श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख – “रिएलिटी शोज : कितने रियल ?।)

☆ आलेख ☆ रिएलिटी शोज : कितने रियल ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मनोरंजन के साधन में जब से इडियट बॉक्स( टीवी) ने बड़े पर्दे ( सिनेमा) को पछाड़ कर प्रथम स्थान प्राप्त किया, तो उसमें रियलिटी शोज का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्षों चलने वाले सीरियल्स जब ज्यादा ही सीरियस / स्टीरियो टाइप होने लगे तो दर्शकों ने रिएलिटी शोज को सरताज़ बना डाला हैं। वैसे अंग्रेजी की एक कहावत है कि “majority is always of fools”.

विगत एक दशक से अधिक समय से तो संगीत, नृत्य और विविध प्रकार के रियलिटी शोज का तो मानो सैलाब सा आ गया हैं।

अधिकतर भाग लेने वाले बच्चे गरीब घरों से होते हैं, या उनकी गरीबी और पिछड़ेपन से दर्शकों की भावनाओ के साथ खिलवाड़ किया जाता है। कोई अपने घर की एक मात्र आजीविका गाय पशु को बेच कर मायानगरी में आकर सितारा  बनना चाहता है, तो कोई ऑटो चालक का बच्चा ऑटो की बलि देकर मुंबई आता है। क्या माध्यम या उच्च वर्ग के बच्चे इन कार्यक्रमों में कीर्तिमान स्थापित नहीं कर सकते हैं?

कार्यक्रम के प्रायोजक/ चैनल विजेता बनने के लिए अपनी शर्तें और नियम का हवाला देकर आपको जीवन भर या लंबे समय के लिए “बंधुआ मज़दूर” बनने के लिए मजबूर कर देते हैं।                             

अब लेखनी को विराम देता हूं, क्योंकि मेरे सब से चहेते कार्यक्रम का फाइनल जी नही फिनाले का समय हो गया है। टीवी पर रिमाइंडर आ गया है, इसलिए मिलते है, अगले भाग में।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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