा अर्थात काम-भव (sensual becoming) है, 2. रूप लोक में बने रहना की इच्छा रूप-भव (form becoming)  है,  और 3. अरूप लोक में बने रहना अरूप-भव (formless becoming)  है।

इस पर प्रश्न उठा कि किसके होने से भव होता है? भव का हेतु क्या है? विचार करने के बाद ज्ञात हुआ कि उपादान के होने से भव होता है. उपादान भव का हेतु है।

  1. उपादान क्या है?

उपादान या आसक्ति (craving)  चार तरह की हैं. 1. काम से आसक्ति (sensuality clinging), 2.  मिथ्या दृष्टि से आसक्ति (false view clinging), 3. शीलव्रत से आसक्ति (precept & practice clinging) और 4. आत्मवाद से आसक्ति (doctrine of self clinging)।

अब सवाल ये था कि किसके होने से उपादान होता है? उपादान का हेतु क्या है? गहन मनन के बाद प्रज्ञा जागी कि तृष्णा होने से उपादान होता है। तृष्णा ही उपादान का हेतु है।

  1. तृष्णा कितने प्रकार की है?

तृष्णा छः प्रकार की है. 1. रूप तृष्णा (craving for forms), 2. शब्द तृष्णा (craving for sounds), 3. गंध तृष्णा (craving for smells), 4. रस तृष्णा (craving for tastes), 5. स्पर्श तृष्णा (craving for touch) और 6. धर्म तृष्णा (craving for ideas)।

प्रश्न है कि किसके होने से तृष्णा होती है? तृष्णा का हेतु क्या है? उत्तर है कि वेदना होने से तृष्णा होती है. वेदना ही तृष्णा का हेतु है।

  1. वेदना कितने प्रकार की है?

वेदनाएं छः प्रकार की हैं. 1. चक्षु के माध्यम से होने वाली वेदना, 2. कान के माध्यम से से होने वाली वेदना, 3. नाक के माध्यम से होने वाली वेदना, 4. जीभ के माध्यम से होने वाली वेदना, 5. काया से होने वाला स्पर्श और 6. मन के संस्पर्श से होने वाली वेदना।

प्रश्न उठा कि किसके होने से वेदना होती है? वेदना का हेतु क्या है? चिंतन मनन करने से उत्तर मिला कि स्पर्श के होने से वेदना होती है। स्पर्श ही वेदना का हेतु है।

  1. स्पर्श कितने प्रकार के हैं?

छः तरह के स्पर्श हैं. 1. चक्षु स्पर्श, 2. कान स्पर्श, 3. नाक स्पर्श, 4. जीभ स्पर्श, 5. काया स्पर्श और 6. मन स्पर्श।

इस पर फिर प्रश्न किया कि किसके होने से स्पर्श होता है? स्पर्श का हेतु क्या है? विचार करने पर जाना कि षड़ायतन होने से स्पर्श होता है. षड़ायतन ही स्पर्श का हेतु है।

  1. षड़ायतन क्या है?

षड़ायतन या सलायतन (six senses) इस प्रकार हैं: 1. चक्षु आयतन, 2. कान आयतन, 3. नाक आयतन, 4.जीभ आयतन, 5. काया आयतन और 6.मन आयतन।

अब प्रश्न ये था कि किसके होने से षड़ायतन होता है? षड़ायतन का क्या हेतु है? विचार किया तो उत्तर मिला कि नाम-रूप होने से षड़ायतन होता है। नाम-रूप ही षड़ायतन का कारण है।

  1. नाम-रूप क्या है?

पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि जैसे महाभूतों के संयोग से रूप बना। वेदना, संज्ञा, चेतना, और स्पर्श से मन और सबको मिला कर बना नाम-रूप। अब सवाल ये उठा कि किसके होने से नाम-रूप होता है? नाम-रूप का हेतु क्या है? विचार करने पर प्रज्ञा जागी कि विज्ञान के होने से नाम-रूप होता है। विज्ञान ही नाम-रूप का हेतु है।

  1. विज्ञान कितने प्रकार के हैं?

विज्ञान छः प्रकार के हैं. 1. चक्षु विज्ञान 2. कान, 3. नाक, 4. जीभ, 5. काया और 6. मन विज्ञान।

प्रश्न ये आया कि किसके होने से विज्ञान होता है? विज्ञान का क्या हेतु है? मनन करने पर पाया की संस्कार के होने से विज्ञान होता है। संस्कार विज्ञान का हेतु है।

  1. संस्कार कितनी तरह के हैं?

संस्कार तीन प्रकार के  हैं। 1. काया संस्कार 2. वाक् संस्कार, 3. चित्त संस्कार।  

मन में प्रश्न आया कि किसके होने से संस्कार होते हैं? संस्कारों का हेतु क्या है? गहन चिंतन से पाया कि अविद्या के होने से संस्कार होते हैं. अविद्या ही संस्कारों का हेतु है।

  1. अविद्या क्या है?

दुःख को ना जानना, दुःख के उदय को ना जानना, दुःख-निरोध को ना समझना और दुःख त्यागने का मार्ग ना जानना अविद्या कहलाता है।

यह बारह बिन्दुओं की श्रंखला हमें दुःख और दुःख के कारण बताती है। साथ ही अगर कारण पता हैं तो उन्हें दूर करने का उपाय भी मिल सकता है. इसी श्रंखला के बारवें बिंदु से पहले बिंदु तक भी विचार कर सकते हैं जैसे कि…

* अविद्या हो तो संस्कार जागते हैं,

> संस्कारों की वजह से विज्ञान है,

> विज्ञान है तो नाम-रूप है,

> नाम-रूप है तो षड़ायतन हैं,

> षड़ायतन के कारण स्पर्श हो जाता है,

> स्पर्श के कारण वेदना होती है,

> वेदना से तृष्णा उपजती है,

> तृष्णा से उपादान या आसक्ति हो जाती है,

> आसक्ति से भव जागता है,

> भव से जाति या जन्म होता है और

> जन्म से जरा मरण होता है*

अब अगर अविद्या का विनाश कर दिया जाए तो संस्कारों का विनाश हो जाएगा, संस्कारों के विनाश से विज्ञान का खात्मा हो जाएगा, विज्ञान का विनाश होगा तो नाम-रूप का भी विनाश होगा, नाम-रूप का विनाश होगा तो षड़ायतन का, षड़ायतन का विनाश हो जाए तो स्पर्श का विनाश हो जाए, स्पर्श का विनाश हो तो वेदना का विनाश हो जाए, अगर वेदना गयी तो तृष्णा भी गई, तृष्णा के विनाश से आसक्ति समाप्त होगी, आसक्ति नहीं तो भव नहीं, भव न हो तो जन्म नहीं और अगर जन्म नहीं तो जरा-मरण दुःख, चिंताएं और परेशानी नहीं।

लुम्बिनी प्रवास में चिंतन जारी है। हम किसी भी तीर्थ स्थल पर केवल मंदिर, मूर्ति, इतिहास, पुरातत्व साक्ष्य देखने नहीं जाते, अपितु इन सबके पीछे क्या दर्शन है, उस पर भी चिंतन हो तो यात्रा सफल होती है। अन्यथा वैचारिक स्तर पर घर से जैसे चले थे वैसे ही घर पहुँचे तो यात्रा की उपलब्धि क्या रही। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है।

बुद्ध दुनिया में भारत के सर्वकालिक ब्रांड एम्बेसडर हैं। विश्व के कोने-कोने में समृद्ध घरों की बैठकों में उनकी बर्स्ट याने चेहरा मूर्ति मिल जायेगी। इसका कारण यह है कि जीवन के दुख से निजात पाने हेतु उन्होंने एक वैज्ञानिक सोच पर आधारित दर्शन दुनिया को दिया है। वह दर्शन सनातन सिद्धांतों का विस्तार ही था। अनात्मवाद का एक नया सिद्धांत बुद्ध दर्शन को सनातन से अलग करता है। बाद के सनातन ऋषियों ने बुद्ध को भी विष्णु का नौवाँ अवतार बताकर भारतीय दर्शन में मिला लिया। फिर भी बुद्ध की राह पृथक ही रही। भारतीय संस्कृति समन्वयवादी रही है। वह तो ईसा और मुहम्मद को भी समायोजित कर सकती थी परंतु वे श्रेष्ठता और एकेश्वरवाद की हठ छोड़ते तब वह सम्भव था। वे तो सनातन को आमूलचूल मिटाने पर आमादा था।   

प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धांत से अविद्या, संस्कार, वेदना, तृष्णा इत्यादि कैसे दूर होंगी? इसके लिए गौतम बुद्ध द्वारा बताई गई विपश्यना मैडिटेशन सीखनी होगी। लेकिन उसके पूर्व उनका अनात्मवाद सिद्धांत समझना होगा। नहीं तो आत्मसुख के चक्कर में भटक सकते हैं।

अनात्मवाद सिद्धांत और चेतना

बुद्ध वैसी आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते जैसी आत्मा अद्वैतवाद में अस्तित्वमान बताई जाती है। वे आत्मा को जीव या चेतना कहते हैं।
जो पाँच स्कंधों के समन्वय से अस्तित्वमान होता हैं अर्थात् रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, इन पांचों का समुदाय ही चेतना कहलाता है। इस प्रकार बुद्ध केवल पामार्थिक नित्य आत्मा का निषेध करते है परंतु अनित्य व्यावहारिक चेतना को मान्य करते है। वे पाँच स्कंध इस तरह बताए गए हैं।

रूप स्कन्द 

पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार महाभूत तथा इनके मेल से उत्पन्न सभी रूप स्कन्ध कहलाते है। हड्डी, स्नायु, मांस और चर्म से घिरा आकार ही रूप कहलाता है।

वेदना स्कंध

सुख, दुःख और न सुख-दुःख इन तीनों प्रकार की अनुभूतियों को वेदना कहते है।

संज्ञा स्कन्ध

गुणों के आधार पर किसी वस्तु का नामकरण ही संज्ञा-स्कन्ध (ज्ञान) है। संज्ञा का कार्य पहचान कराना है। हमें नील, पीत, रक्त, श्वेत आदि रूप से वस्तु का भान होता है, यही संज्ञा है।

संस्कार स्कंध

कुशल-अकुशल चेतना की राग-द्वेष आदि मानसिक प्रवृत्तियां तीन संस्कार हैं।

काय संस्कार- कायिक धर्म, आश्वास-प्रश्वास

वाक् संस्कार- वितर्क-विचार वचन या

चित् संस्कार- संज्ञा और वेदना

विज्ञान स्कन्ध

बाह्य वस्तुओं का ज्ञान और आंतरिक अहं अर्थात् ‘मैं’ का ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है। संज्ञा, वेदना और विज्ञान तीनों का आपस में सम्बंध है।

मधुर, तिक्त आदि स्वाद का अनुभव वेदना है, किसी वस्तु का परिचयात्मक ज्ञान संज्ञा है।

परिच्रय के पहले स्वरुप मात्र का ज्ञान विज्ञान हैं।

इस तरह पांच स्कंध या पांच ढेर या पांच समुच्चय , पांच मनो-भौतिक समुच्चय बौद्ध दर्शन के आधार हैं। पांच स्कंध सिद्धांत अनिवार्य रूप से यह समझने की एक विधि है कि हमारे जीवन का हर पहलू लगातार बदलते अनुभवों का संग्रह है। ऐसा कोई एक पहलू नहीं है जो वास्तव में ठोस, स्थायी या अद्वितीय हो। सब कुछ प्रवाह में है। सब कुछ कई कारणों और स्थितियों पर निर्भर है। उदाहरण के लिए, 

  • रूप-स्कंधहमारे भौतिक संसार-हमारे शरीर और हमारे भौतिक परिवेश में सब कुछ को संदर्भित करता है। ये सभी चीजें लगातार बदल रही हैं।
  • वेदना-स्कंधहमारी संवेदनाओं को संदर्भित करता है जो सकारात्मक, नकारात्मक या उदासीन हैं – हमारी सभी संवेदनाएं क्षणभंगुर हैं, क्षण-क्षण बदलती रहती हैं। 
  • संज्ञा-स्कंधका अर्थ है हमारी हर उस चीज़ की पहचान या लेबलिंग जो हम देखते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं, स्पर्श करते हैं या सोचते हैं; ये लेबल भी लगातार प्रवाह में हैं।
  • संस्कार-स्कंद(हमारी सभी मानसिक आदतें, विचार, विचार, मत, पूर्वाग्रह, मजबूरियां आदि) कई कारणों और स्थितियों पर निर्भर हैं और हमेशा बदलते रहते हैं।
  • हमारी चेतना स्वयं एक चीज नहीं है, बल्कि अनुभूतियों का संग्रह है (विज्ञान-स्कंध:) जो लगातार बदल रहे हैं।

बौद्ध मत में, स्कंधों की विशेषताओं पर विचार करके, हम आत्म-लोभ को दूर कर सकते हैं। आत्म-लोभी एक स्वयं की अवधारणा से लगाव है जो अद्वितीय, स्वतंत्र और स्थायी है। बौद्ध मत में, स्वयं के इस विकृत दृष्टिकोण के प्रति यही लगाव ही दुख का मूल कारण है। अतः इस आसक्ति को त्याग कर हम स्वयं को बुढ़ापा, बीमारी और आसन्न मृत्यु के कष्टों से मुक्त करने का प्रयास कर सकते हैं। यही निर्वाण की दिशा है।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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