डॉ.राशि सिन्हा

(राजभाषा दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है डॉ राशि सिन्हा जी का एक विचारणीय आलेख यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी।)  

☆ राजभाषा दिवस विशेष – यांत्रिक युग में भौतिक कलेवर में फंसी हिंदी ☆ डॉ.राशि सिन्हा ☆ 

अभिव्यक्ति के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं व सृजनात्मक संभावनाओं का सरलीकरण कर किसी राष्ट्र की विद्यमान जीवन-स्थिति को व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान कर देश की सामाजिक, सांस्कृतिक व समस्त विविधताओं को आत्मिक स्वरुप प्रदान कर देश को एकसूत्र में बाँधने में किसी देश की भाषा का योगदान सबसे बड़ा होता है।  संदर्भगत हॉवेल की उक्ति सार्थक प्रतीत होती है, किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझने की कसौटी केवल एक है और वह यह है कि उस देश और समाज का भाषा से सरोकार क्या है”। इन्हीं कारणों से अभ्यंतर अभिव्यक्ति को सर्वाधिक सशक्त  अभिव्यक्ति मानते हुए 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को संविधान  के अधिकारिक राजभाषा के रुप में स्वीकृत किया गया, ताकि वसुधैव कुटुंबकम की भावना पर आधारित देश की ‘राज्य-राष्ट्र’ की कल्पना को अखंडित-अक्षुण्ण रख  विकास के पथ पर निरंतर अग्रसर हो सके हमारा राष्ट्र, किंतु ‘यांत्रिक युग’ के रुप में परिभाषित होते वर्तमान में ‘भाषायी वैश्विकरण’, उदारवाद व उपभोक्ता-संस्कृति के केंद्र में बैठे बाजारवाद की चुनौतियों के आगे हमारी मातृभाषा ‘हिंदी’ अपने ही घर में ‘दोयम दर्जे’ की मार झेलने को विवश होती दिखाई देती है।  साथ ही,  संस्कृति निष्ठ हिंदी के समर्थकों के एक विशेष वर्ग के कारण भी आज इसकी अभिव्यंजना शक्ति को नजरअंदाज किया जा रहा है।  फलत: यह आम लोगों की पकड़ से दूर होती जा रही है। आज समाज में एक ऐसा भी वर्ग है जो स्वभाषा के प्रति आत्महीनता के भाव से ग्रसित, निज भौतिक स्वार्थ में लिप्त, अँग्रेजी के ऐतिहासिक आतंक से, ऊपर उठने के बजाय इस वर्ग ने हिंदी व अँग्रेजी में प्रतिस्पर्धा की स्थति उत्पन्न कर रखा है।  फलत: भाषायी वैश्वीकरण के नाम पर गुगल में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद आज अपने ही घर में हिंदी तिरस्कृत है।  बोलचाल की भाषा के रुप में प्रचलित ‘हिंग्लिश -संस्कृति’ युवाओं की मानसिकता के साथ साथ समाज के प्रत्येक वर्ग-व्यवसाय को मनोवैज्ञानिक रुप से ऐसा जकड़ रखा है कि हिंदी की जड़ें अपनी  ही संस्कृति के आँगन में हिलती नजर आती है।  भाषा का समाज -शिक्षा-संस्कृति के साथ नाभि-नाल संबंध होता है, किंतु आज हमारे देश में यह भाषायी विडंबना है कि सिविल सर्विसेज जैसी उच्च कोटि में अँग्रेजी भाषा-तंत्र का बोलबाला है हिंदी माध्यम के परिणाम दिनोंदिन कम से कमतर होते जा रहें हैं। परिणामत:महत्वकांक्षी युवावर्ग अँग्रेजी को अपनाने के लिए विवश हो रहा है।  कहने का तात्पर्य यह है कि सरकारी तंत्र से लेकर समाज का हर व्यक्ति दिनोंदिन अपनी मातृभाषा को हेय समझ उसे दोयम दर्जा देने को आतुर दिख रहा है।  इन्हीं भौतिक कलेवर में फँसीबिचारी हिंदी आज अपने ही घर में दोयम-दर्जे के अस्तित्व को जीने के लिए विवश होती दिखाई देती है।

ऐसे में भरतेंदु हरिश्चन्द्र की पंक्तियाँ याद आती हैं,

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल/बिनु निज भाषा ग्यान के, मिटै न हिय के शूल।  ”

इन सारी बातों से इतना तो तय है कि राष्ट्र के वैश्विक पहचान व निरंतर विकास हेतु निज भाषा को अपनाना, सम्मान देना अति आवश्यक है।  इसके लिए सरकारी तंत्र पर निर्भर रहने के बजाय व्यापक जनआंदोलन में व्यक्तिगत रुप से अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।  वैसी जिम्मेदारी जिसमें मनोवैज्ञानिक रुप से भाषायी आत्मियता को महसूस कर उसे अंगीकार करना होगा।  तभी हिंदी अपने घर में गूंगी होने से बच सकेगी और हम अपनी भाषायी विरासत को एकदिवसीय महत्ता से निकालकर इसके अस्तित्व को पूर्ण अस्तित्व प्रदान कर सकेंगे।

डॉ.राशि सिन्हा

नवादा, बिहार

( साभार श्री विजय कुमार, सह संपादक – शुभ तारिका, अम्बाला)

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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